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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/9/14

प्रातःकालीन प्रपंच से बचें-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन लेख(pratkalin prapanch se bache-hindi satire thought article)



            हमारे एक मित्र को प्रातःकाल घूमने की आदत है।  जब बात कोई साथ चलता है तो उनका मुख सक्रिय रहता है और जब अकेले होते हैं तो कान अत्यंत आतुर होकर इधर उधर से स्वर ग्रहण करने लगते हैं।  जब खुद बोलते हैं तो उस पर आत्ममंथन नहीं करते पर जब कहीं दूसरे की बात सुन ली तो उस पर प्रतिक्रिया घर आकर देते हैं।  वहां किसी ने ध्यान नहीं दिया तो कार्यालय में आकर घटना का वर्णन अपनी टिप्पणी के साथ करते हैं। वहां भी किसी ने  कान नहीं धरा तो फिर रास्ते चलते हुए किसी को सुनाते हैं।
            उस दिन सुबह ही हमसे राह चलते मिल गये। बोले-‘‘यार, एक बात समझ में नहीं आती कि अपने परिवार पर नियंत्रण किस तरह करना चाहिए?’
            हमें समझ आ गया कि आज अध्यात्म विषय पर परीक्षा होने वाली है। हमने पूछा-‘‘तुम्हारी समस्या क्या है? हम जरा जल्दी में है अभी सुना दो बाद में विचार कर बतायेंगे।’’
            वह बोला-‘’आज मैं उद्यान मैं प्रातःकाल भ्रमण पर गया था।  वहां एक बुजुर्ग महिला दूसरी महिलाओं से कह रही थी कि बेटे पर नियंत्रण रखो तो बहुऐं कुछ नहीं कर सकती’, फिर एक बुजुर्ग को दूसरे बुजुर्गों से कहते सुना कि बहुऐं को अपने प्रभाव में रखो तो बेटा अपने आप नियंत्रण में रहेगा’, एक बात समझ में नहीं आयी कि आखिर किस उपाय से परिवार पर ऐसा नियंत्रण रखा जाये कि जिंदगी आराम से कटे।
            हमने कहा-‘‘बाकी तो पता नहीं पर एक बात तय है कि किसी पर भी नियंत्रण करने का विचार छोड़ दो जिंदगी आराम से कट सकती है। दूसरी बात यह कि आखिर तुम प्रातःकाल भ्रमण करने जाते ही क्यों हो? वहां जाकर अपनी मानसिक शुद्धि का उपाय करना चाहिये न कि पुराना तनाव नयी पहचान के साथ घर लाना चाहिए।’’
            वह बोला-‘‘एक बात बताओ। सुबह घूमते हुए अपने कान तो बंद नहीं कर सकता। फिर कोई मिल जाये तो उससे बात भी करनी पड़ती है।  थोड़ा घूमने के बाद कहीं बैठता हूं तो वहां लोगों का वार्तालाप कान में पहुंचता ही है।’’
            हमने पूछा-‘‘तुम घूमते हो कि बैठते हो?’’
            वह बोला-‘‘घूमें कि बैठें, इसमें अंतर क्या है?’’
            हमने कहा-‘‘घूमते हैं तो देह चलती है तो मन भी घूमता है जिससे इंद्रियां मौन हो जाती हैं और बैठते हैं तो फिर सब कुछ घर जैसा ही उल्टा पुल्टा हो जाता है।’’
            वह बोला-‘‘यार, तुम तो अध्यात्मिक लेखक हो। यह बताओ कि परिवार पर नियंत्रण किसी तरह रखा जाये?’’
            हमने हंसकर कहा-अध्यात्मिक विषय प्रातःकाल घूमते हुए इंद्रियों के मौन रखने तक ही सीमित रहता है और वहां बैठकर परिवार पर निंयत्रण के विषय पर ज्ञान सुनना सांसरिक चर्चा है जिसमें हम तो वैसे भी तुमसे कम ज्ञानी हैं।’’
            उससे विदा हुए तो हम यह भी भूल गये कि अपने घर से कौनसा लक्ष्य लेकर निकले थे।
            हमने देखा है कि मधुमेह, कब्ज, गैस तथा अनेक राजरोगों से ग्रस्त लोगों को चिकित्सक प्रातः सैर करने नुस्खा अपनी दवाओं के साथ ही प्रदान करते हैं।  अगर हम सुबह घूमने वालों का अध्ययन करें तो तीन तरह के लोग होते हैं-एक तो वह जो स्वास्थ्य में निरंतरता  के साथ ही देह में स्फूर्ति बनाये रखने के लिये आते हैं। दूसरे वह जिनको चिकित्सक की राय बाध्य करती है। तीसरे वह जो आयु का लंबा दौर पार चुके हैं और सारा दिन घर में बैठने से उकताने के कारण प्रातः स्वयं ही गृह निष्कासन की सजा भोगने आते हैं।  इसमें दूसरी और तीसरी श्रेणी के लोगों की संख्या एक समान तथा अधिक होती है।  ऐसे लोग उद्यान में आकर चिकित्सक और परिवार वालों पर अहसान करते हैं। साथ ही स्वयं को दिलासा भी देते हैं।  इनकी सांसरिक चर्चा प्रातःकाल ही प्रारंभ हो जाती है। निद्रा भंग होने के साथ ही इंद्रियों के पीछे  तनाव  ही लग जाता है।  समस्या हमारे उन मित्रों के साथ होती है जो चिकित्सकीय परामर्श के बाद उद्यान में जाते हैं पर अज्ञानता वश ऐसे प्रसंगों पर कान देकर अपनी इंद्रियों को मौन रखने की बजाय उसमें सक्रिय रखकर प्राप्त होने वाले स्वास्थ्य लाभ को वहीं नष्ट कर देते है। एक अध्यात्मिक साधक और लेखक के नाते हमारी राय तो यह बनती है कि इस तरह के प्रातःकाली प्रपंच से बचना चाहिए।  हम न भी चाहें तो सारा दिन यही प्रपंच हमारे साथ रहते ही हैं।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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