कुछ लोगों को अपना या अपने परिवार के सदस्य का जन्म दिन, मुडन, जनेऊ तथा विवाह के कार्यक्रम को यादगार बनाने का जुनून होता है। तय बात है कि यह केवल उन्हीं लोगों पर लागू होती है जिनके पास पर्याप्त पैसा है। मुश्किल तब शुरु होती है जब अल्प धनी उनकी देखा देखी अपना घर गिरवी रखकर कर्ज लेकर ऐसी यादें संजोने का प्रयास किया जाता है। वैसे अपने देश में धनाढ्य लोग चाहे कितना भी समाज में समरसता भाव लाने का उपदेश देते हों पर जब वैभव प्रदर्शन की बात आती है तब वह उससे बाज़ नहीं आते यह जानते हुए भी कि इससे वैमनस्य भी बढ़ता है।
जन्म मृत्यु जीवन का खेल है और इंसान मुंडन, जनेऊ, सगाई तथा विवाह जैसे संस्कारों में अपना खेल कर अपना समय व्यतीत कर मनोंरजन करता है। यह सब एक तरह से हमारे मनुष्य समूह को प्रसन्नता प्रदान करने वाले अवसर हैं। इसी तरह अनेक कर्मकांड भी धर्म के नाम पर रचे गये हैं। एक नारी जीव का पुरुष से संयोग तो विधाता ने पहले ही तय कर दिया है क्योंकि सारे संसार का जीवन इसी संयोग से निर्मित होता है। केवल मनुष्य ही नहीं अन्य जीवों में भूख, प्यास तथा काम के भाव उसी तरह प्रवाहित है जैसे मनुष्यों में। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय ने विवाह नाम की परंपरा पर इतने सारे कर्मकांड अपना रखे हैं कि ऐसा लगता है कि जैसे स्त्री पुरुष तत्व का संयोग केवल उसी में ही होता है। कहीं बहुविवाह परंपरा है तो कहीं एक ही वर के साथ वधु के जीवन व्यतीत करने की रीति है। हम यहां इस विषय पर बहस नहीं कर रहे कि एक स्त्री या पुरुष को एक समय में एक से अधिक जीवन साथी रखना चाहिए कि नहीं। क्योंकि यह संवेदनशील विषय है और इस पर धर्म जाति तथा क्षेत्र के आधार पर अनेक तरह की परंपराऐं हैं जो विवाद का कारण बनती है। इसके बावजूद यह सत्य है कि विवाह के बाद स्त्री पुरुष के जीवन में अनेक ऐसे परिवर्तन आते हैं जिसकी कल्पना तक वह नहीं कर सकता। कहा भी जाता है कि शादी वह लड्डू है जिसने खाया वह भी पछताता है जो नहीं खाया वह भी रोता है।
विवाह को लेकर भविष्य की कल्पना क्या करेगा कोई भी? आदमी विवाह पूर्व तक चाहे जितने सपने देख ले बाद का जीवन उसके लिये निर्विवाद और शांत नहंी रह पाता। विवाह पश्चात् के जीवन का रंग इतना वीभत्स है कि हमारे समाज के लेखकगण अपनी कहानियेां में केवल विवाह तक ही अपना विषय रखते हैं क्योंकि बाद में गृहस्थ जीवन की कहानियों में सुखद दृश्य अधिक नहीं लिखे जा सकते। फिल्म आदि में भी प्रेम प्रसंग के इर्दगिर्द ही ताना बुना जाता है। स्थिति यह है कि कहीं भाई भाभी का रोल हो तो वह ऐसे कलाकार को दिया जाता है जिसको चरित्र अभिनय निभाने के लिये जाना जाता हो। कोई बड़ा नायक या नायिका विवाहित भाई या भाभी का पात्र नहीं निभाता।
यही स्थिति समाज के चिंतकों की है। आये दिन लड़कियों के घर से भाग जाने पर अक्सर विद्वान लोग टिप्पणी करते हैं कि हरेक को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार होना चाहिए। अनेक नारीवादी लेखक तो ऐसे हैं जो घर से भागने के प्रकरणों का जैसे इंतजार करते हैं। कब कोई विद्रोही जोड़ा सामने आये और उसे कानूनी संरक्षण के लिये वह गुहार लगायें। जबकि हकीकत यह है कि विवाह बाद का जीवन एक ऐसा दौर है जो अनंतकाल तक चलता है। विवाह पश्चात् जीवन में जब नमक, तेल, आटे का का भाव पता चलता है तब सामान्य लोग ही नहींे विशिष्ट लोग भी विवाह की वह यादें भूल जाते हैं जिनको संजोने के लिये उन्होंने ढेर सारे पैसै खर्च किये होते हैं।
शुरु में सभी लोग अपनी शादी का एल्बम, सीडी या उपहार में मिला सामान दिखाते हुए लोगों में अपना जलवा बिखेरते हैं पर जब जीवन का संघर्ष मय रूप सामने आता है तब धीरे धीरे वही विवाह की यादें भयवाह लगती हैं ऐसे में सब कुछ भूल जाता है।
इधर हमारे देश का धनाढ्य वर्ग विवाह के अवसर पर नित नित नये फैशन अपना रहा है। कहीं हेलीकाप्टर पर तो कोई पानी के जहार पर शादी कर रहा है। इतना ही नहीं अब विवाह के समारोह पर जयमाला के समय वर वधु को सीढ़ियों के सहारे ऊंचे मंच का इस्तेमाल किया जाने लगा है। उस समय विशेष दृश्य बनवाने के लिये फोटोग्राफर बाकायदा अभ्यास करते हैं। ऐसा लगता है कि विवाह तो बस यही है। मगर फिर ऐसा ही दृश्य दूसरी जगह! तब सोचते हैं कि भला इसमें विशेष क्या है?
