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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/13/21

फेसबुक तथा ट्विटर पर जारी हिन्दी कवितायें



मुझसे मुंह फेर गये अच्छा किया

मिलते तो दोनों का समय बर्बाद होता

विवाद के डर से भी बचे

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रसहीन गंधहीन रूपहीन शब्दहीन

स्वादहीन हैं जिंदगी

जिंदा रहने की मजबूरी

अच्छी या बुरी

मालूम नहीं

पर खुश रहो

प्राणवान है पर  अर्थहीन नहीं है जिंदगी।

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पहले सामने थे अब हैं यादों में

गुजरे पल बंधे गये जिंदगी के धागों में

दीपकबापू बढ़़ाते रहें कदम

राह में चल रहे हमसफर

 मतलब की खातिर

भरोसा निभाते

बेकार भरोसा करना है

दूर से आ रहे वादों में।

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बाहर चमक में छिपा दर्दीला जहां

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महल जैसे निवास की इच्छा

मिलने पर चैन भी रहता कहां

सुंदर वाहन में घूमने की चाहत

घूमने पर थकावट भी होती वहां

कहें दीपकबापू दिल में ढूंढो मजा

बाहर चमक में छिपा दर्दीला जहां।

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सिक्के के मोह में मन डोला था

हाथ में  खाली झोला था

पसीने की धारा बहती रही

रोटी के लिये देह सब सहती रही

कहें दीपक बापू

भरे शहर बेरौनक जब हुए

भोग के चाहने वाले टूट गये

जो सड़के रहती थीं सुनसान

वहां यायावर मन का निकला टोला था।

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पांव में बेड़ी लगा दी-कविता

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बस इतना कोई बता दे

हमारी चहल कदमी पर

बंदिश क्यों लगा दी

जिंदगी से लड़ते हुए

कभी सठियायें नहीं

तुमने क्यो हमारे पांव में बेड़ी लगा दी।

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कुछ ख्वाहिशों के लिये ही

तो घर छोड़ा था

अपने शहर से मुंह मोड़ा था

नहीं मिला कुछ वहां भी

लौट रहे बुद्धुओं की तरह वापस

यह सोचते हुए

अपने दर पर वही अच्छा जो थोड़ा था।

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जब हम ढूंढ रहे थे आसरा

जमाना लगा था अपने काम में,

हम जज़्बात से निभाते

लोग वफा बेच रहे थे दाम में।

‘दीपकबापू’ अपने घर में नज़रबंद

तृप्त मन क्या ढूंढे अपने नाम में

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पहले रोग बताया अब करें इलाज की तलाश,

कोई दवा बिकने आयेगी करते हम आस।

इंसान में वहम का रोग हैं संक्रमित,

अपने बच निकलने के दावे से सब भ्रमित।

न बीमारी का नाम होता मशहूर

जमाना तब रहता भय से दूर।

अंग्रेजी नाम के विकार

दवा दाम से हो रहे शिकार।

कहें दीपकबापू पंचभूत से बनी देह

बिगाड़ें वही बनाने की भी उनसे आस।

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मुख मंडल लोह नकाब से ढका

मयखाने की पंक्ति में हैं खड़े।

शहरबंदी का हाल यह हुआ

पंक्ति में लगे शर्मदार बड़े।

‘दीपकबापू चाहें कुछ तारीफ

छिपकर पीते थे अब सरेराह अड़े।

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सड़क पहले ही टूटी है

उस पर भी पसरा बीमारी का डर,

अंदर गर्म हवा घूम रही

जलता लग रहा अपना घर।

‘दीपकबापू’ मायूस क्योें होते हो

अपने ही दर्द पर तू हंसी भर।

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आकाश में उड़ने की चाहत

गिराकर कर नीचे करती कभी आहत।

पंख मिले नहीं

मन उड़ने के लिये तैयार 

बेचैनियों को रख लिया

दिलोदिमाग पर बोझ की तरह

ढूंढ रहा इंसान फिर भी राहत।

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पत्थर की छत के नीचे

दीवारों के पीछे

वह कहां हैं विराजे,

फूलों से लदे दरवाजे

चौखट पर बज रहे हैं बाजे।

दीपकबापू बासी मन से बजती

ढेर सारी ताली

उसके होने की अनूभूति की

घर में भी करते वही भक्त

जिनके भाव ताजे हैं।

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कभी गर्म सर्द या शुष्क होती हवायें

