मनुष्य देह त्रिगुण से प्रभावित है, यह ज्ञान और विज्ञान का
श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सिद्धांत है।
इस सिद्धांत को रटकर सुनाने वाले बहुत हैं पर आशय समझने और समझाने वाले
कहीं दिखाई नहीं देते। अगर श्रीमद्भागव्
गीता के सिद्धांतों का वैज्ञानिक पक्ष समझ लिया जाये तो फिर जीवन की धारा ही बदल
जायेगी।
हम अक्सर यह सोचते हैं कि अच्छा बोला, सुना और देखा जाये ताकि
जीवन के वास्तविक आनंद की अनुभूति हो।
इसके लिये आवश्यक है हम यह माने कि हम आत्मा हैं और उस देह को धारण किये
हैं जिसके ‘स्वयं’
होने का भ्रम बोध हो रहा है। आत्मा और देह में भेद
का आभास भी योग साधना के निरंतर अभ्यास करने पर तब पाया जा सकता है जब हम
इंद्रियों का संयोग करने के चरम शिखर पर पहुंच जाते हैं। मूल रूप से मन और बुद्धि
देह का भाग हैं पर योग साधना से जब आत्मा
उनके संपर्क में आता है तब वह स्वयं भी विचार करता है। वह निष्कर्ष निकालता है। अगर यह संयोग न हो तो
आत्मा न तो विचार करता है न कोई निर्देश दे पाता है। कष्ट आने पर यह सोचकर व्यथित होता है कि उसके
पास मन और बुद्धि का अभाव है। जब आत्मा का
इंद्रियों से संयोग हो जाता है तब इस बात की अनूभूति हो जाती है कि बाह्य तत्वों
के प्रभाव से ही कोई गुण अंदर आ सकता है।
हम जब यह कहते हैं कि प्रेम से बोलना, अहिंसा में रत रहना तथा
निर्लिप्त भाव से कर्म करना चाहिये। हमारे यहां कदम कदम पर ज्ञान बघारने वाले हैं
पर फिर भी समाज मानवीय सिद्धांतों के पालन में पिछड़ रहा है। योग विज्ञान से परे सद्गुणों का महत्व तो बखान
करते हैं पर उनको धारण करने की कला नहीं आती।
हम शराबियों, जुआरियों तथा लोभियों के बीच जीवन बिताते हुए व्यसनों के दुष्प्रभाव बखान करते हैं। फिल्म, टीवी अथवा मनोरंनज के
साधनों मे समय बिताते हुएं और समाज के लिये अध्यात्मिक दर्शन आवश्यक मानते
हैं। जो ज्ञान कहीं से सुना तो दूसरे को
सुना दिया। मान लेते हैं कि किसी ने ज्ञान सुनाया तो वह हमने दूसरे को सुनाकर अपना धर्म निभाया इसलिये
हम ज्ञानी हैं। धर्म का संबंध केवल कर्मकांडों से जोड़न के कारण ज्ञान के
सिद्धांतों को धारण कर उस राह पर देह को चलाने की
हमारे अंदर शक्ति तथा संकल्प का
अभाव हो जाता है। श्रीमद्भागवत् गीता में धारणा शक्ति का वैज्ञानिक वर्णन किया गया
है।
हम अगर संकल्प धारण करें तो कुछ गुण आंतरिक तथा कुछ बाह्य तत्वों से जुड़कर
प्राप्त कर सकते हैं। अच्छा बोलने के लिये वैसा पढ़ना और सुनना जरूरी है। अच्छा देखने के लिये आंतरिक चक्षु के साथ देह
का संपर्क करने पर ही यह इच्छा पूरी हो सकती है।
हम आत्ममुग्ध होकर यह कभी न सोचें कि हम गुणवान हैं। हमें इस बात पर चिंत्तन करना चाहिये कि हमारे
आसपास सक्रिय वातावरण, व्यक्ति, विषय और और वस्तु अगर
दुष्प्रभाव डालने वाली है तो हम चाहें भी तो उससे बच नहीं सकते। उनके संपर्क का दुष्प्रभाव हम पर पड़ता है पर
आत्मचिंत्तन के अभाव में हम उसे देख नहीं सकते।
जब आत्मचिंत्तन करते हैं तब ऐसे तत्वों से संपर्क रखने का विचार छूट जाता
है। यह ज्ञान इंद्रियां ही विषयों तथा गुण ही गुणों में बरतते का सिद्धांत समझने
पर ही आता है। अपने अंदर गुण पैदा करने के लिये आसपास सक्रिय वातावरण, विषय,
वस्तु तथा व्यक्तियों की श्रेणी पर अवश्य विचार करना चाहिये।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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