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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/5/07

हिंदी भाषा की आत्मा है देवनागरी लिपि

कुछ लोगों ने अगर यह तय कर लिया है कि वह हिंदी सहित देश की अन्य भाषाओं को रोमन में लिपि में लिखेंगे तो उसकी वजह उनका भाषा प्रेम तो हो ही नहीं सकता-भले ही वह उसका दावा करते हौं। भारत की अधिकांश भाषाओं की लिपि देवनागरी है और आम आदमी उसमें सहजता पूर्वक अध्ययन और लिखने का काम करता है। पर कुछ लोगों को अपने विद्वान होने का प्रदर्शन करने के लिए देवनागरी लिपि पर आपत्ति करना अच्छा लगता है और वह कर रहे हैं। मुझे इसकी संभावना चार वर्ष पूर्व ही लग गयी थी जब यह लगने लगा कि भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है।

एक समय था कि लोग कहते थे कि हिंदी में पढने-लिखने का कोई मतलब नहीं है क्यों कि उससे रोजगार नहीं मिल सकता। सबने विदेशों में जाकर रोजगार पाने के ख़्वाब संजोते हुए अंग्रेजी की तरफ दौड़ लगाई। तब हिंदी के एक सिरे से खारिज करने वालों को उसकी लिपि में दोष देखने का समय ही कहॉ था क्यों कि हिंदी गरीबों की भाषा थी। मैं जानता हूँ कि भाषा का जितना संबंध भाव से है उतना ही रोजी-रोटी से भी है। उस समय भी मुझे यह नहीं लगता था कि हिंदी भाषा या देवनागरी लिपि कोई अवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है और न आज लगता है। यह दुनियां कि इकलौती ऎसी भाषा है जो जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। जब विश्व में भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनने के तरफ अग्रसर है और उसके गरीब भी अब थोडा-बहुत पैसा रखने लगे हैं तब उसकी भाषा पर कब्जे की होड़ तो लगनी ही थी और जो लोग इसकी लिपि रोमन में देखना चाहते हैं उनके दो ही उद्देश्य हो सकते हैं ऐक तो उनको लगता है कि इससे उनको अच्छा व्यवसाय मिलने वाला है या फिर उनके मन में और हिंदी लेखकों को लिखते देखकर यह कुंठा हो रही है और वह सोचते हैं कि एक बार रोमन लिपि का मुद्दा उठा कर लोकप्रियता हासिल कर लें और फिर अपनी दूकान चाहे जिसमें चलाएँ।

मैं उनको रोकना नहीं चाहता पर इतना जरूर का सकता हूँ कि हिंदी को रोमन लिपि में पढने वालों की संख्या है पर ज्यादा नहीं है-कुछ ब्लोग लेखकों अगर यह लगता है कि उनके ब्लोग रोमन लिपि में पढते हैं तो दूर कर लें। खासतौर से इस संबंध में विदेशी लोगों का हवाला दिया जाता है-पर वहाँ ऐसे बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें हिंदी देवनागरी लिपि में पढ़ना नहीं आता होगा और वह इसमें दिलचस्पी लेते होंगे। उनकी मानसिकता में ही हिंदी होगी इसमें भी शक है। रोमन में हिंदी पढ़ना अपने आप में बिचारगी की स्थिति है। अभी मैने अपना चिट्ठा एक जगह रोमन लिपि में देखा था और मैं यह सोचकर खुश हुआ कि चलो जो इसे रोमन में पढने की चाहत रखने वाले भी पढ़ सकेंगे-क्यों कि उस पर मेरी कोई मेहनत नहीं थी और अगर कोई ऐक दो लोग पढ़ लेते हैं तो बुराई क्या है, पर मैं वहां से ज्यादा पाठक मिलने की आशा नहीं कर सकता।

ऐसा नहीं है कि रोमन लिपि में हिंदी पढने वाले नहीं मिल सकेंगे क्यों कि हमारे पडोसी देशों में फिल्मों की वजह से हिंदी समझने वालों की संख्या बहुत है और उनमें कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिंदी में लिखे को पढने में दिलचस्पी लें और इसमें खास तौर से पाकिस्तान और बंगलादेश के लोग हो सकते हैं, उसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के भी उनके सीमावर्ती देशों के लोगों को रोमन लिपि में पढ़ना अच्छ लग सकता है। पर अगर हम इसी मद्दे नजर अपने देश के पाठकों को नजर अंदाज करेंगे तो गलती करेंगे। हम यह मानकर भी गलती कर रहे हैं कि देश का पाठक तो केवल चौपालों पर ही आकर पढता है और बाहर जो पढ़ रहे हैं वह सब विदेशों के रहने वाले भारतीय है। इन चौपालों के बारे में देश के लोग बहुत कम जानते है और कंप्यूटर में इन्टरनेट पह हिंदी पढने वाले अपने रास्ते से हिंदी का लिखा पढते हैं। जिन्हें हिंदी में लिखने का मोह है और वह देव नागरी लिपि का ज्ञान नहीं रखते या असुविधा महसूस करते हैं उनके लिए रोमन लिखना स्वीकार्य हो सकता है पर वह कोई बड़ा तीर मार लेंगे यह गलत फ़हमी उन्हें नहीं पालना चाहिए, क्यों कि अंतत: हिंदी की लिपि देवनागरी है और वही आम पाठक तक आपको पहुंचा सकती है, एक बात और कि विदेशों में हिंदी का आकर्षण वहाँ की भारतीयों की वजह से कम इस देश की अर्थव्यवस्था के कारण है। इसलिये रोमन लिपि वाले अगर अपने लिखे से पैसा कमाने की ताक़त रखते हैं तो ख़ूब लिखें पर देश की भाषाओं का उद्धार करने की बात न ही करें तो अच्छा है। उसी तरह ब्लोगर भी यह भूल जाये कि उनको रोमन लिपि से कोई आर्थिक या सामाजिक लाभ होने वाला है। हिंदी को जो भी उर्जा मिलेगी वह इस देश के पाठक से ही मिलेगी-और यह नहीं भूलना चाहिए की हिंदी भाषा की आत्मा देवनागरी लिपि ही है।