असर दिल पर है कैसे समझायें,

बीमारी फैली पर्यावरण में

एकांतवासी घर किसे पीड़़ा बतायें।

बहुतों ने शपथ ली सबके इलाज की

दीपकबापू ढूंढते अपने मर्ज की दवायें

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वहम के व्यापार में कट रही चांदी

अक्ल हो गयी चालाकों की बांदी।

कहें दीपकबापू सच डाले कोने में

बीमारों का इलाज अंधविश्वास से करते

बेबस के पास भेजते वादों की आंधी।

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काश! मिट जाती लालच लोभ की दौड़-हिन्दी कविता

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काश! आकाश से उम्मीद के फूल

नीच टपके होते

काश! जमीन पर सपनों के फल

हकीकत में उगते

सब हमने ही लपके होते

कहें दीपकबापू दिल की चाहतें

करवाती जंग

मिट जाती

लालच लोभ की दौड़

काश! सब लोग सबके होते।

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मन के व्यापारी-हिन्दी कविता

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स्वार्थसिद्धि के लिये 

ढेर सारे सपने दिखाते

चतुर मन के व्यापारी,

खाली कर दिमाग और जेब

सब समेट छोड़ देते यारी।

‘दीपकबापू’ कर ध्यान

जो हाथ में उसे अपना मान

तब खेलना खुलकर

 जब आये अपने समय की पारी।

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लहरों को यार बना लेते-हिन्दी कविता

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ऐसे यार कि साथ निभाने की

सामने शर्त जमा देते

दिल में ख्याल आता कि

क्यो नहीं यारी को

व्यापार बना लेते।

तारनहार नाव लगा देगा किनारे

पानी की धार चलेगी अपनी तरह

दीपकबापू लहरों का यार बना लेते।

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इंसान प्रलय लाया-हिन्दी क्षणिका

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महामारी ने यूं अपना रूप पाया

लाती प्रकृति इंसान का प्रलय लाया

नशेबाज होश में कांपने लगे

घूमने वाले एकांत तापते जगे।

दीपकबापू जोगी ढूंढते रहे विषाणू

असुरों की तरह लापता पाया।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’ ग्वालियर

वह निंदा गायें,

परनिंदा सुनने पर मजा उठायें

क्या जवाब दे उनका जो

सवाल उठाना जानें

उत्तर पर कान बंद कर जायें।

कहें दीपकबापू हम चले

जिंदगी राह अपने कदम पर

दूसरों के कंधे पर टिकायें

अपना आसरा

उन से क्या बहस चलायें।

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अपनी जिंदगी बेहाल

गैरों के दर्द पर ठोक रहे ताल।

ज़माने के लिये बुन रहे

खुद ही फंसा देता अपना जाल।

गुरु बन रहे हारे हुए 

सीख रहे पिटे मोहरों से चेले

कहें दीपक अपनी घोल नशा होये

जिसका नशा आजादी वह चैन सोचे।

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सड़क का कायदा-हिन्दीकविता

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बड़ा सवार छोटे को कुचल देता

सड़क का कायदा यही हुआ

आहिस्ता चलें या तेज

मध्यम चलना भी जुआ

कहें दीपक बापू  स्वयं निकलें

चाहे भेजें बाहर अपना कोई

लौटते तक मांगें बस दुआ।

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बाहर बह रही गर्म हवा

अंदर ढूंढ रहे संक्रमण की दवा

भौंपू सुना रहे शवों की कथायें।

चलो सुने लेते कुछ गीत

लिख लेते कुछ मुक्तक

अपने से दूर करे व्यथायें।

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न आशा से ऊपर ताको

न झांको अपने दायें बायें।

दीपकबापू हम साधक सारथि

तन अपना रथ जैसा चलायें।

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दरबार मूर्खों और जाहिलों से भरे-हिन्दी कविता

