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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/2/08

आज के कथित संत और भक्त प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं (सर्वशक्तिमान-३)

भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की और एक बार वहाँ से निकले तो फिर चल पड़े अपने जीवन पथ पर। फिर विश्वामित्र का सानिध्य प्राप्त किया और उनसे अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होने अपना जीवन समाज के हित में लगा दिया न कि केवल गुरु के आश्रमों के चक्कर काटकर उसे व्यर्थ किया। भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि संदीपनि से शिक्षा पाई और फिर धर्म की स्थापना के लिए उतरे तो वह कर दिखाया। न गुरु ने उन्हें अपने पास बाँध कर रखा न ही उन्होने हर ख़ास अवसर पर जाकर उनंके आश्रम पर कोई पिकनिक नहीं मनाई। अर्जुन ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और अवसर आने पर अपने ही गुरु को परास्त भी किया। आशय यह है कि इस देश में गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है जिसमें गुरु अपने शिष्य को अपना ज्ञान देकर विदा करता है और जब तक शिष्य उसके सानिध्य में है उसकी सेवा करता है। उसके बाद चल पड्ता है अपने जीवन पथ पर और अपने गुरु का नाम रोशन करता है।

भारत की इसी प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा का बखान करने वाले गुरु आज अपने शिष्यों को उस समय गुरु दीक्षा देते हैं जब उसकी शिक्षा प्राप्त करने की आयु निकल चुकी होती है और फिर उसे हर ख़ास मौके पर अपने दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कई तथाकथित गुरु पूरे साल भर तमाम तरह के पर्वों के साथ अपने जन्मदिन भी मनाते हैं और उस पर अपने इर्द-गिर्द शिष्यों की भीड़ जमा कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. यहाँ इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की भारतीय जीवन दर्शन में जन्मदिन मनाने की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जिसका पालन यह लोग कर रहे हैं.

भारत में गुरु शिष्य की परंपरा एक बहुत रोमांचित करने वाली बात है, पूरे विश्व में इसकी गाथा गाई जाती है पर आजकल इसका दोहन कुछ धर्मचार्य अपने भक्तो का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं वह उसका प्रतीक बिल्कुल नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में गुरु की आवश्यकता होती है और खासतौर से उस समय जब जीवन के शुरूआती दौर में एक छात्र होता है। अब गुरुकुल तो हैं नहीं और अँग्रेज़ी पद्धति पर आधारित शिक्षा में गुरु की शिक्षा केवल एक ही विषय तक सीमित रह गयी है-जैसे हिन्दी अँग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञानआदि। शिक्षा के समय ही आदमी को चरित्र और जीवन के गूढ रहस्यों का ज्ञान दिया जाना चाहिए। यह देश के लोगों के खून में ही है कि आज के कुछ शिक्षक इसके बावजूद अपने विषयों से हटकर शिष्यों को गाहे-बगाहे अपनी तरफ से कई बार जीवन के संबंध में ज्ञान देते हैं पर उसे औपचारिक मान कर अनेक छात्र अनदेखा करते हैं पर कुछ समझदार छात्र उसे धारण भी करते हैं.

यही कारण है कि आज अपने विषयक ज्ञान में प्रवीण तो बहुत लोग हैं पर आचरण, नैतिकता और आध्यात्म ज्ञान की लोगों में कमी पाई जाती है। इस वजह से लोगों के दिमाग में तनाव होता है और उसको उससे मुक्ति दिलाने के लिए धर्मगुरू आगे आ जाते हैं। आज इस समय देश में धर्म गुरु कितने हैं और उनकी शक्ति किस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। तमाम तरह के आयोजनों में आप भीड़ देखिए। कितनी भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस पर एक प्रख्यात लेखक जो बहुत समय तक प्रगतिशील विचारधारा से जुडे थे का मैने एक लेख पढ़ा था तो उसमें उन्होने कहा था की ''हम इन धर्म गुरुओं की कितनी भी आलोचना करें पर यह एक वास्तविकता है कि वह कुछ देर के लिए अपने प्रवचनों से तनाव झेल रहे लोगों को मुक्त कर देते हैं।''

