किसी समाज के शक्तिशाली होने का प्रमाण उसके यहां उपलब्ध धन या जन संपदा से
नहीं वरन् उसके दृश्यव्य स्वरूप से होता है।
अगर किसी देश में धन और जनसंख्या अधिक पर वहां स्वास्थ्य तथा चरित्र का
स्तर निम्न है तो वह शक्तिशाली नहीं हो सकता।
हम आज पूरे विश्व में जहां भौतिक संपदा के साथ ही बढ़ती जनसंख्या का
दुष्प्रभाव यह देख रहे हैं कि अपराध तथा बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। जिस तरह
रोज नये अविष्ककार की खबर आती उसी तरह नयी बीमारियां भी लाती हैं। उसी तरह समाज के
लिये उच्च तकनीकी का अविष्कार होते ही उसका अपराध जगत में उपयोग भी देखा जाता
है। हम देख रहे हैं कि मोबाइल, कंप्यूटर तथा तीव्रगति के वाहनों का उपयोेग जनसामान्य में बढ़ा है तो
अपराधियों ने भी उनसे अपना काम सरल कर लिया है।
अनेक उपकरणों का उपयोग तो अपराधी इस तरह सुधार के साथ करते हैं कि
अविष्कारकर्ता भी दंग रह जाये।
हमारे देश में जनसंख्या का बढ़ना थमा नहीं है पर रोजगार तथा सुरक्षा के
प्रति अविश्वास ने यहां लोगों का मानसिक तनाव बढ़ा दिया हैै। स्थिति यह है कि मनुष्य एकाकी जीवन बिता रहा
है-उसके साथ कितने लोग रहते हैं यह प्रश्न अब महत्वपूर्ण नहीं रहा। रिश्ता निभाने से अधिक उपयोग करने का विषय बन
गया है। निस्वार्थ प्रेम या सहानुभूति
मिलने की आशा ही व्यर्थ दिखती है। हम बाहर
से बृहद दिख रहे समाज में व्यक्ति के एकाकी हो जाने को अज्ञान के कारण नहीं देख पा
रहे-यह अलग बात है कि एकांत चिंत्तन में यह बात हमारे सामने आती है कि हम अकेले
हैं।
एक योग साधक एकांत में बैठा था। एक
सज्जन उनसे बात करने आये और बोले-आप अकेले बैठे साधना कर रहे हैं अच्छी बात है।
चलिये आपके पास बैठकर मैं अपना अकेलापन दूर कर देता हूं।
साधक ने कहा-‘नहीं मैं अकेला कहा हूं?’’
उन सज्जन ने आश्चर्य के साथ पूछा-‘‘आपके साथ कोई दिख नहीं
रहा?’’
साधक ने कहा-‘‘यहां एक मेरा मन है दूसरा मैं आत्मा हूं। मुझे
कभी एकाकीपन नहीं लगता। योग साधना से
दृष्टा बनने का अभ्यास हो जाता है। मैं अपनी इंद्रियों की सक्रियता को देखता हूं।
करता कुछ नहीं हूं। इंद्रियां कर्ता है वह मेरी देह का हिस्सा है। दृष्टा होने की
वजह से मैं कभी अकेला नहीं होता।’’
योग साधना के अभ्यास में ध्यान की क्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उस समय इंद्रियों और पुरुष की भिन्नता देखी जा
सकती है। ध्यान के समय मन, बुद्धि तथा शरीर का मौन उस पुरुष के दर्शन करता है जो हम स्वयं होते
हैं। तब हम दो होते हैंे-एक देह और दूसरा
आत्मा। जिन्होंने ध्यान नहीं किया वह कभी मौन नहीं रहे। मौन नहीं रहे तो कभी आत्मा
को जाना ही नहीं। भीड़ में चलते हुए अपना
एकांत दूर किया जा सकता है पर अकेलापन नहीं।
योग करो तो जानो। नहीं किया तो जानने की आवश्यकता नहीं क्योंकि एक बार अगर
योग साधना का नशा चढ़ गया तो भीड़ में भी एकांत लगता है। भीड़ की रवैया अकेलापन
दिखाता है। सबसे अलग होते दिखने में भी डर
लगता है पर जब योग का अभ्यास हो जाता है तब यही अकेलापन रुचिकर लगता है। हम लोगों
को अकेले दिखते हैं पर होते नहीं। लोग भीड़
में होते हैं पर अकेलापन साथ होता है यह योग का अभ्यास करने वाला ही देख पता है।
इसलिये कहते हैं कि योग करो तो जानो।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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