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सच है तलवार से बड़ा काम कलम करे,

लोहे से गर्दन कटे एक बार शब्द दंड जन्म भरे।

सिंहासन पर बैठ गये अनपढ़़ और अनगढ़ भी

महलों से हुकुम चलाते अपनी असलियत से डरे।

पढ़े लिखे गुलाम फिर रहे उनके घर के चारों ओर

प्रजा की औकात इतनी कि वह राजस्व भरे।

कहें दीपकबापू मत उठाना लोकतंत्र का सवाल

धूर्तों ने अपने दरबार मूर्खों और जाहिलों से भरे

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रामभरोसे-हिन्दी क्षणिका

राम नाम जापते

सिंहासन पर पहुंचे

फिर भी पुराने यार को कोसे।

कहें दीपकबापू भक्त निष्काम

आज भी हैं रामभरोसे

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, ग्वालियर


 

1/18/20

हम भारत, भारती, और भारतीयता के संवाहक हैं और धर्मनिरपेक्षता तामस गुण की पहचान है(भाग एक) we have an Bharat.,Bharati, bhartiyata Thought, Seculisma is Tanasi type (part-1)

पहले तो प्रश्न यह है कि क्या हम सर्वधर्म समभाव की विचाराधारा से सहमत हैं? जवाब अगर हां है तो फिर यह समझाना पड़ेगा कि धर्म का आशय क्या है? भारत विश्वगुरु है इसलिये धर्म के विषय में उसकी परिभाषा ही सर्वोपरि होना चाहिये पर हमारे स्वाधीनता आंदोलन में सभी मसीहा पश्चिम की विचारधारा से प्रभावित थे। उन्होंने भारतीय दर्शन में परिभाषित धर्म की व्याख्या को न समझा न इसका प्रयास किया। नतीजा यह हुआ कि वह सब पश्चिम की ‘पूजा पद्धति’ को ही धर्म मानने की प्रवृत्ति को यही अपनी आधुनिक विचाराधारा के साथ प्रवाहित करते रहे। हम इन महापुरुषों का विरोध नहीं कर रहे पर यह भी साफ कर रहे हैं कि इनमें कोई ब्रह्मा नहीं था जिसकी रचना को अंतिम मान लें। न ही इनमें कोई कृष्ण जैसा ज्ञानी था जिसे उनकी तरह पूजें। इन महापुरुषों ने स्वाधीनता आंदोलन चलाया जो कि राजसी विषय था उसमें सात्विकता का पुट दिखाने की उनकी कोशिश केवल भारतीय जनमानस को प्रभावित कर अपने साथ लाना था।
सच बात तो यह है कि जिन पूजा पद्धतियों को पश्चिमी विचारधारा धर्म मानती है वह केवल राजनीतिक विचाराधारायें हैं।  इनके माध्यम से राजकीय वर्ग समाज पर नियंत्रण करने का प्रयास करता है। इसके लिये राजकीय पुरुष पूजा पद्धति के नियंत्रक को अपना दलाल बना लेते हैं। हम यहां हिन्दूवाद की बात करते हैं।  पहले यहां कोई हिन्दू पहचान नहीं थी न आज है।  आज हम कहते हैं कि हमारा देश भिन्न भिन्न धर्मों को मानने वाला है तो गलत है। कहा तो यह जाना चाहिये कि हमारा देश भिन्न पूजा पद्धतियों वाला  है। चार प्रकार के भक्त तो हमारी गीता ने ही बताये हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। पद्धतियां भी तीन है-सात्विक देव, राजसी यक्ष और राक्षस और तामसी प्रेत पूजा करते हैं।  मतलब यह कि भारतीय दर्शन में तो भिन्न पूजा पद्धतियों का स्वाभाविक मान्य किया गया है।  इतना ही नहीं किसी पूजा पद्धति के आधार पर वर्ग या जाति की पहचान नहीं मानी गयी बल्कि उन्हें समान भाव से देखने का विचार व्यक्त किया गया है। जबकि पश्चिमी विचारधारा पूजा पद्धति के आधार पर न केवल पहचान करती है वरन् अनेक देश तो अपने कानूनों में ही अपनी पूजा पद्धति को मान्य करते हैं।  हमारे यहां पश्चिमी राजनीतिक पंथिक विचाराधारा के प्रतीक यह इष्ट का नाम लेने की मनायी नहीं है पर अनेक देशों में राम, कृष्ण का नाम लेना भी अपराध है।
