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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/26/07

अपनी पहचान

अपनी पहचान बनाने के लिए
दिन रात किये जा रहे हम
पर कभी नही बन पाती
हम ओढे जाते गम
हमें लोग पहचाने
हमारा लोहा सब माने
हमारे नाम का डंका सब लगें बजाने
ऐसी ख्वाहिश में दौडे जा रहे हम
इतनी दूरी तय कर जाते
लगता है रास्ता है लंबा जिन्दगी है कम
दूसरे से अपने बारे में सवाल कर
मांगे जवाब
अपनी नजर से कभी अपने को नहीं देखते
दूसरे की आंखों में ढूंढते अपनी तस्वीर
हमारे मन में नहीं अपनी कोई पहचान
पहले अपने आप को ढूंढ ले
अपने से सवाल कर लें
अपनी तस्वीर देख लें
फिर ढूंढें बाहर निकलकर अपनी पहचान
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1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,आत्ममंथन करती रचना बहुत बढिया बन पडी है।बधाई।

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