अपने शब्दों से वह खेलते रहे
हम उनके अपना समझ कर
उनके ख़्वाबों में तैरते रहे
समय बीतते-बीतते वह
अजनबी से लगने लगे
गैरों की बोली हो गयी उनकी
उनकी हर बात को फिर भी
अपना समझ कर सहते रहे
छोड चले जब बिना इतला के
हम उन्हें जाते देखते रहे
जिन्दगी के खेल बहुत देखते हैं
शरीर पर लगे जख्म के निशाँ तो
कभी न कभी मिट जाते हैं
पर दिल कभी नहीं भूल पाता
उन जुर्मों को जो अपनों के सहे
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
5 years ago
1 comment:
सही कह रही है आपकी यह कविता । अपनों की दी चोट ही सबसे असहनीय होती है ।
घुघूती बासूती
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