     आखिर यह पश्चिमी राजनीतिक पंथिक विचाराधारायें भारत में आयी कैसे? पुराने समय में अनेक विदेशी भारत आये। कुछ ने पद, पैसे और प्रतिष्ठा से राजकीय दरबारों में स्थान बनाया। राजाओं ने उन्हें विदेशी पंथिक आराधना स्थल बनाने की इजाजत यह सोचकर दी कि यह भी एक पूजा पद्धति होगी। अनेक लोगों ने भी इसे सहजता से लिया। जब तक देश का बंटवारा नहीं हुआ तब तक भारतपंथियों को यह आभास ही नहीं था कि वह इन विदेशियों के राजसी षडयंत्र का शिकार हुए हैं। यही कारण है कि अब भारतपंथी लोग वैचारिक प्रतिकार करने लगे हैं।  हम स्वयं को भारतपंथी कहते हैं क्योंकि हिन्दू शब्द तो हमें प्रतिकार स्वरूप कहना पड़ता है।  चूंकि पश्चिमी विचाराधारा के अनुसार पूजा पद्धति धर्म है और विदेशी विचाराधारा वाले स्वयं को अपनी पूजा पद्धति के आधार पर अपनी विदेषी पहचान देते हैं तो हमें मजबूरी में कहना पड़ता है कि हम हिन्दू हैं।  हम जब बात भारतपंथ की बात करते हैं तो हमारा आशय भारत, भारती और भारतीयता से है।  हमारा देश भारत वर्ष, हमारी  वह सब भाषायें भारती हैं जो यहां पैदा हुई हैं।  हमारा खानपान, पहनावा, पर्व तथा सात्विक विचार भारतीयता है। शायद कुछ भारतपंथी स्वयं को हिन्दू और हिन्दुस्तानी कहकर खुश हो लें पर पर यह भारत को मिटाने की एक साजिश का शिकार होते हैं।  हमारा क्षेत्र भारतवर्ष है। यहां तक कि इस इलाके को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता था। अब केवल हम भारतीयपंथी ही इसे भारत कहते हैं पर विदेशी पंथिक विचाराधारा इसे इंडिया या हिन्दुस्तान कहकर हमें भरमा रहे हैं। हमारी हिन्दुत्ववादी विचाराधारा हमारा मूल संस्कार नहीं है न ही  हिन्दू राष्ट्र की कोई कल्पना है वरन् हमें विदेशी राजनीतिक पंथिक समूहों को हिलाने के लिये सब कहना पड़ता है।  हमारे यहां कर्म ही धर्म माना गया है। राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, शिक्षक का धर्म, शिष्य का धर्म। गीता के अनुसार मनुष्य का कर्तव्य ही धर्म है और करना कर्म।  दरअसल हम जिस पश्चिम धर्मनिरपेक्ष धारा को यहां लाये हैं उसकी यहां कोई आवश्यकता नहीं है। हमारे दर्शन के अनुसार  तो धर्मनिरपेक्ष मनुष्य तो तामसी होता है जो अपने कर्म से विमुख रहता है।
         हम भारतपंथी सात्विक हैं। विदेश राजनीतिक पंथिक विचाराधाराओं के भ्रम में फंस गये हैं। वह केवल अपनी पूजा पद्धति ही नहीं वरन् वहां के विचार, पहनावा तथा दूसरे की पद्धति से परे रहने की प्रवृत्तियां यहां भी चला रहे हैं। वह हिन्दुस्तानी या इंडियन दिखना चाहते हैं भारतीय कहते हुए उनका मूंह सूख जाता है।  वह यहां भीड़ में अपनी पहचान अलग रखते हुए कहते हैं कि संविधान को अलग पहचान नहीं करना चाहिये। उनके रहन सहन और पहनावे पर नज़र डालें तो पता लगा जायेगा कि यह विदेशी राजनीतिक पंथों के सैनिकों के रूप में हमारे सामने इतराते हैं और कहते हैं कि तुम स्वयं को भारतीय भी नहीं कह सकते। देखा जाये तो भारतीय दर्शन जिसे सुविधा के लिये  हम हिन्दू धर्म भी कहते हैं वह सात्विकता पर आधारित है और इनका शुद्ध राजसी है जो हमें बताते हैं कि हमने भारत बनाया है जबकि यह जानते ही नही कि भारत, भारती और भारतीयता है क्या?
इस समय देश में नागरिकता कानून पर विवाद चल रहा है।  विदेशों में रहने वाले कुछ प्रगतिशील हिन्दूओं को अपने धर्म पर शर्म आ रही है। आयेगी क्योंकि उन्होंने ढेर सारा अंग्रेजी साहित्य पढ़ लिया है और पश्चिमी विचाराधारा उनकी नज़र में श्रेष्ठ है। वह अगर भारतीय सत्य साहित्य का अध्ययन करते तो यकीनन वह कहते कि हमारा देश महान है।
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4/27/19

