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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

12/28/09

नया वर्ष आ रहा है-हिन्दी व्यंग्य (happy new year coming-hindi satire article)

छोटे शहर के आदमी के लिये यही एक उलझन है कि उसके घरेलू और सामाजिक संस्कार कुछ दूसरे हैं जबकि बाह्य रूप से अनेक बार औपचारिक होकर दूसरे संस्कारों को निभाना पड़ता है। जिनमें अपने यहां ईसवी संवत् तो हमारे जैसे लोगों के लिये हमेशा अजूबा रहा है।
जब नया साल आयेगा तो जो भी मिलेगा उससे कहना पड़ता है कि ‘नव वर्ष मुबारक’। हम नहीं बोलेंगे तो वह बोलेगा तो हमें भी कहना पड़ेगा कि ‘आपको भी।’
सच बात तो यह है कि हृदय में स्पंदन बिल्कुल नहीं है। अपने यहां गुड़ी पड़वा पर ही नया संवत् प्रारंभ होता है। इससे हिन्दू धर्म का हर समाज मनाता है। ऐसे में अगर आपका जातीय, भाषाई या क्षेत्रीय समुदाय अलग भी है तो भी दूसरे से अपनी खुशी बांट सकते हैं। फिर बात मौसम की भी है। उस समय मौसम समशीतोष्ण रहता है और एक तरह देह में खुशी की तरंगे स्वाभाविक रूप से उठती हैं।
बचपन से ही इन संस्कारों के साथ बड़े हुए। विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी कोई ऐसा शोरगुल नहीं होता था अलबत्ता कुछ लोग एक दूसरे को बधाई देते थे।
जैसे जैसे विद्युतीय तरंगों से युक्त प्रचार माध्यमों को प्रभाव बढ़ा, ऐसे अनेक त्यौहार हैं जो हमारी संस्कृति का भाग नहीं है पर उनका नाम अधिक सुनने को मिलने लगा। दरअसल इसका कारण यह है कि इन प्रचार माध्यमों को बाजार से विज्ञापन मिलते हैं और उसे इन्हीं त्यौहारों से उपभोक्ता चाहिए, वह भी आज की पीढ़ी के नवयुवाओं से जिनके हृदय से अपनी संस्कृति और संस्कार करीब करीब विस्मृत हो रहे हैं।
वैसे तो हर धर्म में अनेक त्यौहार है और हमें किसी पर कोई आपत्ति नहीं है। यहां तक कि अगर दूसरे धर्म का आदमी हो तो हम उसे हृदय से बधाई भी देते है, उस समय हमारे मन में औपचारिक भाव नहीं होता।
हमारा उद्देश्य किसी पर आपत्ति करना नहीं है बल्कि अपने संस्कारों और संस्कृति से अलग हटकर चलने पर मन में होने वाली उथल पुथल पर दृष्टिपात करना है। साथ ही बाजार जिस तरह इन पर्वों पर अपनी कमाई के लिये आक्रामक प्रचार के लिये तैयार होता है उसे भी देखना है। अगर हम देखें तो अब हर त्यौहार दो भागों में बंट गया है। एक तो जो समाज स्वयं मनाता है दूसरा वह जिससे बाजार कमाता है। एक तरफ धर्म का पर्व दूसरी तरफ धन का गर्व।
समस्या अनेक त्यौहारों की नहीं बल्कि बाजार और प्रचार उनको जिस तरह भुनाने का प्रयास करता है उस हंसी आती है। ऐसा करते हुए बाजार तो ठीक पर उसके समर्थक प्रचार माध्यम अपनी सीमायें पार करते लगते हैं जैसे कि वह भारत की मिलीजुली संस्कृति को खिचड़ी संस्कृति समझते हैं।
