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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/2/12

फोकट में ईमानदारी-लघु हिन्दी हास्य व्यंग्य (fokat mein imandari-a short hindi comedy satire or short story,hindi kahani)

                विद्यालय के संचालक ने प्राचार्य को बुलाकर कहा कि-‘‘देखो मैंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भाग लेने का फैसला किया है। तुम अपने साथ शिक्षकों को मेरे साथ रैली में भाग लेने के लिये तैयार रहने के लिये कहो। विद्यालय के छात्रों के लिये देश में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने के संबंध में विशेष ज्ञान देने का प्रबंध करो। मैं चाहता हूं कि मेरे साथ मेरे विद्यालय का नाम भी प्रचार के शीर्ष पर पहुंचे।’’
           प्राचार्य ने कहा-‘‘महाशय, आपका आदेश सिर अंाखों पर! मगर इसी अंादोलन की वजह से हमारे विद्यालय के शिक्षक अब जागरुक हो गये हैं। आप जितने वेतन की रसीद पर हस्ताक्षर करते हो उसका चौथाई ही केवल भुगतान करते हैं। वह चाहते हैं कि कम से कम आधी रकम तो दें। विद्यार्थियों के पालक भी तयशुदा फीस से अलग चंदा या दान देकर नाराज होते हैं। ऐसे में आप स्वयं भले ही इस आंदोलन में सक्रियता दिखायें पर विद्यालय की सक्रियता पर विचार न करें, संभव है यह बातें आपके विरुद्ध प्रचार का कारण बने।’’
संचालक ने कहा-‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, यह भ्रष्टाचार है! कतई नहीं, यह तो मेरा निजी प्रबंधन है। हम तो केवल सरकारी भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं!’’
            प्राचार्य ने कहा-‘हमारे पास कुछ मदों मे सरकारी पैसा भी आता है।’’
संचालक ने कहा-‘‘वह मेरा निजी प्रभाव है। ऐसा लगता है कि तुम देश का भ्रष्टाचार रोकने की बजाय उसकी आड़ में तुम मेरे साथ दाव खेलना चाहते हो! तुम मेरा आदेश मानो अन्यथा अपनी नौकरी खोने के लिये तैयार हो जाओ।’’
             आखिर प्राचार्य ने कहा-‘‘आपका आदेश मानने पर मुझे क्या एतराज हो सकता है? पर संभव है कि छात्रों के पालक अपने बच्चों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध तिरस्कार का भाव देखकर नाराज हो जायें। आप तो जानते हैं कि अधिकतर माता पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा पढ़ लिखकर बड़े पद पर पहुंचे। बड़ा पद भी वह जो मलाईदार हो। ऐसे में अगर उसकी निष्ठा कहीं ईमानदारी से हो गयी तो संभव है वह अधिक पैसा न कमा पाये। भला कौन माता पिता चाहेगा कि उसका बेटा मलाई वाली जगह पर बैठकर माल न कमाये। सभी चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार खत्म हो पर उनके घर में ईमानदार पैदा हो यह कोई नहंीं चाहता। कहंी ऐसा न हो कि हमारे इस प्रयास पर पालक नाराज न होकर अपने बच्चों को दूसरे स्कूल पर भेजना शुरु करें और आपकी प्रसिद्धि ही विद्यालय की बदनामी बन जाये।’’
             संचालक कुछ देर खामोश रहा और फिर बोला-‘‘तुम क्या चाहते हो मैं भी वहां न जाऊं?’
प्राचार्य ने कहा-‘‘आप जाईये, पर अपने स्कूल का परिचय न दें। आप सारे देश में ईमानदारी लाने की बात अवश्य करें पर उसे अपने विद्यालय से दूर रखें।’’
           संचालक खुश हो गया। प्राचार्य बाहर आया तो एक अन्य शिक्षक जिसने दूसरे कमरे में यह वार्तालाप सुना था उससे कहा-‘‘आपने मना किया तो अच्छा लगा। बेकार में हमारे हिस्से एक ऐसा काम आ जाता जिसमें हमें कुछ नहीं मिलता। यह संचालक वैसे ही छात्रों से फीस जमकर वसूल करता है पर हम शिक्षकों को देने के नाम पर इसकी हवा निकल जाती है। वैसे आपके दिमाग में ऐसा बोलने का विचार कैसे आया?’’
         प्राचार्य ने कहा-‘‘अपनी जरूरतें जब पूरी न हों तो ईमानदारी की बात करना भी जहर जैसा लगता है। वैसे फोकट में भ्रष्टाचार का विरोध करना मैं भी ठीक नहीं समझता। खासतौर से जब इस आंदोलन को चलाने वाले घोषित रूप से चंदा लेने वाले हों। हमें अगर कोई पैसा दे तो एक बार क्या अनेक बार ऐसे आंदोलन में जाते। फोकट में टांगें तोड़ना या भाषण देना तो तब और भी मुश्किल हो जब हमें यही अपनी मेहनत का पैसा कम मिलता है।’’
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  Bharatdeep, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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