उस दिन एक आदमी ने हमसे पूछा-‘यार, एक बात बताओ हमारे बेटे की शादी में खाना कैसा बना था।’
हम चौके। वह कम से कम हमसे दो महीने पहली वाली बात पूछ रहा था। उसके बाद पता नहीं कितने विवाह कायक्रमों में हम शामिल हो चुके थे। हमने कहा-‘यार, गाज़र का हल्वा अच्छा बना था।’
वह बोला-‘यार, क्यों मज़ाक बनाते हो। वहां तो गाज़र का हल्वा नहंी बना था।’
हमने कहा-‘क्या बात करते हो। हल्वा था वहां, हमें बहुत अच्छा लगा था।’
वह बोला-‘वह तो मूंग की दाल का था।’
हमने कहा-‘हां, वही तो कह रहे हैं। वह तो सर्दी का समय हैं न! इसलिये गाज़र का हल्वा निकल गया। वैसे तुम्हारे बेटे के विवाह कार्यक्रम में ं खाना तो बहुत अच्छा था।’
हमने किसी चीज़ का नाम नहीं लिया क्योंकि खुटका था कि वह वहां रही हो कि नहीं।
वह बोला-‘यार, मेरा एक रिश्तेदार मुझसे कह रहा था कि खाना बेकार बना था। मेरा उससे विवाद हो गया।’
हमने कहा-‘अरे यार, तुम इन बातों को भूल जाओ। कुछ लोग ऐसे हैं जो दूसरों के अच्छे काम से जलते हैं। वैसे एक बात दूसरी भी है कि तुमने खुद तो खाना बनाया नहीं था। बनाने वाला हलवाई और उसके नौकर थे। संभव है कि कोई एक दो चीज़ ठीक न बनी हो।’
वह बोला-‘नहंी, ऐसे कैसे? नाम तो हमारा खराब होता है। वहां सारा खाना अच्छा बना था। तुम बताओ कोई ऐसी चीज थी जो ठीक न बनी हो।’
हमने कहा-‘सब चीजें अच्छी थी। हमने सब खाया। बढ़िया था!’
फिर वह बोला-‘अच्छा बताओ, डेकोरेशन कैसा था! अच्छा था न! वह मेरा रिश्तेदार उसे भी खराब बता रहा था।’
हमने कहा-‘वह भी तो शादीघर वाले स्वयं करते हैं। उसमें तुम्हारा क्या दोष?’
वह बोला-‘ऐसे कैसे? नाम तो हमारा खराब होता है। इतने पैसे खर्च किये हैं तब यह कैसे सहन कर लें कि कोई वहां की साज सज्जा पर उंगली उठाये।’
हमने कहा-’वैसे तुम्हारा रिश्तेदार कोई तुमसे जलने वाला लगता है। मेरे ख्याल से ऐसी साज सज्जा हमें बहुत कम देखने को मिलती है जैसी हमने वहां देखी थी।’
इससे पहले कि वह कोई अन्य सवाल करे, हम वहां से खिसक लिये। सच तो यह है कि उसके बेटे की शादी के बाद हम इतनी शादियों में शामिल हो चुके थे कि उसके दृश्य हमारी स्मरण शक्ति से विलोपित हो चुके थे। ऐसे में हम सोच रहे थे कि आखिर आदमी शादी की यादों को संजोने का प्रयास आखिर करते किसके लिये है? दूसरे याद रखते नहीं और स्वयं याद रखना एक समय बाद व्यर्थ लगता है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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1 comment:
बहुत सुदर आलेख..पर हर इन्सान थोडा ना थोडा यादे सन्जोता ही है...
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