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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/14/09

हिंदी दूसरों को कमाकर देती है, पर स्वयं गरीब रहती है-आलेख

अंतर्जाल पर हिंदी में सक्रिय कई ऐसे ब्लाग लेखक हैं जिन्हें लिखते हुए छह साल हो गये हैं। उन लोगों की प्रशंसा करना चाहिये कि उन्होंने अपने प्रयासों से हिंदी ब्लाग जगत को एक दिशा देने के लिये बहुत बड़ा काम किया है। इन ब्लाग लेखकों में कई हिंदी भाषा के विशारद हैं और उनकी विद्वता किसी को भी चिढ़ा सकती है। इसके बावजूद यह भी एक तथ्य है कि उनमें अनेक प्रकार के मतभेद हैं और इसी कारण होता यह है कि आज एक बात कह रहे हैं कल दूसरी बात कहने लगते हैं तब उनसे सीखने वाले ब्लाग लेखकों में मतिभ्रम हो जाता है।

दरअसल समस्या यह नहीं है कि हिंदी में लिखने वाले नहीं है या इच्छुक लोगों की कमी है। कुछ पुराने भावुक ब्लाग लेखक पहले विकिपीडिया और अब नाॅल पर लिखने के लिये अपीलें कर रहे हैं। उनकी अपीलों के कारण कारण कुछ ब्लाग लेखक कभी जिज्ञासावश तो कभी उत्सुकतावश वहां अपनी रचनायें और पाठ डाल देते हैं। इस लेखक ने भी कुछ पाठ इन पर रखे हैं। मगर कई ब्लाग लेखक विकिपीडिया और नाॅल पर लिखने के लिये की गयी अपीलों पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। ऐसे में बहस की दिशा समझ में नहीं आती। ऐसी ही एक बहस एक सुझाव आया है कि हिंदी के लिये सर्वर बनाया जाये। एक तरफ ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपने हिंदी प्रेम की वजह से विकिपीडिया में योगदान देते दूसरों से ऐसा करने का आग्रह करते हैं पर कुछ लेखक यह कहकर विरोध करते हैं कि विकिपीडिया और नाल विदेशी सर्वरों पर आधारित हैं और वह नियम बदलकर कभी हिंदी लेखकों का लिखा जब्त कर सकते हैं। समर्थक ब्लाग लेखक भी यह तर्क देते हैं कि अंतर्जाल पर लिखी गयी सामग्री की तो कोई भी नकल कर सकता है तो फिर विकिपीडिया के लिये लिखने में क्या बुराई है?
इस बहस से अलग विषय है हिंदी और देशी भाषाओं के सर्वर की। सच बात तो यह है कि हमारा देश न केवल अपने यहां बल्कि विदेशों के प्रचार माध्यमों मेंं भी अपना पैसा लगा रहा है। हिंदी के लिखने पढ़ने मेंं गूगल के योगदान पर अधिक क्या लिखना? उसके टूलों के कारण ही यहां हिंदी लिखी जा रही है। कुछ मुददे ऐसे हैं जिन पर बहस की गुंजायश नहीं है। जिस तरह भारत के पैसे ेसे विश्व में क्रिकेट चल रहा है वैसे ही अन्य प्रचार माध्यमों को भी इससे बहुत सारी सहायता मिल रही है। भारतीय केवल अपने देश में नहीं है बल्कि बाहर है। यही स्थिति पैसे की भी है। भारतीयों का पैसा कितना बाहर लगता है कोई नहीं जानता? अनेक भारतीय कंपनियां विदेशों में सक्रिय हैं और उनमें आम भारतीय निवेश करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत एक बहुत बड़ी आर्थिक ताकत है पर उसका उपयोग करने के लिये कुशल प्रबंधन का अभाव है और अंतर्जाल पर हिंदी लिखने के मामले में पिछड़ना इसी बुराई का एक हिस्सा भर है। केवल धन में ही नहीं तकनीकी दृष्टि से भी भारत कितना सक्षम है इस पर विस्तार से लिखना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है। फिर भी आखिर ऐसा क्या है कि हमारे पास हिंदी और देशी भाषाओं का सर्वर नहीं है।

