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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/31/09

समाज हित के लिये सकारात्मक दृष्टिकोण आवश्यक-आलेख (positive think neccesary for social welfare-hindi article)

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में व्यक्ति को सदैव सकारात्मक सोच की प्रेरणा दी जाती है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य का मन उसे अपने सुख सुविधायें पाने के लिये हमेशा विचलित किये रहता है। ऐसे में मनुष्य या तो दिमागी रूप से आलसी होकर रह जाता है या फिर उसके अंदर नकारात्मक विचारों के प्रति रुझान बढ़ता है।

देखा जाये तो हमारे देश में नकारात्मकता का बोलबाला हमेशा ही रहा है इसलिये धर्मग्रंथों में नाटकीयता के साथ अध्यात्मिक ज्ञान भी सम्मिलित किया गया है पर लोग उनमें शामिल नाटकीय विषयों को मनोरंजन की दृष्टि से देखते हैं जबकि उसमें शामिल अध्यात्मिक ज्ञान ही ग्रहण करने लायक है यह बहुत कम लोग सोच पाते हैं।
लोगों के दृष्टिकोण का यह हाल है कि उनको नकारात्मक विषयों के प्रति अधिक रुझान रहता है।
हमारे देश में यह पंरपरा है कि लड़का जब बाहर कहीं जाता है तो अपने माता पिता के पांव छूता है और आता है तो छूता है। ऐसे दृश्य को लोग निरपेक्ष भाव से देखते हैं। कभी आपसी चर्चा में ऐसे नहीं कहते कि ‘अमुक लड़का अपने माता पिता के पांव छूता है’। इसके विपरीत अगर किसी लड़के ने माता पिता पर हमला कर दिया तो चीत्कार कर उठते हैं ‘आजकल कैसा खराब जमाना आ गया है’।
ठीक उसी तरह हर माता अपने माता अपने बच्चे को प्यार करती है पर कुछ ऐसी घटनायें ऐसी भी हो जाती हैं जब वह अपने बच्चे का गला घोंट देती है। तब भी ऐसी ही चीत्कार। कहने का तात्पर्य यह है प्रेम और सम्मान निरपेक्ष भाव से देखे जाते हैं और चर्चा के लिये घृणा के साथ हिंसा के विषय लोगों को अच्छे लगते हैं। यह आज से नहीं बल्कि बहुत समय से होता रहा है। आजकल समाचार पत्र और टीवी ने तो एक तरह से आदमी की सोच को लुप्त ही कर दिया है। उसमें आये दिन ऐसे ही समाचार आते हैं। उसमें खलपात्रों का भी प्रचार किया जाता है। अमुक डान ने यह किया तो अमुक ने वह किया। एक तो समाज में वैसे ही नकारात्मक सोच की प्रधानता उस परा टीवी और समाचार पत्रों के खलपात्रों का महिमामंडल आज की पीढ़ी को भटका रहा है। सच तो यह है कि समाज में अच्छाई और बुराई का भेद ही समाप्त हो चुका है। बुराई और दुस्साहस को सक्रियता और अच्छाई को निष्क्रियता की तरह प्रदर्शन करना अंततः इस देश के लिये भारी संकट बनता जा रहा है।

