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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/9/10

इससे तो यह संत ही भले हैं-व्यंग्य चिंतन (hindu sant and society-hindi lekh)

उन संत महाराज ने यह अपने प्रवचनों में भक्तों के सामने ही स्वीकार किया कि उनके धन से ही वह सामाजिक कल्याण-बच्चों के लिये स्कूल खोलना, असहायों की सेवा तथा महिलाओं के कल्याण जैसे कार्य- के कार्यक्रम चला रहे हैं। उनका जोर इस बात पर ही था कि अच्छा सोचना चाहिये तो अच्छे काम कर पायेंगे। उनका आशय यही था कि चूंकि वह अच्छा सोचते हैं इसलिये भक्तों के पैसे होने के बावजूद नाम उनका होता है।
सच तो यह है कि यह उनके निरंकार भाव का प्रमाण था जो कि बहुत कम कथित संतों में देखा जाता है। हमारे देश में संतों की अजग गज़ब महिमा है। यह कहना कठिन है कि भारत में गेरुऐ वस्त्र पहनकर धर्म के व्यापार का सिलसिला कब शुरु हुआ पर आजकल तो ऐसे ही लोग संतों की श्रेणी में आते हैं। यह कथित संत अपने आश्रम ऐसे बनवाते है कि पुराने समय के राजा महाराजा भी शरमा जायेे। वातानुकूलित कारों में उनका भ्रमण होता है और निजी विमानों से उनकी यात्रायें संपन्न होती हैं। इनकी भौतिक उपलब्धियां देखकर अनेक युवक युवतियां कामना सहित भक्ति तथा ज्ञानार्जन की प्रक्रिया प्रारंभ इस आशा से करते हैं शायद ऐसी दिव्यता उनको भी प्राप्त हो जाये। यह अलग बात है कि कामना सहित भक्ति तथा दूसरे को सुनाने के लिये ज्ञान का संग्रह करने से भले ही भौतिक वैभव प्राप्त हो जाये पर अध्यात्मिक शांति नहीं प्राप्त हो सकती। फिर यह भौतिक उपलब्धि भी सभी को मिल जाये यह जरूरी नहीं है। कहीं कहीं तो यह भी सुनने में आता है कि मंदिरों में चढ़ावे के बंटवारे को लेकर खूनखराबा तक हो गये।
उन संत महाराज के प्रवचनों की खास बात यह भी लगी कि उन्होंने अपनी मानवीय कमजोरियों की चर्चा भी की-इससे यह लगा कि एक आम आदमी अन्य की भीड़ को संबोधित कर रहा है। ऐसा अन्य संत नहीं कर पाते इसलिये बाकी आम भक्त ही क्या, उनके चेले ही कहते हैं कि हम संत जैसे नहीं हो सकते, क्योंकि वह तो संत हैं, हम तो आम आदमी हैं इसलिये स्वाभाविक कमजोरियों से मुक्त नहीं हो सकते।’
यही कारण है कि ऐसे संतों के संवाद संप्रेक्षण अधिक प्रभावी नहीं होते जबकि उन संत महाराज के कथनों का प्रभाव हो रहा था। यह प्रभाव तभी संभव है जब आप किसी को उपदेश दें तो अपने आम आदमी होने का भी उसे अहसास दिलायें। भले ही उन संत महाराज की भी भौतिक उपलब्धियां हों पर उनके एक कार्यक्रम में हम बहुत पहले गये थे तब योग साधना, ध्यान, और प्राणायम करते हुए उनके फोटो भी देखे थे। वह सुबह योगसाधना सिखाने का भी काम करते हैं। आज उनके प्रवचन सुनते समय हमें एक बात लगी कि योगसाधना करने वाले संतों की वाणी यकीनन अनोखी तथा प्रभावी होती है।