प्रसंगवश याद आया। जब इंटरनेट शुरु हुआ था तब याहू के बारे में यह कहा गया कि उसकी स्थापना एक पुराने भारतीय अभिनेता ने की है। अनेक पाठकों को यह पता ही नहीं होगा कि यह भी एक विदेश में स्थित कंपनी ही है जिसका किसी भारतीय अभिनेता से संपर्क नहीं है-अंतर्जाल पर ढाई वर्ष से सक्रिय रहने पर इस ब्लाग लेखक को भी यही आभास बहुत समय तक रहा। याहू नाम का प्रचार कुछ इस तरह का है कि लोग आज भी इसे देशी समझते हैं और आम प्रयोक्ता अपना इमेल उसी पर ही बनाता है। इस लेखक ने भी गूगल पर तब ईमेल बनाया जब ब्लागस्पाट के ब्लाग के लिये उसकी आवश्यकता हुई। अंतर्जाल पर हिंदी के लिये समर्पित ब्लाग लेखक विकिपीडिया और नाॅल के लिये लिखने की अपील करते हैं इस पर आपत्ति करना तो ठीक नहीं है पर इसके प्रत्युत्तर में कुछ लोग बारबार यह सवाल उठाते हैं कि आखिर इतने सारी धनी और तकनीशियन होते हुए भी हिंदी या देशी भाषाओं का लेखन विदेशियों के सहारे क्यों हैं? तय बात है कि यहां के धनपतियों में आत्ममुग्धता की स्थिति है। यहां का धनपति विनिवेश करते ही पैसा कमाना चाहता है जबकि विदेशी विनिवेश योजना के साथ करते हैं और उनमें अपने देश और भाषा के लगाव भी अनुकरणीय होता है। यहां के धनपति क्रिकेट,फिल्म और टीवी चैनलों में पैसा लगा रहे हैं ताकि तत्काल पैसा कमाया जा सके। टीवी चैनलों की हालत यह है कि किस अभिनेता ने रात को किसी अभिनेत्री के कान में क्या कहा? इसे प्रमुख खबर बनाते हैं। देश में पैसा कमाने वाले बहुत हैं पर अच्छे प्रबंधक हैं यह कहना गलत होगा। ऐसे धनपति चाहे अपने फोटो और बयान कितनी बार ही अखबारों या टीवी चैनलों पर दिखा लें पर वह सेठ नहीं है। सेठ वह होता है जो अपने धन से समाज,भाषा और सामूहिक विकास के लिये धन देता है या प्रायोजन करता है। इस देश के धनपतियों और धार्मिक ठेकेदारों का उद्देश्य केवल मौजूद साधनों का दोहन करना होता है निर्माण नहीं ।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण है गंगा और यमुना का प्रदूषण। आप देखिये इन दोनों पवित्र नदियों के किनारे अनेक धार्मिक नगर हैं और वहां अनेक प्रकार के होटल और आश्रम हैं। अनेक धनपति समय समय पर वहां अपनी श्रद्धा दिखाने पहुंचते हैं तो अनेक साधु संतों ने वहां आश्रम बना लिये। मगर गंगा और यमुना दोनों ही प्रदूषित होती गयीं। क्या आपने सुना है कि किसी धनपति या प्रसिद्ध साधु ने इसके लिये कोई आंदोलन किया हो। कहने को बातें सभी करते हैं पर ठोस प्रयास किसी ने नहीं किया। समाज के शीर्षस्थ नेतृत्व का यह नकारापन जग जाहिर है। गंगा यमुना की संस्कृति के नारे लगते रहे पर वह दोनों मैली होती रहीं।