अपने विषयों की प्रस्तुति की आक्रामक अभिव्यक्ति करने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है यही कारण है कि फिल्म, नाटक, धारावाहिक और साहित्य में सकारात्मक सृजन का अभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। लोग तात्कालिक उपलब्धियों के लिये चीख और चिल्ला कर अपनी अभिव्यक्ति इस तरह दे रहे हैं जैसे कि उसके बिना उनकी कोई सुनेगा ही नहीं। यह सही है कि किसी भी प्रकार के दृश्यव्य और शाब्दिक सृजन में नायक की प्रतिष्ठा तभी बढ़ती है जब उसके सामने खलनायक हो पर इसमें नाटकीयता के साथ संदेश भी होना चाहिए। मगर हमेशा ही नायक और खलनायक की द्वंद्वपूर्ण कथा संदेश देने वाली नहीं होती। हमारे पुराने ग्रंथों में भी नायक और खलनायकों की चर्चा है पर उनमें ऐसे भी पूज्यनीय लोग भी चर्चित रहे हैं जिन्होंने किसी भौतिक खलनायक का मुकाबला न करते हुए अपने सृजन से ही अपना नाम प्रतिष्ठित किया। हम भगवान श्रीराम और कृष्ण का नाम जानते हैं पर इन्हें जननायक की तरह प्रतिष्ठित करने वाले बाल्मीकी और वेदव्यास कभी प्रत्यक्ष किसी बैरी से नहीं लड़े। महाराज शुकदेव ने श्रीमद्भागवत की कथा का प्रतिपादन किया। विदुर और उनके पुत्र संजय ने भी अपना नाम प्रतिष्ठित करते हुए किसी प्रकार का युद्ध नहीं किया। कहने का तात्पर्य यह है कि दृश्यव्य और शाब्दिक सृजन में नायक और खलनायक की द्वंद्वपूर्ण नाटकीयता का महत्व तो होता है पर सभी कुछ वही नहीं होता। सकारात्मक संदेश देने वाले लोग भी नायक से कम नहीं होते।
वैसे इस नकारात्मक सोच के पीछे हमारी फिल्मों का भी कम योगदान नहीं है। उसमें नायक, नायिका, खलनायक और खलनायिका की प्रधानता रही है। लोग भी इसके आदी हो गये हैं। नायक या नायिका तो सभी नहीं बन सकते-आजकल के जमाने में सभी लोग इस सत्य का जाने गये हैं-इसलिये लोग वास्तविक खलनायकों के कृकृत्यों का मुकाबला करने की बजाय उनको अनदेखा कर जाते हैं। दरअसल निष्क्रियता को लोगों ने अच्छाई का प्रमाण मान लिया है।
दिल्ली में हाल ही में हुई एक धटना याद आ रही है। उसमें कार में जा रहे एक दंपत्ति को भीड़ भरे बाजार में लुटेरों ने लूट लिया। पत्नी कार से उतर कर ठेले वाले से सब्जी ले रही थी-इसका मतलब वह भीड़ वाला इलाका था-उसी समय लुटेरों ने उसके पति पर हमला कर दिया। पत्नी अपने पति को बचाने आई तो उस भी हमलावर टूट पड़े। लोग खड़े देख रहे थे क्योंकि वह नायक नहीं बन सकते थे। खामोशी से सब देखने में उनको अच्छाई नजर आई। वैसे भी फिल्मों में दिखाया जाता है कि खलनायकों से लड़ने वाले पुलिस अधिकारियों या अन्य पात्रों के परिवारों को ही साफ कर दिया जाता है। शोले भले ही हिंदी फिल्मों की सबसे लोकप्रिय फिल्म रही हो पर उसने समाज में भले लोगों को निष्क्रियता का भाव अच्छाई के नाम पर भरने का जो काम किया उसे तो एक घृणित फिल्म कहना ही ठीक होगा।

पिछले कुछ दिनों में ऐसी अनेक वारदातें हो चुकी हैं जिसमें भीड़ ने अपराधियों को पीटकर मार डाला। इस विषय पर कभी आप फिल्म बनते नहीं देखेंगे क्योंकि इससे समाज में सक्रियता का संदेश जायेगा। इन्हीं फिल्मों की आड़ में पता नहीं कौन कौन अपना पैसा लगाकर अपने प्रायोजित संदेश दे रहा है यह अलग से चर्चा का विषय है। समस्या यही नहीं है बल्कि फिल्म और टीवी वालों के इन अदृश्य प्रायोजकों को रेडियो और अखबारों से भी सहायता मिल रही है। इस तरह के संदेशों से आदमी नायक या खलनायक ही बनेगा। नायकों के लिये सुरक्षित स्थान हो गये हैं पर खलनायकों के लिये जगहें अधिक खाली रहती हैं। इसलिये समाज के अनेक युवक युवतियों का रुझान खलपात्र की भूमिका अदा करने की ओर आकृष्ट होता हो तो आश्चर्य क्या है? खासतौर से जब पर्दे के नायकों द्वारा सामाजिक खलनायकों की दरबार में नृत्य प्रस्तुति की जाती हो तब तो यही संदेश जाता है कि खलनायकों की समाज में असली भूमिका है।

बहरहाल इसका एक ही उपाय है कि हम अपने अध्ययन, श्रवण, और चिंतन में ऐसे लोगों पर भी विचार करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दें जो नाटकीयता से पृथक होकर समाज सेवा, रचनाकर्म, तथा वैज्ञानिक प्रस्तुति करते हों। द्वंद्वपूर्ण नाटकीयता से परे नहीं रहा जा सकता पर उस पर चर्चा करने की बजाय ऐसे विषयों को महत्व दें, जो सकारात्मक विचार तथा सहज भाव पैदा करने वाले हों। इस समय समाज में अस्थिरता, भय और असुरक्षा का भाव है उसके लिये यह जरूरी है।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com

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