आज से भारतीय नव वर्ष विक्रमी
संवत 2071 प्रारंभ हो गया है। मूल भारतीय संस्कृति, संसस्कार तथा स्वभाव की विपरीत धारा में चल रहे समाज
में इस पर्व का महत्व शनैः शनैः कम होता गया है।
अब तो पश्चिमी पंरपराओं, भाषाओं
तथा सस्कारों के आधार पर एक ऐसे आधुनिक
सभ्य समाज का निर्माण हो रहा है जिसमें सभी लोग समान होने का सिद्धांत अंतिर्निहित
माना जाता है। हालांकि यह एक छलावा है पर
भारतीय नवसंस्कारिक भारतीय समाज इसे उसी तरह नहीं समझता जैसे कि नवधनाढ्य धन का
उपयोग करना नहीं जानता। पश्चिमी समाज में पर्वों के नाम पर मनोरंजन की जिस
प्रवृत्ति को हमारे यहां अपनाया गया है वह केवल उपभोग की तरफ प्रेरित करती है
जिससे अंततः बाज़ार को ही लाभ होता है इसी कारण सौदा्रगरों से पालित प्रचार माध्यम
पश्चिमी पर्वों का ही प्रचार करते हैं। भारतीय अध्यात्म से परे हो रहे समाज का
उनके विज्ञापनों के जाल में फंसला अत्यंत सहज हो गया है।
जब प्रचार माध्यमों पर
क्रिकेट मैचों पर फिक्सिंग को लेकर रुदन कार्यक्रम चलता है तब उसे भारत के
जनमानस क्रिकेट खेल धर्म की स्थापित होना बताकर जिस तरह मजाक बनाया
जाता है वह हैरानी की बात है। एक बैट बॉल
का खेल खेलना भी धर्म हो सकता है यह आधुनिक अर्थशास्त्र का एक नया सिद्धांत बन गया
है। खिलाड़ियों की नीलामी होती है। पहले एक
बंधुआ मजदूरों की खरीद बिक्री की प्रणाली हुआ करती थी जिसे आधुनिक सभ्य सिद्धांतों
के आधार पर अमानवीय माना गया पर जिसत तरह पैसे के लिये खिलाड़ी सेठों के बंधूआ बनने
को आजकल तैयार होते है तब यह सवाल उठता है
कि क्या उनका यह कर्म उन कथित आधुनिक
सिद्धांतों के अनुकूल हैं? क्रिकेट
पर करोड़ों का सट्टा लगता है और हैरानी की बात यह है कि लगाने और लगवाने वाली इसी
देश के लोग हैं। मनोंरंजन का विषय अगर कोई
खेल हो सकता है तब किसी बात की नैतिकता की आशा करना व्यर्थ है मगर कथित आधुनिक
सभ्यता के ठेकेदार स्वयं भले ही चाहे जैसे भी हों वह आदर्श की बातें करना ही
सत्संग मानते हैं। ऐसा सत्संग जिसके बाद
उसमें तय की गयी मर्यादा के पालन की जरुरत नहीं है।
यह सब आधुनिक भारतीय सभ्यता
की देन है जो अपनी पुरानी तो कुछ पाश्चात्य समाज के घालमेल से बने नियमों पर चलती
है और जिसका पालकपोषक धनाढ्य वर्ग के वह सदस्य हैं जो अपने वैभव से ही उकता गये
हैं। भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा स्वभाव के मौलिक सिद्धांतों का
पालन सही मायने में तो वह वर्ग कर रहा है जो परिश्रम के आधार पर जीवन संघर्ष में
सम्मिलित है। उसके पसीने की धारा से जो
धर्म प्रवाहित है वही सत्य है और उसका सम्मान करना सही मायने में भारतीयता
है। शनैः शनै श्रम के प्रति सभ्रांत वर्ग
के विचारों में उपेक्षा का भाव बढ़ता जा रहा है। अपने धन की उपलब्धता को
सर्वशक्तिमान की कृपा तथा श्रमशील के
अभावों को उसके पुराने जन्म के अपराध का
दंड मानने की प्रवृत्ति ने समाज में जो वैचारिक स्तर पर खाई पैदा हुई है उसको
पाटना सहज नहीं है। इसे भारतीय अध्यात्म दर्शन के सिद्धांतों की चर्चा कर ही पाटा
जा सकता है पर उनका सतही प्रवचन कभी ऐसा नहीं कर सकता।
श्रीमद्भागवत गीता में कहा
गया है कि अकुशल श्रम को कभी हेय नहीं समझना चाहिये। श्रमिक को अपने कर्म का पूरा
लाभ देना चाहिये यही भारतीय दर्शन का सिद्धांत है। इस नववर्ष पर हमें मनोंरजन की
बजाय चिंत्तन तथा उससे निकले निष्कर्ष को हृदय में धारण करने की प्रवृत्ति अपनाना
चाहिये।
भारतीय नववर्ष संवत् के
प्रारंभ होने पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों, पाठकों तथा फेसबुक पर अनुसरण करने वाले सहृदय जनों को को बधाई। इस अवसर पर हमारी कामना है कि यह वर्ष
सभी के लिये मंगलमय हो।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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