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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/7/15

आहार के विषय में जाग्रति लाना महत्वपूर्ण-हिन्दी चिंत्तन लेख(ahar ki vishay mein jagrati lana mahatvpoorn-hindi thought aritcle)

अभी हाल ही में हमारे देश में बड़े उत्पाद संगठनों के खाद्य उत्पादों पर विवाद उठ खड़ा हुआ था जो अब थमता नज़र आ रहा है। इन खाद्य उत्पादों के उपयोग से बच्चों और स्त्रियों पर हानिकारक बताया गया है।  देखा यह जाता है कि इन विषैले पदार्थों के उपभोग में महिलाऐं और बच्चे भी शािमल हैं।  आमतौर से बच्चों को खिलाने पिलाने के लिये माता पिता बाज़ार के सामानों का उपयोग करते हैं। उनके लिये दूध तक अब बड़ी उत्पाद कंपनियों के नाम से बेचा जा रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि बच्चों के लिये खान पान के लिये समाज में जाग्रति लाने को विषय को महत्वपूर्ण नहीं मानना चाहिये?
नार्वे की एक संस्था विभिन्न विषयों में श्रेष्ठता प्रमाणित करने वाले को नोबल पुरस्कार देती है। आमतौर से हमारे यहां के वामपंथी तथा दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी इन पुरस्कारों का मजाक बनाते हैं।  अलबत्ता प्रगतिशील बुद्धिमानों के लिये यह पश्चिमी पुरस्कार अत्यंत रुचिकर रहते हैं।  नार्वे के इन पुरस्कारों को पश्चिमी देशों की राजनीतिक सोच का एक भाग भी माना जाता है। जिन विषयों के लिये यह दिया जाता है वह पूरी तरह पश्चिमी विचाराधारा के प्रवाहक होते हैं।  अभी हाल ही में भारत के एक महान व्यक्तित्व को बाल श्रम के लिये काम करने पर नोबल दिया गया।  भारत में बालश्रम एक बहुत बड़ी समस्या है और उसके अनेक कारण है।  हम यह तो मानते हैं कि बालकों तब तक कोई काम नहीं लेना चाहिये जब तक वह युवा न हो जायें। इस सोच के पीछे हमारा दृष्टिकोण मानवीय सिद्धांत से जुड़ा है।  पश्चिम के बालश्रम के विरुद्ध झुकाव वैसे तो मानवीय पक्ष लगता है पर जिस तरह वहां कंपनियों का प्रभुत्व है उसे देेखकर संदेह भी पैदा होता है।  बालकों की समस्या के केवल इस तरह का श्रम करना नहीं है वरन् उनकी शिक्षा तथा आहार से भी जुड़ी हैं। हमारे पुराने संस्कारों में बच्चे के लिये मां का दूध सर्वोपरि माना जाता है पर अब डिब्बे का दूध उसकी जगह ले रहा है। नाश्ते में बड़ी कंपनियों के उत्पाद की परंपरा बन गयी है जिनमें अभक्ष्य पदार्थ शामिल होने का संदेह है। देखा जाये तो बड़े उत्पाद संगठनों के बढ़ते प्रभाव के चलते अब स्त्रियों और बालकों की शिक्षा तथा आहार के लिये जाग्रति का काम भी एक महान सेवा का काम बन गया है पर क्या नोबल देने वाले कभी ऐसे व्यक्ति को सम्मानित करेंगे? यकीनन नहीं! क्योंकि पश्चिम की कथित सामाजिक संस्थायें कभी भी बड़े उत्पाद संगठनों की अपेक्षा नहीं कर सकती। आप देखिये कोई भी संगठन नारियों में घरेलू कार्य का प्रचार करने का जिम्मा नहीं लेता। इसका कारण यह है कि वह चाहते हैं कि नारियां बाहर काम कर कमायें और बाहर होटलों में जाकर भोजन करें या फिर बड़ी कंपनियों के दो मिनट वाले भोजन का सेवन करे। यही स्थिति बालश्रम की है।  दरअसल विदेशी चंदे से चलने वाले संगठन बालश्रम का विरोध मानवीय पक्ष से अधिक इस आशय से करते हैं वह काम न करें और भारत के देश में पैदा वस्तुओं का उत्पादन गिरे और सेवायें कमजोर हों। देशी उत्पादन तथा सेवाओं में महिलाओं तथा बालकों के श्रम का बहुत बड़ा योगदान है। गृहस्थ महिलाओं का तो मामला ही अजीब है। अमेरिका की ही एक संस्था का कहना है कि भारतीय गृहस्थ महिलायें अपने पुरुषों से ज्यादा कमाती हैं। उनके घरेलू कार्य की उत्पादन कीमत अपने पुरुष सदस्य की बाहर कमाई गयी रकम से अधिक होती है। इसलिये हम किसी गृहस्थ महिला को अनुत्पादक सदस्य नहीं मान सकते।
     अभी हाल ही में एक बड़ी उत्पाद कंपनी के भोज्य पदार्थ पर विवाद हुआ तब हमें पता चला कि वह तो एक बृहद समाज के उपभोग का भाग बन गया है। शायद ऐसी ही कपंनियों को विस्तारित रूप देने के लिये पूंजी तथा श्रम प्रदान करने के साथ ही उपभोक्ता प्रदान करने के लिये योजनाबद्ध ढंग से भारतीय समाज में जागरुकता के नाम पर ऐसे विषय लाये जाते हैं जो उस कर्मठता से अकर्मण्यता की तरफ ले जाते हैं।  ऐसे में आहार के विषय जाग्रति लाने का भी अभियान प्रारंभ करना चाहिये। हालांकि इस विषय पर पश्चिम या देश में किसी सम्मान की आशा करना गलत होगा।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 
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