अब भारतीय प्रचार माध्यमों की नज़र पूर्व की तरफ गयी है
वरना तो अभी तक वह पश्चिम की तरफ बैठकर वहां की सांस्कृतिक आराधना करते थे। इतना
ही नहीं विकास का प्रारूप उनको यूरोपीय देशों से ही मिलता था। अब धीरे धीरे उनको
बीजिंग और दक्षिण कोरिया का विकास नज़र आ रहा है। इन्हीं प्रचार माध्यमों के अनुसार
आबादी पर कड़े नियंत्रण की वजह से चीन में
अब मजदूरों की कमी पड़ने वाली है और हमारे विद्वानों के अनुसार हमारे यहां से ही
श्रम आधारित आपूर्ति की संभावना हो सकती
है। तय बात है कि मजदूरों के साथ लिपिक और रोकड़िया के पद भी भारतीय ही भरेंगे।
वैसे सामाजिक विशेषज्ञ चीन की मुरझा चुकी पारंपरिक संस्था के कमजोर होने की बात भी
कहते हैं। शायद यही कारण है कि वहां के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपतियों ने बौद्ध
मंदिरों की यात्रा की तस्वीरें वहां के प्रचार माध्यमों इसलिये छपने दी ताकि वहां
एक अध्यात्मिक वातावरण भी बने जो वामपंथ की वक्रदृष्टि लगभग समाप्त हो गया है। इस
कार्य में भी उन्हें भारत की आवश्यकता पड़ी और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को साथ
लेकर वहां गये या कहें उनके साथ गये। भले ही उनके मंदिर जाने के कदम को मेहमानवाजी के सिद्धांत का हवाला दें पर इसके
संभावित परिणाम अत्यंत दिलचस्प हो सकते हैं। हमारा मानना है कि चीन में संभवत पहली
बार अपने शिखर पुरुषों के मंदिर जाने के चित्र सार्वजनिक रूप से पहली बार देखे गये
होंगे।
यूरोप तथा अन्य पश्चिमी विकसित राष्ट्रों में एशियाई
देशों से मानव श्रमिक जाते रहे हैं पर वहां अब मंदी का दौर चल रहा है। इसलिये भारत
से विदेश जाना अब कठिन होता जा रहा है। जब विदेश जाने का दौर तेजी से चल रहा था तब
भारत में अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया जाता रहा है। आमतौर से पूर्वी देश भाषा और
धर्म को लेकर ज्यादा संवेदनशील हैं। इसलिये वहां अंग्रेजी भाषा और सभ्यता का
प्रभाव नगण्य है। ऐसे में अगर वहां भारत
से लोग जाना है तो उन्हें चीनी भाषा सीखनी होगी। हमने चैनलों पर देखा था वहां
कैमरा लिये चैनल वाले अंग्रेजी बोलने वालों को ढूंढ रहे थे पर निराश हुए। ऐसे में
अंग्रेजीदां लोगों के लिये काम करना सहज नहीं होगा। सबसे बड़ी बात यह कि चीनी लोग
अंग्रेजी को अधिक पसंद नहीं करते और हिन्दी के प्रति अगर उनका सद्भाव न भी हो तो
भी दुर्भाव कतई नहीं हो सकता।
भारत में हिन्दी शब्दकोष में अंग्रेजी शब्द ठूंसकर उसे
आधुनिक तथा वैश्वक भाषा बनाने का सपना देखने वालों के लिये अब यह समस्या आने वाली
है कि उनकी इस कथित हिंग्लिश से चीन में गलत असर पड़ेगा। इस लेखक ने एक बार चीनी
रेडियो पर हिन्दी सुनी थी। वह शुद्ध हिन्दी बोलते हैं। अब जब पूर्वी देशों की तरफ
भविष्य में अच्छे संबंधों के लिये हमारा देश देख रहा है तब अंग्रेजी की बजाय चीनी
या जापानी भाषायें ही हमारे लोगों का सहारा बन सकती हैं।
इसलिये अब नारा होना चाहिये ‘पश्चिमी जगत की प्रशस्ति छोड़े, पूर्व दिशा की
तरफ दौड़ें’। जहां तक हम जैसे जड़
प्रकृत्ति के लोगों की बात है उन्हें अपने सामने ऐसे परिवर्तन अध्यात्मिक रूप से
बड़े मजेदार लगते हैं क्योंकि कहीं न कहीं इसमें ऐसे मानसिक तत्व होते हैं जिन पर
शोध किया जा सकता है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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