आंखें कहां पढें कान ज्ञानी बने अब-दीपकबापूवाणी (Ankhen kahan padhen kan gyani bane ab-DeepakBapuwani)


वह रोज नये रूप रचेंगे,
प्रायोजकं के संकेत पर नचेंगे।
कहें दीपकबापू चोर हो या सिपाही
पर्दे पर विज्ञापन से जचेंगे।।
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हर सामान पर नज़र हैं डाले,
वाणी धवल पर मन के हैं काले।
कहें दीपकबापू किससे बतियायें
सबकी आंखों पर लगे हैं जाले।।
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दया कभी भीख में न मिले,
ममता कभी सीख में न मिले।
कहें दीपकबापू करो पराक्रम ऐसा
कभी जो तारीख में मिले।
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किससे वफा की उम्मीद करें
सबके दिल में कातिल बसे हैं।
‘दीपकबापू’ किससे प्या जतायें
सबके जज़्बात बहुत कसे हैं।
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चिट्ठी लिखने का चलन नहीं अब,
आंखें कहां पढें कान ज्ञानी बने अब।
कहें दीपकबापू पत्थर दिल हुए
जज़्बात में जड़ता आ गयी अब।।
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जलती धूप में जलने का डर है,
भारी सर्दी में गलने का डर है।
‘दीपकबापू’ बैठे सोचते रहे तो
खोपड़ी चिंताओं का घर है।
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उम्मीद से बजाते सब अपना राग,
छिपाते कुर्सी पर बैठने से लगे दाग।
कहें दीपकबापू पर्दे से फेरो मुंह
जमीन पर बैठे खाओ रोटी राग।
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4/14/19

लड़ने पर आमादा होते चुन लेते अपना रंग-दीपकबापूवाणी (ladne par aamada hote chun lete apna rang-DeepakBapuwani)


किराये की भीड़ मंच के सामने है सजीं है, वक्ता के हर शब्द पर ताली है बजी।
‘दीपकबापू’ अर्थ रस हीन हो गयी सभायें, होता वही जो सौदागरों की है मर्जी।
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सत्ता के गलियारों में ढोंगियों की भीड़ खड़ी है, दावे वादे निभाने पर अड़ी है।
‘दीपकबापू’ मसखरी करते घूमते मंच पर, कुर्सी पाने की दिल में जिद्द बड़ी हैै।।
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अपनी दौलत भूल दूसरे पर नज़र डालते, मुफ्त की चाहत दिल में हमेशा पालते।
‘दीपकबापू’ महंगे पलंग पर भी रहें बेचैन, दूसरे के आराम की चिंता में सोच ढालते।।
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कभी हंस कभी रोए मन का बहुत बड़ा है खेल, मिलाओ तो मिले नहीं खुद करे मेल।
‘दीपकबापू’ स्वयं कर्ता का भ्रम पालते हम, दास बनकर स्वामी निकाल लेता तेल।।
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लड़ने पर आमादा होते चुन लेते अपना रंग, पता नहीं कब छोड़ दें किसका संग।
‘दीपकबापू’ महलों में रहने वाले परजीवी, अपने सुख बचाते हुए रहें सदा तंग।।
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सबके मन मचले मकान की है आस, वहां पत्थर बसेगा जहां आज है घास।
‘दीपकबापू’ अनमोल चरित्र बेचते रुपयों में, सच कुचल आगे बढ़ता है विकास।।
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देह में दम हो तो दूसरे का काम करें, रोज बीमारी से लड़ते हर पल दवा भी भरें।
‘दीपकबापू’ सर्दी में सिकुड़ते गर्मी में सदा जलें, वर्षा में उनके कदम कीचड़ से डरें।।

