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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/11/11

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-ऊंचे पद से गिरने का भय पतन का कारण बनता है(kautilya ka arthshastra-unche pad se girane ka bhay patan ka karan)

          यह संसार बड़ा विचित्र है। हर मनुष्य यह इच्छा करता है कि वह अपने स्वाजातीय बंधुओं में महान कहलाये। इसके लिये वह धन, प्रतिष्ठा, उच्च पद और शारीरिक शक्ति का संचय करता है ताकि वह अपने निकटस्थ मानवीय समाज पर शासन कर सके। सभी लोग उसके सामनेे ऐसे पेश आयें जैसे कि प्रजा राजा के समक्ष पेश आती है। पूज्यता का यह भाव उसे संसार के ऐसे कर्मों में लिप्त कर देता है जो पहले उसके उत्थान और बाद में पतन का कारण बनते है। मूलतः यह स्थिति राजस भाव वाले लोगों में देखी जाती है। राजस भाव वाले लोग समाज पर नियंत्रण कर अपनी पूजा कराने के बहुत इच्छुक रहते हैं।
        कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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          उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदयायच्छते महान्।
            नचैर्नीचैस्तरां याति निपातभ्यशशकया।।
           ‘‘ऊंचे पद की इच्छा करता हुआ मनुष्य महान हो जाता है पर अपने महापद से गिरने के भय की आशंका से नीचे आने लगता है। अंततः उसका पतन हो जाता है।
          समाज पर नियंत्रण करने के प्रयासों को राजनीति कर्म कहा जाता है पर देखा जाये तो हर मनुष्य कहीं न कहीं पूज्यता को बोध से ग्रसित रहता है और कहीं न कहीं वह ऐसे प्रयास करता है जिससे समाज में उसका सम्मान बढ़े। भले ही कोई मनुष्य परमार्थ भाव से निष्काम कर्म न करे पर वह ऐसा जाहिर करता है कि वह तो पूरे समाज के लिये काम प्रयास करता है। राजस भाव की दृष्टि से आज की लोकतांत्रिक प्रणाली में सक्रियता तो एक सामान्य कर्म है जिसमें अनेक लोग शामिल नेता कहलाते हैं पर देखा जाये तो हर मनुष्य चाहे वह किसी राजनीतिक पद पर नहीं हो वह भी राजसी कर्म में लिप्त रहता ही है। धनपति, कलाकार, संगीतकार, अभिनेता और लेखक भी समाज में पुजने का मन में भाव लिये अपने कर्म करते हैं। इनमें से कुछ सफल रहते हैं तो कुछ नहीं।
         एक मजे की बात यह है कि आदमी अपने प्रयासों से बड़ा बन जाता है। यहां तक कि वह ऐसे कर्म भी कर लेता है कि अगर वह कुछ अन्य कर्म न भी करे तो भी उसका नाम इतिहास में दर्ज हो जाये पर प्रतिष्ठा का मोह ऐसा रहता है कि आदमी निरंतर इस भय से सक्रिय रहता है कि वह कहंी कम न हो जाये। लोग कहीं उसे भूल न जायें। इस कारण वह अतिसक्रियता दिखाता है और यही प्रयास उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है और फिर वह ऐसी गलतियां भी करता है जो उसकी छवि घूमिल करती हैं और पहले की कमाई सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाती है।
         ऐसा लगता है कि आधुनिक युग में राजनीति, कला, साहित्य, व्यापार तथा अन्य सामाजिक क्षेत्रों में कार्यरत कम लोग ही कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ते हैं। जो पढ़ते हैं उनमें शायद ही कोई इतना सक्रिय रहता है। जो सक्रिय हैं उन्होंने शायद ही कौटिल्य का अर्थशास्त्र का अध्ययन किया हो। यही कारण है कि हम अक्सर यह देखते हैं कि प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित लोग अनेक बार अपनी छवि धूमिल कर लेते हैं। तब लगता है कि लोगों को कौटिल्य का अर्थशास्त्र का अध्ययन कर उसके ज्ञान को धारण कर ही अपने क्षेत्र में सक्रिय रहना चाहिए।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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