प्रत्येक आदमी की जो पहचान है वह उसकी जाति, धर्मा, भाषा, क्षेत्र से है और हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते। यह पहचान आखिर छिपाई कैसे जा सकती है? कहीं किसी विशेष पहचान के लोगों की बहुतायत है तो वहाँ अल्पसंख्या वाले अपने को कमजोर अनुभव करते हैं और कभी उनको इसके लिए जलील भी होना पड़ता है। इस पर तमाम तरह के बुद्धिजीवी लोग अपने ख्याल रखते हैं-'ऐसा नहीं होना चाहिए' 'यह ग़लत है' और 'इस अन्याय को रोकना चाहिए'। इसके साथ ही बड़ी-बड़ी बहस होती हैं। मगरा नतीजा धाक के तीन पात। ऐसे विवाद कोई किसी एक देश में होते हैं यह बात नहीं बल्कि ऐसे संघर्षों से पूरी दुनिया का इतिहास भरा पडा है।
बहस करना विचार व्यक्त करना अलग बात है और समस्या के हल के लिए ईमानदारी से काम करना अलग बात है। हम हर पहचान के आदमी को सम्मान देने की बात तो करते हैं पर क्या वह पहचान किसी वास्तविक धरातल पर दिखाईं देती हैं? कभी इस पर विचार नहीं करते। आख़िर हम अपनी दूसरों की पहचान को देखते ही क्यों हैं? कोई अमुक, धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र का आदमी है-इस बात पर नज़र डालते ही क्यों हैं? हम तय कैसे करते हैं और कोई हमारे बारे में कैसे तय करता है? हम परंपरा से अलग होकर यह क्यों नहीं कहते कि यहाँ किसी को उसकी वर्त्तमान रूप में प्रचलित पहचान से नहीं देखा जाना चाहिए। जब तक अपनी और दूसरों की वर्तमान प्रचलित पहचान के साथ चलेंगे तब तक समाज में विवाद और फ़साद कम नहीं होंगे। विश्व के किसी इलाक़े में बहुसंख्यक पहचान वाले अपने समूहों से कम त्रस्त नहीं होते पर उनका गुस्सा जब सामूहिक रूपसे उतरता है को उसका सबसे अधिक शिकार पृथक पहचान वाले अल्प संख्या वाले लोगों के समूह बनते हैं-पर इसमें आम आदमी नहीं बल्कि उन लोगों के समूह प्रमुख जिम्मेदार होते हैं क्योंकि जब अपने सदस्यों पर नियंत्रण नहीं रख पाते तब वह उनका ध्यान बंटाने के लिए ऐसे विवाद खड़े करते हैं ताकि अपने नेतृत्व की कमी छिपाने के लिए लोगों का ध्यान कहीं ओर लगाया जाये।हम कहते हैं कि लोगों को उसकी प्रचलित पहचान से मत देखो तो सवाल है की जब हम सबके मन में है यानि हमारे खून में है तो उससे अलग कैसे हुआ जा सहकता है।
पहले हम पाश्चात्य विज्ञान की बात कर लें। उसके अनुसार हम जो देखते, सुनते अनुभव करते हैं वह हमारे रक्त मे स्थापित हो जाता है और जब अवसर आता है तब वह स्वत सामने आता है। किसी का चेहरा और शब्द वैसे के वैसे ही नहीं हम आत्मसात करते वरन वह हमारे शरीर में मौजूद रक्त के कणों में वह सब विलीन हो जाता है। इसका आशय यह है यह जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की पहचान हमारे खून में होती है। उसका कोई भौतिक स्वरूप हमारी देह में नहीं होता. जब कान से शब्द सुनते, आँखों से दृश्य देखते और स्पर्श से अनुभव करते हुए वह पहचान हमारी बुद्धि में आती है।
उसी तरह हमारा दर्शन भी कहता है की हमारी इंद्रियाँ रूप, शब्द, स्पर्श, गंध और रस से ग्रहण करती हैं और वही देह में विकार भी पैदा करतीं हैं। हम अनेक बार तमाम तरह की पहचान के लोगों पर अन्याय के मसले पर मुखर होते हुए उनकी संज्ञा अपने आधार पर तय कर देते हैं। क्या वह एक वास्तविकता है? नहीं! यह एक भ्रम है। कम से कम हमारा दर्शन तो यही कहता है। मनुष्य देह में वह विकार हैं जो उसे अन्याय और दूसरे पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करते हैं। हमने कभी किसी के साथ अन्याय नहीं किया किसी और ने किया पर हम कभी नहीं करेंगे इसकी गारंटी कौन दे सकता है। गुण ही गुणों को बरतते हैं और जब हमारा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण ही नहीं है तो हम कैसे कह सकते हैं की 'उसने किया है और हमने किसी पर अन्याय नहीं किया"। कभी हम भी अपने अहंकार में आकर वह सब कर सकते हैं जो किसी और ने किया होता है।
हम बचपन से लेकर बड़े होते हैं-तब अपने माता-पिता और गुरुओं से ही समाज को विभाजित करने वाले शब्द सीखते हैं। कई तरीके की अच्छी और बुरी विचारधाराएँ उनके कथनों को सुनते हुए हमारी स्मृतियों में बस जातीं ऑरा हमा उनसे कभी अलग नहीं हो पाते और उनसे अलग होने के लिए हमें नया अध्ययन करने की आवश्यकता होती है पर उसका ना तो अवसर मिलता है और न आवश्यकता-इच्छा अनुभव होती है। समय अनुसार उस पर चलते जाते हैं। सिद्धांतों की बात बहुत करते हैं पर उससे अलग नहीं हो सकते इसलिए ऐसी बहसों में उलझ जाते हैं जो बाद में निरर्थक साबित होतीं हैं ।
कुल मिलाकर हमारे मन में समाज, व्यक्ति, भाषा, जाति, और भाषा को लेकर हमारे अंदर पूर्वाग्रह इस तरह स्थापित हो जाते हैं कि हम उनको अपनी पहचान समझने लगते हैं। जब तक इनसे मुक्त होने का मन नहीं बनाएँगे तब तक विभिन्न समाजों में द्वंद्व और विवाद बने रहेंगे यह अलग बात है कि कभी हम स्वयं इसका हिस्सा होंगे तो कभी बाहर बैठकर चर्चा करेंगे। (शेष फिर कभी)
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
4 years ago
3 comments:
दीपक जी, आप ने अपनें लेख में बहुत सही विचार प्रस्तुत किए हैं।यह बात बिल्कुल सही है कि पुर्वाग्रहों के कारण ही हम गलत दिशा में बढने लगते हैं।जिस कारण आपसी विवाद पैदा होते हैं।....अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
बहुत सही कहा ।
घुघूती बासूती
आपसे सहमत हूं।
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