हिंदी में व्यवसायिक रूप से मौलिक तथा स्वतंत्र रचनायें लिखने का मतलब है कि अपने लिये ही लिखना। आज भी शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो हिंदी में गद्य लेखन को व्यवसायिक रूप से अपनाने का विचार करेगा। हां, स्वांत सुखाय कुछ लिख रहे हैं पर एक तो उनकी संख्या सीमित है दूसरा उनको प्रोत्साहन देने वाला कोई नहीं है। बड़ी विचित्र स्थिति है कि देश में अनेक किताबें हिंदी में प्रकाशित होती हैं और उनको पुरस्कार भी मिलते हैं पर आम पाठक की उनमें रुचि नहीं होती। आम पाठक जिस प्रकार की सामाजिक, जासूसी या अन्य सामग्री पढ़ता है उसे साहित्य नहीं माना जाता। इस देश में अनेक फिल्में बनी पर उनकी कहानियां भारतीय साहित्य का हिस्सा नहीं बनी। एक तयशुदा फार्मूले में बनने वाली फिल्मों ने देश में आम आदमी के अंदर डर और खौफ का माहौल ही पैदा किया। कहने वाले तो यही कहते हैं कि फिल्मों ने जिस तरह इस देश की मानसिकता को विकृतियां, कायरता और विलासी भाव का बनाया वह काम तो अंग्रेज भी नहीं कर सके। मगर यह अलग विषय है। हिंदी फिल्मों ने डटकर कमाई की पर इस समाज को कुछ दिया नहीं! हिंदी भाषा को तो कुछ भी नहीं दिया लेखकों को वह क्या देते?
फिल्म वालों के पास भी लेखक हैं पर उनका वहां क्या सम्मान है सभी जानते हैं। एक बात याद रखने वाली बात है कि लेखन ही ऐसा व्यवसाय है जहां व्यक्ति पैसे के साथ सम्मान भी चाहता है। जहां यह सोचकर उसका सम्मान न हो कि वह पैसा ले रहा है वहां लेखक अपनी आत्म अभिव्यक्ति के प्रति अपनी रुचि खोकर दूसरे के निर्देशों के अनुरूप अपनी रचना करता है और इस तरह वह समाज का दर्पण नहीं बल्कि किराये का दर्पण होकर रह जाता है।
समस्या यह नहीं है कि देश में हिंदी गद्य लेखकों की कमी है बल्कि प्रकाशक, फिल्म निर्माता और नाटककार चाहते हैं कि कोई फटेहाल बस्ता टांगे व्यक्ति उनके दरवाजे पर भीख मांगने केे अंदाज में खड़ा हो और उसकी रचना सस्ते मेें खरीद कर वह अपना नाम कर सकें-लेखन से अलग गतिविधियों के लिये प्रसिद्ध व्यक्तियों की रचनायें छापने के लिये हाथ जोड़े खड़े रहते हैं पर किसी आम लेखक को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचाने का काम कभी नहीं कर पाते। फिल्म बनाने वाले अपने लिये हीरो का अभिनय करने वाला कोई लड़का और प्रकाशक अपनी पुस्तकें बेचने के लिये जुगाउ ढूंढ लेते हैं पर हिंदी का लेखक ढूंढने के लिये वह कोई प्रयास नहीं करते। आप देखिये देश में इतने सारे हिंदी प्रकाशन हैं और साथ में फिल्मों में भी अनेक गीतकार और कहानीकार हैं पर कोई अपने बेटे या बेटी को हिंदी का लेखक नहीं बनाता। स्थिति यह है कि हिंदी फिल्मों में काम करने वाले लेखकों और गीतकारों के बेटे अपने माता पिता के संबंधों का लाभ उठाकर नायक, नायिका,निर्देशक और निर्माता तो बन जाते हैं पर कोई लेखक नहीं बनता। जिस लेखक के सहारे समाज को मार्गदर्शन करने वाली रचनायें बन सकती हैं उसका सम्मान कोई नहीं करना चाहता।
