- भजन, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृति मनुष्य और पशुओं में ऐक समान होती है पर धर्म ही ऐक ऐसा विषय है जो दोनों को प्रथक करता है।
- समस्त प्राणियों को परलोक में अपनी सहायता के लिए धर्म का शनै:शनै: उसी प्रकार संचय करना चाहिए जैसे दीमक बांबी का संचय कर लेती है।
- पुराणों का मत है कि ईश्वर प्रसाद ही कर्मों का फल है और कर्ता को फल देकर ही रहता है
- मनुष्य की सात्विक प्रवृति को ही धर्म कहते हैं। मनीषियों का कथन है कि मन के द्वारा हे किया हुआ धर्म श्रेष्ठ है।
- सभी प्राणी जिस सुख की इच्छा रखते हैं वह धर्म से ही उत्पन्न होता है।
- धर्म का पालन करते हुए जो धन प्राप्त होता है वही सच्चा धन है
- अधर्म की आचरण से मनुष्य को जो विकास या वृद्धि दिखाई देती है वह क्षणिक होती है। मनुष्य अधर्म से विकास कि ओर बढ़ता दिखाई देता है और उसको इसमें कल्याण होता भी दिखता है। वह अपने शत्रुओं को भी परास्त करता है पर अंतत: स्वयं समूल नष्ट हो जाता है।
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
5 years ago
2 comments:
सरलता से प्रकट यह गूढ़ ज्ञान सबके लिए उपयोगी है। लेकिन शुद्ध "मक्खन" सब नहीं खा पाते। सिर्फ कृष्ण को ही हजम होता है। अतः जरा-सा मक्खन(गूढ़-ज्ञान) ब्रेड(कहानी-कविता) पर लगा-लगा कर दें तो सभी खा सकेंगे और हजम (आजमा) कर सकेंगे।
बहुत बढिया विचार प्रेषित किए है।
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