अपनी पहचान बनाने के लिए
दिन रात किये जा रहे हम
पर कभी नही बन पाती
हम ओढे जाते गम
हमें लोग पहचाने
हमारा लोहा सब माने
हमारे नाम का डंका सब लगें बजाने
ऐसी ख्वाहिश में दौडे जा रहे हम
इतनी दूरी तय कर जाते
लगता है रास्ता है लंबा जिन्दगी है कम
दूसरे से अपने बारे में सवाल कर
मांगे जवाब
अपनी नजर से कभी अपने को नहीं देखते
दूसरे की आंखों में ढूंढते अपनी तस्वीर
हमारे मन में नहीं अपनी कोई पहचान
पहले अपने आप को ढूंढ ले
अपने से सवाल कर लें
अपनी तस्वीर देख लें
फिर ढूंढें बाहर निकलकर अपनी पहचान
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शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
5 years ago
1 comment:
दीपक जी,आत्ममंथन करती रचना बहुत बढिया बन पडी है।बधाई।
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