अपने शब्दों से वह खेलते रहे
हम उनके अपना समझ कर
उनके ख़्वाबों में तैरते रहे
समय बीतते-बीतते वह
अजनबी से लगने लगे
गैरों की बोली हो गयी उनकी
उनकी हर बात को फिर भी
अपना समझ कर सहते रहे
छोड चले जब बिना इतला के
हम उन्हें जाते देखते रहे
जिन्दगी के खेल बहुत देखते हैं
शरीर पर लगे जख्म के निशाँ तो
कभी न कभी मिट जाते हैं
पर दिल कभी नहीं भूल पाता
उन जुर्मों को जो अपनों के सहे
भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
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*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
*----*
*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
1 comment:
सही कह रही है आपकी यह कविता । अपनों की दी चोट ही सबसे असहनीय होती है ।
घुघूती बासूती
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