कभी मन उदास हो जाता है
लगता है कहीं बैठकर उसे बहलाऊँ
प्यार से मैं सहलाऊँ
शरीर थकान से भरा लगता है
सोचता हूँ उसे आराम दिलाऊँ
आह भरता हूँ कि
कोइ मुझे सहलाए
कोइ अपने शब्दों से
मुझे तसल्ली दिलाये
कोइ पूछे दर्द मेरा
कोई मेरे खालीपन में
बहार बन कर छाये
आकाश की तरफ
आंख उठाकरदेखता हूँ एकटक
फिर सोचता हूँ
कोई मेरे लिए
अपने मन के दरवाजे
क्यों खोलेगा
मैंने किसे सहलाया है
मैंने किसे बहलाया है
अगर किसी के लिए
कुछ किया भी होगा
तो अपने स्वार्थों की
पूर्ती के लिए
मैं उठ कर खड़ा होता हूँ
चल पडता हूँ उस दलदल में
जहाँ से निकला आया था
सोचता हूँ जाऊं तो कहॉ जाऊं
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वहीं चलकर जाता हूँ
जहां मन ले जाता है
कोई उम्मीद नहीं है
कोई अरमान नहीं है
फिर भी चला जाता हूँ
मन को वश में करने की सारी
कोशिशें होती हैं बेकार
जितना करता हूँ
उतना उसका गुलाम हो जाता हूँ
इधर-उधर देखता हूँ तो
देखता हूँ सब फंसे हैं
मन के जंजाल में
उनको देखकर लगता है कि
फिर भी ठीक
कम से कम
मैं अपने मन से लड़ तो पाता हूँ
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भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
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*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
*----*
*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
1 comment:
मन् की बातें मान लिया करें कभी-कभी!
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