अभी नया पांच दिन दूर है पर टीवी, एफ.एम. रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकायें उस पर शोर पर शोर मचाये जा रहे हैं। आ रहा है, आ रहा है नया साल आ रहा है। नववर्ष के पहले ही दिन चंद्रग्रहण क्या पूरे वर्ष बुरा प्रभाव डालेगा? या अच्छा होगा-ऐसे सवाल बेतुके हैं। अगर हम भारतीय दृष्टिकोण से बात करें तो यह चंद्रग्रहण वर्ष के बीच में आ रहा है और अगर पाश्चात्य दृष्टिकोण से देखें तो ऐसी चीजें महा बेवकूफी की मानी जाती हैं-याद रहे मायावी विकास में पश्चिम हम से बहुत आगे हैं और जिसे हम जन्नत समझते हैं वह उसे रोज भोगते हैं-अरे, जोरदार ऊंची इमारतें, मक्खन जैसी सड़कें, चमचमाती गाड़ियां और रात को आदमी द्वारा निर्मित ऐसी रौशनी जिसके आगे सूरज की रौशनी बोझिल लगती है, यही तो जन्नत की कल्पना है। हम जो टीवी पर बाहरी दृश्य देखते हैं उसके आधार पर यही कहते हैं कि स्वर्ग इसी धरती पर वह भी पश्चिम में कई जगह है। कहने का तात्पर्य यह है कि बिना किसी धार्मिक कर्मकांड के वह यहीं स्वर्ग भोग रहे हैं तब काहे वह चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के प्रभाव पर वह लोग विचार करेंगे।
एक बात जो सबसे अधिक अखरती है। कोई त्यौहार आया नहीं कि समाचार चैनल और रेडियो वाले उसको बाजार के लिये उपभोक्ता जुटाने का काम शुरु करते हैं। यहां तक तो ठीक! हर चैनल के मनोरंजक कार्यक्रम भी अपनी कहानियों में जबरन उनको ठूंस लेते हैं। यह आपत्ति केवल पाश्चात्य संस्कृति के त्यौहारों पर ही नहीं वरन् भारतीय त्यौहारों पर भी है। दिवाली, होली और राखी अपने देश के लोग मनाते हैं। ऐसे में अवकाश के दिन अगर सामान्य मनोरंजन के कार्यक्रम प्रस्तुत हों तो भी ठीक! वहां भी जबरन उन त्यौहारों को जोड़ जाता है। यह सभी देखकर तो लगता है कि अपने देश में व्यवसायिक प्रवृत्ति का अभाव है। अक्सर आपने भारतीय खिलाड़ियों के बारे में सुना होगा कि वह पैसा खूब कमाते हैं पर उनकी व्यवसायिक सोच नहीं दिखती। यही कारण है कि क्रिकेट में आज भी आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसी टीमों जैसा सामथ्र्य भारतीय खिलाड़ियों में नजर नहीं आता जो हाथ से जाता मैच अपनी तरफ खींच लें। दूसरी बात यह है कि आर्थिक क्षेत्र में भारतीयों की सबसे बड़ी समस्या ‘प्रबंध कौशल’ माना जाता है। पहले तो यह सरकारी क्षेत्र में देखा जाता था पर अब तो निजी क्षेत्र में भी यही देखा जा रहा है। समाचार चैनलों की बात करें तो आज भी दूरदर्शन ही ऐसा है जो वास्तव में सही ढंग से काम कर रहा है। बाकी समाचार चैनल तो मनोरंजक चैनलों के विज्ञापन जैसा काम कर रहे हैं। फिर उन पर फिल्मों के अभिनेताओं को भी बिना किसी फिल्म के लोकप्रिय बनाये रखने का जिम्मा है जिस कारण रोज एक कलाकार का जन्म समाचारों के केंद्र में छा जाता है। पहले फिल्म का गासिप छापने वाली पत्रिकायें अलग होती थी। बिकती खूब थी पर फिर भी समाचार और साहित्य का स्तरीय बुद्धि का पाठक उसे देखता तक नहीं था पर आज वही समाचार टीवी चैनलों को रौशन कर यह साबित करने का प्रयास होता दिखता है कि इस देश के आम आदमी की बौद्धिकता का दिवालिया निकल गया है।
उस दिन हमारे एक मित्र के लड़के ने भी यही बात कही थी कि ‘जब हम बाहर जाते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे माता पिता पुरानी संस्कृति के हैं क्योंकि वह नववर्ष और क्रिसमस नहीं मनाते। वह वैलंटाईन डे का मतलब नहीं समझते।’