समाज और भाषा के शीर्षस्थ लोगों के नकारापन के कारण ही अनेक ब्लाग लेखक अपने हिंदी समर्पण की भावना के वशीभूत होकर ही विकिपीडिया और नाल में हिंदी भाषा के विकास के लिये लिखने की अपील करते हैं। यह अपील वह ब्लाग लेखकों से इसलिये करते हैं क्योंंकि वह उनको पढ़ते हैं पर हिंंदी सर्वर की बात करें तो धनपतियों और भाषा के ठेकेदारों को कहां इतना समय है कि वह इसके लिये सोचें। क्रिकेट,फिल्म और टीवी चैनलों पर उनके लिये इतना पैसा फैला है कि वह उनके दोनों हाथों से समेटा ही नहीं जाता। एक आम हिंदी भाषी ब्लाग लेखक को अंतर्जाल पर हिंदी लिखना अपना युद्ध लगता है जिसे सभी लड़ रहे हैं। फिर विकिपीडिया और नाल की बात ही क्या? ब्लाग स्पाठ और वर्डप्रेस के ब्लाग भी विदेशियों की ही देन है। कई बार ऐसा लगता है कि कितना ही अच्छा होता कि देश के धनपतियों और तकनीशियनों के समन्वय से ऐसे ही साफ्टवेयरों का निर्माण हुआ होता। विकिपीडिया और नाॅल की तरह कोई अपने देश के लोगों का बनाया मंच होता। वैसे नाल का प्रचार इतना है नहीं और विकिपीडिया पर अब हिंदी के लोगों की निर्भरता कम ही होती जा रही है। भारतीय विषयों पर अनेक समर्पित ब्लाग और वेबसाईट लेखकों ने भारतीय विषयों को अंतर्जाल पर चढ़ा दिया है। वैसे भी इस देश में लोग सर्च इंजिनों में शब्द डालकर ही अपने विषय ढूंढते हैं और कई जगह विकिपीडिया से पहले उनके ब्लाग या वेबसाईटें आ जाती हैं। फिर वर्डप्रेस,नारद,ब्लागवाणी, चिट्ठाजगत, हिंदी ब्लाग जगत और वेबदुनियां की भी भूमिका सर्च इंजिनों में बढ़ती दिख रही है। मुश्किल यही है कि पाठकों की कमी और धनार्जन न होना लेखक को प्रोेत्साहित नहीं कर पाता। ऐसे में शौकिया लेखक ही लिखते हैं। जब पाठकों के साथ लेखकों की संख्या भी बढ़ेगी तो नाल और विकिपीडिया पर लिखने वालों की संख्या भी बढ़ेगी।
निष्कर्ष यह है कि अंतर्जाल पर हिंदी स्थापित करने के लिये एक समग्र आंदोलन की आवश्यकता है जिसमें देश के धनपति,तकनीशियनों और लेखकों के साथ अन्य प्रचार माध्यमों के समन्वित प्रयास होने चाहिये। उससे पाठक संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी। हालांकि यह केवल कल्पना ही है। हां, जब हिंदी के पाठक बढ़ने लगे और धनपतियों को लगा कि उससे तत्काल-दीर्घकाल में नहीं-लाभ उठाया जा सकता है तो एक क्या दस हिंदी के सर्वर बन जायेंगे। शायद यह दुनियां की इकलौती भाषा है जो सभी को कमाकर देती है पर स्वयं गरीब बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि हिंदी से कोई कमा नहीं रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो गूगल हिंदी में लिखने वाले इतने बेहतर टूल नहीं लाता। यह क्रिकेट,फिल्म और टीवी चैनल हिंदी वालों से खूब कमा रहे हैं पर अपनी बढ़ती दौलत उन्हें अंध बना देती है और मातृभाषा उनको गरीब दिखाई देती है। कई तो कह भी देते हैं कि ‘आजकल हिंदी से काम नहीं चलता।’
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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1 comment:

संगीता पुरी said...

क्रिकेट,फिल्म और टीवी चैनल हिंदी वालों से खूब कमा रहे हैं पर अपनी बढ़ती दौलत उन्हें अंध बना देती है और मातृभाषा उनको गरीब दिखाई देती है ... बिल्‍कुल सही कहा ... वे चाहे तो इंटरनेट में हिन्‍दी की स्थिति एक दिन में सुधर सकती है ... पर उन्‍हें अपनी मात्भाषा की सेवा की क्‍या जरूरत है।

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