लोकतंत्र का नाम वादों का है लगा मेला, कहीं गठजोड़ कहीं देता है दगा अकेला।
‘दीपकबापू’ करते सबको समर्थन का वादा, गोपनीय मतदान में नहीं कभी लगा धेला।।
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हमसे बड़े संगत न करे हम छोटे से डरें, जिंदगी चले खुद किसका दम भरें।
‘दीपकबापू’ समय चलते दोस्तों के चेहरे बदले, यादों के भंडार में किसे धरें।।
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7/5/18

भ्रष्टाचार से लड़े आंखों में छाले हो गये-दीपकबापूवाणी (Bhrashtachar se lade-DeepakBapuWani

सूरज का तेज चंद्रमा की शीतलता जाने नहीं, भक्ति नाटकीय करें भाव माने नहीं।
‘दीपकबापू’ ढूंढते दिल की तसल्ली बरसों तक, पथरीली सोच में रखने के खाने नहीं।।
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कालाधन ढूंढते उनके चेहरे काले हो गये, भ्रष्टाचार से लड़े आंखों में छाले हो गये।
‘दीपकबापू’ दहाड़ते थे भीड़ में शेर जैसे, महल बने पिंजरे पहरेदार स्वर्ण ताले हो गये।।
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चला रहे हैं लिपिक चपरासी राजकाज, राजा बेकार कर रहा अपने नाम पर नाज़
‘दीपकबापू’ भगवान भरोसे जीते हैं सदा, प्रजा कोष लूट लेते सेवक हो जाते बाज़।।
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बिगाड़ दिया देह मन विचार का यंत्र, जाप रहे बैठे अब गुरुओं और किताबें के मंत्र।
‘दीपकबापू’ अपनी नाव जल में चलायी नहीं, बता रहे शिष्यों को जलधारा का तंत्र।।
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नयी रीति चली गूंगों के बहरे बनते सरदार, मधुर वाचकों से तोतले ज्यादा हैं असरदार।
‘दीपकबापू’ नाकाबलियत छिपाते चालाकी से, वफा के पाखंड में माहिर हो गये गद्दार।।
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क्या सवाल करें जो कभी जवाब देते नहीं, हमदर्द बने दर्द की दवा साथ लेते नहीं।
‘दीपकबापू’ हंसते हुए पूरी जिंदगी गुजारते, नेकी दरिया में डाल चिंता लेते नहीं।
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5/9/18

चंद हादसों से रास्ते बदनाम नहीं होते-दीपकबापूवाणी (Chand Hadson se raste Badnam nahin hote-DeepakBapuWani)

रुपहले पर्दे पर एक बार चेहरा दिखा, प्रसिद्ध जनसेवक फिर जमीन पर कहां टिका।
‘दीपकबापू’ मान अपमान का मोल लगाते, पूछें किसका ख्याल कितने में कहां बिका।।
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वानर जैसी पेड़ों पर नित उछलकूद करते हैं, व्यस्त होने का स्वांग रचते हैं।
‘दीपकबापू’ अपन बाजूओं पर भरोसा करें, मददगारों की चाहत से डरते हैं।।
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चंद हादसों से रास्ते  बदनाम नहीं होते, लालच की मस्ती में दूसरे काम नहीं होते।
‘दीपकबापू’ जनसेवकों में ढूंढते न भला, करें न वह सेवा जिसके दाम नहीं होते।।
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अपने लायक सभी तख्त तलाश करते, मिले आराम से रोटी सभी यह आस करते।
‘दीपकबापू’ चाहतों का जाल खुद बुनते, कभी गम कभी खुशी से उसमें वास करते।।
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अंतर्मन कर दिया बेरंग बाहर ढूंढते रंग, अच्छा बुरा देखकर नहीं करते कभी संग।
‘दीपकबापू’ समय बदलते हुए बहुत देखा, शीतलता बरसी कभी ताप ने किया तंग।।
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4/15/18