4 comments:

संगीता पुरी said...

मैं भी आपकी बातों से सहमत हूँ . देवनागरी लिपि समझने वालों की कोई कमी है कि हमें रोमन लिपि में लिखना पड़े . बात सिर्फ़ इतनी है कि लोग अभी तक ये समझ ही नहीं पा रहे हैं कि देवनागरी लिपि में लिखा कैसे जाए . हमें जन जन तक ये बातें पहुँचनी होगी . तभी हिन्दी के प्रसार को बढाया जा सकता है , न कि रोमन लिपि के प्रयोग से .

संगीता पुरी said...

अच्छी जानकारी दी . अब पैसे कमाने कि कोशिश में लग जति हूँ . एक साथ दो दो कम हो जाए तो हर्ज क्या है .

संजय बेंगाणी said...

जिन्हे देवनागरी में लिखना आता नहीं वे ही रोमन की वकालत करते है. कहीं मजबुरी में रोमन लिपि का उपयोग करना पड़ता है. तो जरूरत है, मजबूरी को खत्म करना. न की लिपि ही खत्म कर दें.

यह सही है की भारत की बढ़ती ताकत हिन्दी को मजबुत करेगी.

अनुनाद सिंह said...

बहुत सही बात कही आपने कि "देवनागरी हिन्दी की आत्मा" है।

जार्ज बर्नार्ड शा सहित अनेक विद्वानों राय रख चुकें हैं कि रोमन वर्णमाला अंग्रेजी के लिये पर्याप्त नहीं है। फिर भी अंग्रेज लोग रोमन के साथ चिपके हुए ऐं तो उसका कुछ ठोस कारण तो होगा।

कहते हैं कि चीनी भाषा में हजारों अक्षर हैं। इसको चौदह वर्ष की उम्र से पहले सीख पाना बहुत ही कठिन है। कम्प्यूतर के इस जमाने में चीनी लोग उसी से क्यों चिपके हुए हैं?

अरबी आदि भाषायें दायें से बायें तरफ लिखीं जाती हैं। विग़्यान के इस युग में उनको कितनी असुविधा होती होगी? जी हाँ, वे बाकी सब दाये से बाये लिखते हैं और संख्यायें बायें से दायें। जरा सोचिये कितनी असुविदा झेलते हैं।

दूसरी तरफ अपनी देवनागरी है-सम्पूर्ण वैज्ञानिक नहीं तो ज्ञात सभी लिपियों में सर्वाधिक वैज्ञानिक तो है ही। इसके साथ ई भारतीय भाषाओं के लिये पूर्णत: उपयुक्त है। इस पर कुछ समझदार लोग इसे त्यागकर रोमन अपनाने की बात कर रहे हैं। कामधेनु को चोड़कर बकरी का दूध पीना चाहते हैं!

बिनोबा जी कोई इक्कीस भाषाओं के जानकार थे। उनका सपना था कि देवनागरी भारत की सम्पर्क लिपि बने। साथ ही विश्व की अवैग़्यानिक और जटिल लिपियों के स्थान पर इसे उपयोग कराने का वातावरण बनाने के पक्षधर थे। उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर "नागरी लिपि परिषद" बनी है जो देवनागरी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये तरह-तरह के उद्यम कर रही है। बिनोबा जी से प्रेरणा लेने के बजाय इस महानुभाव ने उनके प्रयत्नो के विपरीत प्रयत्न करते हुए "रोमन लिपि परिषद" बनाया है। कहाँ राजा भोज, कहाँ गन्गू तेली?

भारतीय जनमानस इस कृत्य की निन्दा ही नहीं करेगा बल्कि उनको कहीं भी मुँह नहीँ खोलने देगा, मुझे पूरा विश्वास है। भारतीय भाषाओं के लिये रोमन लिपि अपनाना तो बहुत दूर की बात है। यूनिकोड आने के बाद तो इस तरह का विचार कोई मूर्ख ही दे सकता है।

उनको पता नहीं कि यूनिकोड ने विश्व की सभी भाषाओं को सुविधा की दृष्टि से एक ही धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया ऐ।

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