कागज को स्याही से रंगने वाले
शब्दों की मय पीने वाले
लेखक कभी बिचारे नहीं होते।
कलम को चलाकर घिसें
या टंकण पटल पर उंगलियां नचायें,
पढ़ने वालों का अच्छे लगें या बुरे
पर लिखने वाले का दिल बहलायें
शब्द कभी बिना सहारे नहीं होते।
बहा रहे हैं पसीना,
चुन रहे हैं शब्दों का नगीना,
उनकी मेहनत को नकारा न समझो
सच्चे लेखक ही दुनियां को प्यार करते
भले ही खुद किसी को प्यारे नहीं होते।
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आंखें गढ़ाये
उंगलियों को नचाते हुए
शब्द रचने वाले लेखक पर
मत हंसो
क्योंकि जिंदगी को वही जी पाते हैं।
अकेले बैठे लिखते हुए
उस लेखक को तन्हा न समझो
अपनी कलम से
शब्दों को अपना साथी वह बनाते हैं।
तुम अपनी जुबां से
किसी के लिये बुरा बोलते हो,
हर बात में अपना मतलब तोलते हो,
सिक्कों में खुशी देखने वालों
शब्द रचयिता अपनी शायरियों में
अनमोल मजा पी जाते,
सभी करते हैं अपना वक्त खराब
पर लेखक ही सभी को नकारा नजर आते,
बोलना आसान है
उससे ज्यादा आसान है चिल्लाना
यह तो सभी लोग करते
पर अपने शब्दों को तीर की तरह लेखक चलायें,
जरूरत हो तो चिराग की तरह भी जलायें,
लोग करते हैं एक दूसरे पर जख्म
पर लेखक बांटते हमदर्दी
अपने घाव वह पी जाते हैं।
दूसरों को भले ही कुछ भी लगें
पर लेखक कभी खुद को बिचारा नहीं पाते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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6 years ago
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