किश्तों में जिंदगी कटती है, कभी बढ़े कभी घटती है-दीपकबापूवाणी (Kishoton mein Zindagi Katti hai-DeepakBapuWani)


किश्तों में जिंदगी कटती है,
कभी बढ़े कभी घटती है।
कहें दीपकबापू पैसा शहद जैसा
जहां मिले वहां भीड़ फटती है।
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स्वयं बीमार पर भली दवा बांटे,
फूल लूटकर राहों में बिछाते कांटे।
कहें दीपकबापू दवाखाने में सोये
नींद में अपनी रेवड़ियां छांटे।।
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फरिश्ते कभी फरियादी नहीं होते,
रिश्ते बुरे हो पर मियादी नहीं होते।
कहें दीपकबापू भले कितने दिखें
पर सभी भलाई के आदी नही होते।
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झूठी वाणी धर्म ध्वजा पकड़े हैं,
त्यागी रूप धरे माया में जकड़े हैं।
कहें दीपकबापू सज्जन मुखौटा पहने
अपराधी सबसे अकड़े हैं।
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राजपद बैठे बाहें जरूर कसी हैं,
पर गुलामी तो रग रग में बसी है।
कहें दीपकबापू गरीब का नाम जपे
पर अक्ल अमीर जाल में फसी है।
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3/11/18

बनी जो मूर्तियां कभी टूट जायेंगी-दीपकबापूवाणी (murtiyan jo bani toot jaayengi-Deepakbapuwani)

सेठ कहलाते जरूर मगर कर्ज में डूबे हैं, महलों में बनाई बस्ती मगर मर्ज में ऊबे हैं।
‘दीपकबापू’ लूट की राह चलते है कमाने, अपनी भावी पीढ़ियों के फर्ज में मंसूबे हैं।।
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पर्दे पर प्रेरणा के नायक रोज बदलते हैं, विज्ञापन दर में उनके चेहरे ढलते हैं।
‘दीपकबापू’ राम कृष्ण जैसा किसी को माने नहीं, वही उनकी भक्ति में पलते है।।
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पहले मुश्किल को दावत देकर बुलाते, अपने हाथ में हल के लिये तलवारें झुलाते।
‘दीपकबापू’ मन बहलाना अब बंद कर दिया, भक्ति रस पिलाकर उसे रोज सुलाते।।
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बनी जो मूर्तियां कभी टूट जायेंगी, रगीन तस्वीरें अपने रंगों से कभी रूठ जायेंगी।
‘दीपकबापू’ अज्ञान के नशे में हुए चूर, पत्थरबाजों की आंखें भी जरूर फूट जायेंगी।।
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कपड़े जैसे मन बदले समझें नहीं धर्म, जिससे बने पहचान नहीं करते वह अपना कर्म।
‘दीपकबापू’ सब रिश्ते भुलाकर करते मौज, कामी पुरुष को देव मानते नहीं होती शर्म।।
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रोटिया पका लेते हमेशा भूख से ज्यादा, देशी र्लक्ष्मी के रहते विदेशी लाने का वादा।
दीपकबापू मूर्तियों पर सिमटा दी अपनी श्रद्धा, नारों में व्यापारी कल्याण का नहीं इरादा।।
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अपने घर में रोटी पर मक्खन लगाते, बाहर भूखे इंसान में क्रांति जगाते।
‘दीपकबापू’ दलालों पर यकीन नहीं करते, जो भलाई के सौदे हिस्सा पाते।।
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