उसके जाने के बाद उसके पिता ने मेरे से कहा था-‘देखो यह टीवी चैनल किस तरह हमारी संस्कृति का नष्ट कर रहे हैं। वह पश्चिमी त्यौहारों को इस देश में इस तरह प्रचारित कर अपनी संस्कृति को घटिया साबित करने का प्रयास करते हैं।’
हमने कहा-‘नहीं, ऐसी बात नहीं! उनमें तो तो भारतीय त्यौहारों पर भी कार्यक्रम आते हैं यह अलग बात है कि वह हास्याप्रद लगते हैं। सच तो यह है कि हमारे देश में संस्कृति तैयार की जा रही है जिससे बाजार कभी बीमार न हो। हो तो इसी खिचड़ी से काम चलाये।’
हम कोई बाजार या प्रचार की नहीं कर रहे है बल्कि उस असमंजस को बयान कर रहे हैं जो अक्सर हमारे सामने आते हैं। वैसे संभव है कि देश के नवयुवक नवयुवतियां भले ही कुछ देर बाजार के प्रचार में इन त्यौहारों पर खर्च करते हैं पर बाद में वह फिर अपनी दुनियां में लौट आते हैं इसलिये सांस्कृतिक खतरे की बात जमती नहीं। भारतीय त्यौहारों पर विभिन्न मंदिरों में जब हम भीड़ देखते हैं यह भय समाप्त हो जाता है। प्रसंगवश याद आया कि हमारे साथ एक योगी मित्र से उसके अन्य मित्र ने मंदिर में देखकर कहा-‘तुम तो योग साधना करते हो फिर यहां क्यों आते हो?’
उसने जवाब दिया कि ‘यह एक अच्छी आदत है। मूर्तियों में भगवान नहीं है हमें पता है पर फिर भी उसके होने का अहसास मुझे एक आत्मविश्वास देता है। इसलिये यहां ध्यान लगाने जरूर आता हूं। पुरानी आदत है न! छूटती नहीं है। एक बार मूर्ति पूजना शुरु करने के बाद उसे छोड़ना भी नहीं चाहिये, ऐसा मेरे योग गुरु ने बताया था क्योंकि वह भी तनाव का कारण बनता है।’
तब वह अन्य मित्र बोला‘-सच बात तो यह है कि शनिवार या मंगलवार को मैं यहां न आंऊ तो बाकी दिन परेशान रहता हूं।’
कहने का तात्पर्य यह है कि मन ऐसी शय है जब उस पर नियंत्रण स्वयं नहीं करते तो कोई बहाना ले सकते हैं-यह बुरा नहीं है कम से कम उससे तो कतई नहीं कि आपके मन को बांधकर कोई दूसरा ले जाये जिसके पीछे आपको भी जाना है। अपने मन को स्वतंत्र रखने के लिये जरूरी है कि उस पर हमारा नियंत्रण हो।
बाजार और प्रचार का हाल तो सभी देख रहे हैं। अभी चार दिन पड़े हैं पर इधर नये वर्ष को ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे कि आज आ रहा हो। अनेक टीवी चैनल पिछले वर्ष के कार्यक्रमों को प्रस्तुत कर रहे हैं। समाचार चैनल यह कैसे दावा कर सकते हैं कि इन चार दिनों में कोई ऐसी बड़ी घटना नहीं होगी जो इस वर्ष की पहचान बन जाये-या वह तय कर चुके हैं कि वह इन पांच दिनों में कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं प्रस्तुत करेंगे जो इस वर्ष का सबसे अच्छा हो क्योंकि कुछ तो अपने इस वर्ष के हिट कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हैं। बहरहाल चार दिन तक सुनते रहो कि नया वर्ष आ रहा है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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1 comment:

Udan Tashtari said...

नव वर्ष की शुभकामनाएँ.


यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

आपका साधुवाद!!

नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!

समीर लाल
उड़न तश्तरी

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