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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/27/12

बसंत पंचमी-आंनद तो पूरे महीने लिया जा सकता है-हिन्दी लेख (A hindi article or lekh-basant panchami-anand ka mahina, month of enjoyment)

              कल वेलेंटाइन डे मनाया जाएगा। मूलत: यह त्यौहार पश्चिम से आया है पर हमारे बाज़ार ने नयी पीढ़ी को अपने जाल में फँसाने के लिए अब प्रचार का सहारा इस कदर लिया है कि सारे देश में इसकी चर्चा होती है। इस बार की बसंत पंचमी से सर्दी का प्रकोप घेर कर बैठा है। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा कि मौसम समशीतोष्ण हुआ हो, अलबत्ता लगता है कि सर्दी थोड़ा कम है पर इतनी नहीं कि उसके प्रति लापरवाही दिखाई जा सके। जरा लापरवाही शरीर को संकट में डाल सकती है। 
                 अगर पर्व की बात करें तो बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। यह मौसम खाने पीने और घूमने के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है-यानि पूरा माह आनंद के लिये उपयुक्त है। समशीतोष्ण मौसम हमेशा ही मनुष्य को आनंद प्रदान करता है। वैसे हमारे यहां भले ही सारे त्यौहार एक दिन मनते हैं पर उनके साथ जुड़े पूरे महीने का मौसम ही आनंद देने वाला होता है। ऐसा ही मौसम अक्टुबर में दिपावली के समय होता है। बसंत के बाद फाल्गुन मौसम भी मनोरंजन प्रदान करने वाला होता है जिसका होली मुख्य त्यौहार है। दिवाली से लेकर मकर सक्रांति तक आदमी का ठंड के मारे बुरा हाल होता है और ऐसे में कुछ महापुरुषों की जयंती आती हैं तब भक्त लोग कष्ट उठाते हुए भी उनको मनाते हैं क्योंकि उनका अध्यात्मिक महत्व होता है। मगर अपने देश के पारंपरिक पर्व इस बात का प्रमाण हैं कि उनका संबंध यहां के मौसम से होता है।
                प्रसंगवश फरवरी 14 को ही आने वाले ‘वैलंटाईन डे’ भी आजकल अपने देश में नवधनाढ्य लोग मनाते हैं पर दरअसल मौसम के आनंद का आर्थिक दोहन करने के लिये उसका प्रचार बाजार और उसके प्रचार प्रबंधक करते हैं। एक मज़े की बात यह है की भारतीय संस्कृति के समर्थक जहां इस वेलेंटाइन डे को मनाने का विरोध तो करते हैं पर साथ ही इस दिन को मित्र दिवस, मातृ पितृ दिवस या फिर शुभेच्छ दिवस मनाने की बात भी करते हैं। स्पष्टत: हमारे कथित संस्कृति समर्थक पश्चिम के पर्वों का विरोध तो करते हैं पर समाज पर वहाँ की विचारधारा के प्रभाव को समाज से पूरी तरह समाप्त करने का माद्दा नहीं रखते इसलिए अपने लाभ की खातिर उसमें अपने तत्व जोड़ने का प्रयास  करते हैं। इससे उनको प्रचार तो मिलता ही है।    
                  बसंत पंचमी पर अनेक जगह पतंग उड़ाकर आनंद मनाया जाता है हालांकि यह पंरपरा सभी जगह नहीं है पर कुछ हिस्सों में इसका बहुत महत्व है।
             बहुत पहले उत्तर भारत में गर्मियों के दौरान बच्चे पूरी छूट्टियां पतंग उड़ाते हुए मनाते थे पर टीवी के बढ़ते प्रभाव ने उसे खत्म ही कर दिया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि पहले लोगों के पास स्वतंत्र एकल आवास हुआ करते थे या फिर मकान इस तरह किराये पर मिलते कि जिसमें छत का भाग अवश्य होता था। हमने कभी बसंत पंचमी पर पतंग नहीं उड़ाई पर बचपन में गर्मियों पर पतंग उड़ाना भूले नहीं हैं।