भारत में योगसाधना सिखाने वाले भी कुछ संत हैं-कुछ लोग उनको योग शिक्षक से अधिक नहीं मानते-तो उपदेश देने वाले भी हैं। योगसाधना सिखाने वाले संत भले ही श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान की चर्चा करें पर लगता नहीं हैै कि उसका उनको अभ्यास है। उसी तरह जो श्रीगीता के ज्ञान का उपदेश देते हैं वह योगसाधना करते प्रतीत नहीं होते क्योंकि तत्वज्ञान को वह धारण कर सकें हों, यह लगता नहीं है। उन संत महाराज की भाव भंगिमा में बनावटीपन नहीं दिखा तो केवल इसलिये कि उन्होंने सहज मानवीय कमजोरियेां से अलग दिखने का कोई प्रयास नहीं किया। कहने का तात्पर्य है कि योग विद्या तथा ब्रह्म विद्या में उनका समान अधिकार है जो बहुत संतों में दिखाई देता है।
उनके प्रवचन कार्यक्रम में भी किताबों, दवाईयों और कैसिटों की दुकाने लगी थीं। उन्होंने कार्यक्रम का मंच बनाने वाली दवाई कंपनी का नाम भी लिया जो शायद उनके कार्यक्रम की आंशिक या पूर्ण प्रयोजक भी हो सकती है। उनमें से कुछ दवाईयां हमने भी खरीदी-समय पर उनकी जरूरत पड़ने की संभावना रहती है। ऐसे कार्यक्रमों में जाना अच्छी बात है या नहीं यह अलग बात है पर समाज को इनकी जरूरत है यह सभी मानते हैं। यहां तक कि बरसों तक प्रगतिशील लेखन करने वाले एक स्तंभकार ने भी यह माना था कि आदमी को इनसे तनाव मुक्ति मिलती है। उसने यहां तक लिखा था कि अगर यह व्यवसायी हैं और तनाव मुक्ति बेच रहे हैं तो दूसरे लोग भी तो यही कर रहे हैं।
सवाल यह है कि आम आदमी क्या करे? एक तरफ जिन प्रचार माध्यमों से वह नितांत जुड़ा है उसे वह पश्चिमी देशों का ऐश्वर्य दिखाकर वही सभ्यता अपनाने के लिये प्रेरित कर रहे हैं जिससे वहां के निवासी बोर होकर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में शांति तलाश रहे हैं। इधर भारतीय बाजार भी पाश्चात्य उपभोकता संस्कृति के प्रतीकों के साथ सामने खड़ा है। प्रचार माध्यमों में देख लीजिये फाईव स्टार अस्पतालों के नाम और दवाओं की दुकानों के पते। ऐसे में भारतीय चिकित्सा पद्धति की रक्षा अगर यह संत लोग नहीं करेंगे तो कौन करेगा? शायद आधुनिक हिन्दी स्तंभकार इस बात को नहीं जानते कि इन्हीं संतों की आयुर्वेदिक दवाओं की प्रशंसा आम लोग भी करते हैं। यही कारण है कि वह अपने स्तंभों में उन पर कितना भी बरस लें, आम आदमी उनका समर्थक है।
पश्चिमी चिकित्सा पद्धति जिसे एलौपैथी भी कहा जाता है-एक तरह से डरावनी लगती है। अपनी बीमारी के इलाज के लिये डाक्टर के पास जाओ तो पहले दस प्रकार के टेस्ट कराता है। एक डाक्टर उसी टेस्ट का पास करता है दूसरा खारिज करता है। कम से कम पहली नजर में एलौपैथी का डाक्टर मर्ज को नहीं पहचानता जो कि किसी ‘अच्छे हकीम’ प्रमाण होता है। इस पर दवाईयों कितनी महंगी हैं।
हमारे एक मित्र की मां को कंधे में भारी दर्द उठा। फोन पर खबर मिली तो हम भी उसके साथ हो लिये। वह अपने छोटे बेटे के साथ एक निजी चिकित्सक के अस्पताल में थी जिसने उनको बड़े अस्पताल में इस आशंका से ले जाने का कहा कि शायद अब उनके जाने की बारी है। हमने वहां पहुंचकर जब उनको देखा तो बड़े आराम से बात रही थीं। अपने बेटे से बोली कि ‘डाक्टर ने कहा कि दिल का दौरा पड़ा है।’ उनकी आवाज से हमको यह नहीं लगा कि वह दिल का दौरा पड़ा है। चेहरे पर तनाव था पर आवाज साफ और बुलंद पहले की तरह बुलंद थी। बहरहाल उनको लेकर बड़े अस्पताल पहुंचे। हमने रास्ते में उनसे पूछा-‘आपने आज कोई गरिष्ठ भोजन किया था?’