मतलब किसी धार्मिक विचारधारा के एकदम विरोधी उन जैसे लेखक को भी इनमें एक गुण नज़र आया। यह आज से पाँच छ:: वर्ष पूर्व मैने आलेख पढ़ा था और मुझे ताज्जुब हुआ-मेरा मानना था कि उन लेखक महोदय ने अगर भारतीय आध्यात्म का अध्ययन किया होता तो उनको पता लगता कि भारतीय आध्यात्म में वह अद्वितीय शक्ति है जिसके थोड़े से स्पर्श में ही आदमी का मन प्रूफुल्लित हो जाता है। मगर वह कुछ देर के लिए ही फिर निरंतर अभ्यास नो होने से फिर तनाव में आ जाते हैं।

एक बात बिल्कुल दावे के साथ मैं कहता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति में बचपन से ही आध्यात्म के बीज नहीं बोए गये तो उमरभर उसमें आ नहीं सकते और जिसमें आ गये उसका कोई धर्म के नाम पर शोषण नहीं कर सकता। मैं स्वयं ही इस बात का उदाहरण देता हूँ। तमाम तरह के आध्यात्म ग्रंथ मैने बचपन में ही पढ़े और आज भी बड़ी रूचि के साथ पढ्ता हूँ। जब मेरी उम्र आठ साल थी तबा पडोस में रहने वाले एक पन्डित जी की बहू से मेरी माताजी ने पढ़ने के लिए तुलसीदास जी की श्री राम चरितमानस ली थी। मैं भी उसे पढ़ने लगा। मैने उसे धार्मिक भावना से नहीं कहानी की दृष्टि से पढ़ा। उसे कई बार पढ़ा। एक दिन पन्डित जी ने अपनी बहू से वह माँगी तो उसने उनको बताया की ''वह पडोस का लड्का है न वह उसे पढता है।''
उन्होने मुझे बुलाया और कहा'जब पढ़ लो तो वापस कर देना, पर इसको आदर से रखना। तुम इससे बहुत कुछ सीखोगे।''

फिर कभी उन्होने वह मुझसे वापस नहीं माँगी और जब हमने वह मकान खाली किया तब मैं उनको वापस कर आया, पर तब तक मेरे अंदर वह बीज अनुकुरित हो चुका था जिसकी कल्पना भी मैंने नहीं की थी। फिर तो मैने वाल्मीकि रामायण को पढ़ना शुरू किया और अपने जेब खर्च से मैं वह सब धार्मिक किताबें ले आया जो भारतीय अध्यात्म का आधार स्तंभ हैं। आज जब मैं किसी आध्यात्म विषय पर लिखता या बोलता हूँ तो अधिकतर लोग विद्वान होने का अहसास पाल लेते हैं। अब यह मैं नहीं जानता की ऐसा है कि नहीं पर मुझे अपने तर्क भी गढने की आदत भी है और में भी कभी-कभी ऐसे सत्संगों में जाता हूँ पर कुछ नया सुनने से अधिक कोई विचार नहीं आता. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि इतना ज्ञान तो मैं किताबों में पड़ चुका हूँ पर फिर भी वहाँ जाना मुझे अच्छा लगता है। इसलिए जब आज कल के तथाकथित बाबा लोग भारत के प्राचीनतम परंपरा के महिमा की बात करते हैं तो ऐसा लगता है की कोई ग्राहकों का समूह उनके सामने खड़ा है जिसे वह भारतीय आध्यात्म- जिसका कोई पेटेंट नहीं है- उसे बेच रहे हैं। वह हमेशा ही शिष्य को सिखाते रहते हैं और वह सीखता नहीं है और हर ख़ास मौके पर उनके दर्शन करने चला जाता है और वहाँ हर कोई अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट अपने धर्म का पालन करता है जिसका भारत की प्राचीन गुरु-परंपरा से कोई लेना-देना हो मुझे नहीं लगता। एक बात अपने निष्कर्ष के तौर पर कहना चाहता हूँ कि आज के तथाकथित गुरुओं को एकलव्य जैसा शिष्य चाहिऐ जो उनको आज के युग में अपना अंगूठा काटकर न भेंट करे-क्योंकि उससे उनकी आश्रम फाईव स्टार आश्रमों थोडे ही बन पायेगा- बल्कि दूसरों को अंगूठा दिखाकर जुटाए पैसे से उनको भेंट दे पर अर्जुन जैसा शिष्य नहीं चाहिए जो दुष्कर्म करने वालों का समर्थन करने पर उनका प्रतिवाद करे। इन संतो और भक्तों को पुरानी गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं है भले ही कितना भी बखान कर लें. (क्रमश:)

1 comment:

रवीन्द्र प्रभात said...

आजकल के बाबा लोगों की बात ही निराली है , सुंदर और सारगर्भित अभिव्यक्ति ! अछा लगा पढ़कर .

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