समाज में जो अंदरूनी तनाव है उसे कोई सीधे व्यक्त नहीं कर रहा है। जिन लोगों के पास धन-संपदा वह उसकी रक्षा के लिए जूझ रहा है और जिसके पास नहीं है वह अपने अभावों को जीते हुए जैसे-तैसे जीवन निर्वाह करते हुए अपने सामाजिक दायित्यों पूरे कर लेता है। मुख्य समस्या तो सबसे अधिक मुखर मध्यम वर्ग के साथ है। वह अपने को गरीब कहलाना नहीं चाहता और अमीरों की जमात में बैठने की उसकी औकात नहीं है।अपमान वह झेलना नहीं चाहता और सम्मान उसे मिलता नहीं है। इस समस्या का हल यह है की मध्यम वर्ग के लोग एक-दूसरे के साथ जुडे और यह स्वीकार कर लें कि उनको एक दूसरे का सम्मान और सहयोग करने का अलावा और कोई चारा नहीं है।
यह कहना आसान है पर जब जमीन पर देखते हैं तो कई ऐसे धार्मिक, सामाजिक, भाषाई और जातीय विभाजन है जिसकी सीमाओं को तोड़ने का साहस इस वर्ग में नहीं है-सत्य तो यह है कि वह इनकी पहचान का आरोप है। हमारे देश का आध्यात्म कहता है की देह नश्वर है पर इसी देह का सबसे अधिक अभिमान माध्यम वर्ग में ही है। हमारे देश में जन्म, मृत्यु और विवाह के कर्मकांड इतने कठिन बना दिए गए हैं कि उनके निर्वहन में मध्यम वर्ग अपना पूरा जीवन दे देता है पर उससे मुक्त नहीं होना चाहता-अपने पास आर्थिक सामर्थ्य होने के बावजूद वह इन पर खर्च करता है।
मिटटी की इस देह के मिटने के बाद भी जो चला गया उसके सम्मान में तेरहवीं और श्राद्ध की परंपरा किस तर्क पर आधारित है यह पता नहीं। शादी के लायक बेटा है तो उस पर इतना अहंकार कि उसका वर्णन करना कठिन है और बेटी है तो मध्यम वर्ग का आदमी गरीब ही हो जाता है। पहले उसे पढाये-लिखाये और गृह कार्य में दक्ष बनाये और फिर उसके दहेज़ के लिए पैसा एकत्रित करे। दो देह में मौजूद आत्माओं के मिलन के लिए कितने गीत होते हैं पर उससे पहले जो सौदेबाजी होती हैं वह व्यापार से कम नहीं होती। उस समय लगता है कि काहे की संस्कृति और काहे के संस्कार? सब ढकोसला है।
जो परिवार मध्यम वर्ग का है और उसका लड़का रोजगारशुदा है तो वह दहेज़ के लिए किसी धनी परिवार के रिश्ते का इन्तजार करता है। मध्यम वर्गीय पिता के लिए अपने वर्ग के ही किसी लडकी के पिता का बोझ हल्का करने के इरादे से दहेज़ की दर काम करने का उसका इरादा नहीं होता। इस तरह जिस मध्यम वर्ग को समाज का मजबूत आधार माना जाता है वही अपनी हालतों से जूझ रहा है।
यह आश्चर्य समाज में जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र तथा अन्य आधारों पर विभाजन हुआ है उनका नेतृत्व भले ही उसके उच्च वर्ग के लोगों के पास रहता है पर उसका अस्तित्व बनाए रखने में माध्यम वर्ग की भूमिका बहुत होती है, पर अब परंपराओं और रूढियों को बोझ वह जबरन ढो रहा है, इस आशा में कि वह इसकी आड़ में अपनी प्रतिष्ठा बढे और उसका उसे आर्थिक लाभ हो-और वह भी पुत्र का विवाह में धनी परिवार में हो यही संभावना होती है। कुछ लोगों को शायद होता भी हो पर उसका कोई स्थाई नहीं होता, पर इसके बावजूद माध्यम वर्ग अपने दिमागी तनाव से मुक्त नहीं होना चाहता।
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
4 years ago
2 comments:
बडी साफ़गोई से आपने अपने विचारों को रखा है, इसके लिये आप बधाई के पात्र हैं । मैं आपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ ।
अच्छा चित्र खींचा है आपने हम मध्यवर्गीय लोगों का।
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