वह बोली-हां, सुबह पुड़ी खाई थी।’
उनको दंात थे नहीं और हमारा अंदाजा था कि वही आंतों में जाकर फंसी हैं।
अस्पताल के गहन चिकित्सा केंद्र में उनका इलाज शुरु हुआ। एक इंजेक्शन लगने के बाद उनको आराम आया पर डाक्टरों ने अन्य टेस्ट कराने तक वहीं रुकने के लिये भर्ती कर दिया। हम रोज उनको देखने जाते थे। हर रोज उनकी हालत पहले से बदतर मिलती थी। पांचवें दिन डाक्टर ने एक दूसरे टेस्ट के लिये यह कहते हुए बाहर भेजा कि ‘यहां हमारी मशीन खराब है।’
वह टेस्ट कराने भी हम गये। वह जब धीरे धीरे चल रही थी तो हमने कह ही दिया कि ‘कमाल है, इससे अच्छी हालत में आयी थीं। इलाज के बाद आदमी की तबियत सुधरनी चाहिये कि बिगड़नी।’
टेस्ट रिपोर्ट देने वाले से हमने पूछा कि ‘क्या है इनको?’
‘आप ले जाईये डाक्टर बता देगा।’ उसके इस रहस्यमय उत्तर ने हमें हैरान कर दिया।
हम फिर उनको लेकर बड़े अस्पताल ले आये। बड़ा डाक्टर तो नहीं मिला छोटे वाले से हमारी पहचान निकल आयी। उससे पूछा तो उसने सच बता दिया कि ‘इनको छाती में कोई समस्या नहीं है। इसलिये इनकी कुछ दवायें बंद कर देते हैं। पर जो आठ इंजेक्शन लगने हैं वह पूरे यही लगेंगे। उसके बाद आप इनको घर ले जाना।’
दवायें बंद हो गयी। एक औरत जो ठीकठाक अस्पताल में कंधे की पीड़ा की इलाज कराने आयी,दवाऐं खाते हुए मरने की तरफ बढ़ती लग रही थी। वह बंद होने से फिर वापस लौटी। वह दवाओं से ठीक नहीं होती दिखी बल्कि उनके बंद होने के बाद उसने बताया कि‘अब लग रहा है कि सभी को पहचान रही हूं, वरना तो मेरी स्मृति शक्ति भी जा रही थी।’
घर वापसी पर हमने उनसे कहा-‘आपको कुछ नहीं हुआ था। अगर आप चाहती हैं कि आप अस्पताल में जाकर जल्दी दुनियां न छोड़े तो प्राणायाम करें। आप भगवान का लाख लाख शुक्र समझें कि डाक्टरों से उसने आपको बचा लिया।’
हमें सात साल पहले उच्च रक्तचाप हुआ था। होम्योपैथी के डाक्टर ने भी ऐलौपैथी की तरह इलाज करते हुए तमाम टेस्ट करवाये। उसने मधुमेह का भी टेस्ट करवाया। उसी की सलाह पर हम दूसरे होम्योपैथी के डाक्टर के पास गये उसने अपने पर्चे पर हमारी बीमारी का नाम लिखा ‘हाईपर ऐसिडिटी’।
बाद के योगसाधना प्रारंभ की। अनेक बार अपने अंदर आये परिवर्तनों की अनुभूति लगती है। यही कारण है कि हम अक्सर योगसाधना के बारे में लिखते हैं। अनेक बार कथित संतों पर लिखते हैं पर जब अंग्रेजी पद्धति के जाल में फंसे देश को देखते हैं तो फिर यही लगता है कि ‘इससे तो यह संत ही भले हैं।’ कमा रहे हैं तो क्या? साथ ले जायेंगे। बंट तो इसी समाज में रहा है। फिर ठगी की बात है तो ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो यहां लिखना बेकार है। कम से कम यह संत लोग भारत की शिक्षा पद्धति, ज्ञान, चिकित्सा पद्धति तथा संस्कृति को बचाने के लिये काम तो कर रहे हैं। उनकी शिक्षा गुलामी के लिये नहीं बल्क् िस्वतंत्र रहने के लिये प्रेरित करती है। कमाने की बात है तो यहां छोड़ कौन रहा है?
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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