                आज टीवी पर एक धारावाहिक में पंतग का दृश्य देखकर उन पलों की याद आयी। जब हम अकेले ही चरखी पकड़ कर पतंग उड़ाते और दूसरों से पैंच लड़ाते और ढील देते समय चरखी दोनों हाथ से पकड़ते थे। मांजा हमेशा सस्ता लेते थे इसलिये पतंग कट जाती थी। अनेक बाद चरखी पकड़ने वाला कोई न होने के कारण हाथों का संतुलन बिगड़ता तो पतंग फट जाती या कहीं फंस जाती। पतंग और माजा बेचने वालों को उस्ताद कहा जाता था। एक उस्ताद जिससे हम अक्सर पतंग लेते थे उससे एक दिन हमने कहा-‘मांजा अच्छा वाला दो। हमारी पतंग रोज कट जाती है।’
            उसे पता नहीं क्या सूझा। हमसे चवन्नी ले और स्टूल पर चढ़कर चरखी उतारी और उसमें से मांजा निकालकर हमको दिया। वह धागा हमने अपने चरखी के धागे में जोड़ा  । दरअसल मांजे की पूरी चरखी खरीदना सभी के बूते का नहीं होता था। इसलिये बच्चे अपनी चरखी में एक कच्चा सफेद धागा लगाते थे जो कि सस्ता मिलता था और उसमें मांजा जोड़ दिया जाता था।
           बहरहाल हमने उस दिन पतंग उड़ाई और कम से कम दस पैंच यानि पतंग काटी। उस दिन आसपास के बच्चे हमें देखकर कर हैरान थे। अपने से आयु में बड़े प्रतिद्वंदियों की पंतग काटी। ऐसा मांजा फिर हमें नहीं मिला।     यह पतंग उड़ाने की आदत कब चली गयी पता ही नहीं चला। हालांकि हमें याद आ रहा है कि हमारी आदत जाते जाते गर्मियों में इतने बड़े पैमाने पर पतंग उड़ाने की परंपरा भी जाती रही। पहले क्रिकेट फिर टीवी और इंटरनेट ने पतंग उड़ाने की परंपरा को करीब करीब लुप्त ही कर दिया है।
         एक बात हम मानते हैं कि परंपरागत खेलों का अपना महत्व है। पहले हम ताश खेलते थे। अब ताश खेलने वाले नहीं मिलते। शतरंज तो आजकल भी खेलते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता होने के कारण साथी खिलाड़ी मिल जाते हैं। जितना दिमागी आराम इन खेलों में है वह टीवी वगैरह से नहीं मिलता। हमारे दिमागी तनाव का मुख्य कारण यह है कि हमारा ध्यान एक ही धारा में बहता है और उसको कहीं दूसरी जगह लगाना आवश्यक है-वह भी वहां जहां दिमागी कसरत हो। टीवी में आप केवल आंखों से देखने और कानों से सुनने का काम तो ले रहे हैं पर उसके प्रत्युत्तर में आपकी कोई भूमिका नहीं है। जबकि शतरंज और ताश में ऐसा ही अवसर मिलता है। मनोरंजन से आशय केवल ग्रहण करना नहीं बल्कि अपनी इंद्रियों के साथ अभिव्यक्त होना भी है। अपनी इंद्रियों का सही उपयोग केवल योग साधना के माध्यम से ही किया जा सकता है।  इसके लिये आवश्यक है कि मन में संकल्प स्थापित किया जाये।
        वैसे बसंत पंचमी पर लिखने का मन करता था पर किसी अखबार में छपने या न छपने की संभावनाओं के चलते लिखते नहीं थे पर अब जब इंटरनेट सामने है तो लिखने के लिये मन मचल उठता है। अब सुबह घर में सुबह बिजली नहीं होती। हमारे घर छोड़ने के बाद ही आती है। इधर रात आये तो पहले सोचा कुछ पढ़ लें। एक मित्र के ब्लाग पर बसंत पंचमी के बारे में पढ़ा। सोचा उसे बधाई दें पर तत्काल बिजली चली गयी। फिर एक घंटा बाद लौटी तो अपने पूर्ववत निर्णय पर अमल के लिये उस मित्र के ब्लाग पर गये और बधाई दी। तब तक इतना थक चुके थे कि कुछ लिखने का मन ही नहीं रहा। वैसे इधर सर्दी इतनी है कि बसंत के आने का आभास अभी तो नहीं लग रहा। कुछ समय बाद मौसम में परिवर्तन आयेगा यह भी सच है। बसंत पंचमी का एक दिन है पर महीना तो पूरा है। इस अवसर पर ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई। उनके लिये पूरा वर्ष मंगलमय रहे।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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