जिनके पास धन बल है वह अपने अहंकार में चूर हैं। लेखक की मांग है पर उसका पेट भरना कोई नहीं चाहता। फिल्मी हीरो हीरोईन बनने के लिये अनेक लड़के घर से भागते हैं पर कोई लेखक होने के लिये घर से नहीं भागता। अगर कोई भूला भटका लेखक फटेहाल बगल में बसता लटकाये प्रकाशकों या फिल्म निर्माताओं के द्वार पर पहुंच भी जाये तो उसके लिये यह संभव नहीं है कि उसकी बात पर गौर किया जाये। फिल्म हो या हिंदी प्रकाशन आज भी इसी इंतजार मेें कि कोई चपले चटकाता हुआ लेखक उनके पास आये पर इस बात को भूल रहे हैं कि अब रोटी कमाना आसान नहीं है और जिनके पास बाप दादों की पूंजी नहीं है ऐसे हिंदी में गद्य या पद्य लिखने वालों के लिये रोटी का लंबे समय तक इंतजार करना संभव नहीं है। इसलिये लेखन से इतर वह अपने व्यवसाय से कमाने के बाद ही लिखते हैं। उनके पास इतना समय नहीं है कि वह प्रकाशकों को या फिल्म निर्माताओं के घर चक्कर लगा सकें। उसी तरह पांच या दस रुपये के टिकट लगाकर पत्र पत्रिकाओं में रचनायें भेजने के लिये भी अब कौन तैयार होगा जबकि उनका जवाब नहीं आता। आज भी यह बेरहम शर्त सभी प्रकाशक लगाये बैठें है कि अगर आप अपनी अस्वीकृत रचनायें वापस चाहते हैं तो साथ में टिकट लगा लिफाफा भेजें। यह प्रकाशन आज भी पुरानी मानसिकता में जी रहे हैं। यही कारण है कि उनके प्रकाशन विज्ञापनों के कारण जीवित हैं न कि पाठकों के कारण।
कुछ पाठक इस लेखक के आलेख पढ़कर अक्सर यह कहते हैं कि आप अपनी रचनायें पत्र पत्रिकाओं को क्यों नहीं भेजते। वह अपना जवाब इस आलेख में ढूंढ लें। अंतर्जाल पर हिंदी पाठकों का आवागमन कम है पर आगे बढ़ेगा। आज की नयी पीढ़ी पूरी तरह इंटरनेट की तरफ जा रही है। हिंदी में लेखक कोई पेड़ पर नहीं टंगे जो मिल जायेंगे। इंटरनेट पर ब्लाग पर आगे लोग लिखेंगे-उनमें व्यवसायिक भी होंगे और शौकिया भी। आखिर मौलिक और स्वतंत्र लेखन करना कोई आसान काम नहीं है। अनुवादक ढेर सारे मिल जायेंगे क्योंकि उसमें त्वरित गति से पैसा मिलता है। कवितायें लिखने वाले तो लाखों हैं पर गद्य लेखकों का लगभग टोटा है। इंटरनेट पर लिखते हुए यह लगता है कि भले ही किसी पाठ को प्रकाशित होने वाले दिन दस लोगों ने पढ़ा पर कालांतर में वह लाखों लोग पढ़ेंगे और पढ़ते ही रहेंगे। पत्र पत्रिकाओं में एक दिन में लाखों लोग पढ़ते हैं पर फिर कोई नहीं पढ़ता। कहने वाले कह भी सकते हैं कि ‘इस लेखक के लिये अंगूर खटटे हैं पर सच बात तो यह है कि अंतर्जाल पर लिखने से यह विश्वास पैदा हुआ है कि लोगों की उन विषयों में रुचि है जिन पर यह लेखक लिख रहा है।
अभी भी अनेक लोग हिंदी ब्लाग में स्तरीय लेखन न होने की बात करते हैं पर सच बात तो यह है कि यहां ऐसा बहुत पढ़ने और देखने को मिल रहा है जो बाहर नहीं मिल रहा। आगे चलकर बहुत सारे नये और युवा लेखक आयेंगे और फिल्म और प्रकाशन जगत को यहां आकर ही अपने लिये रचनाकार तलाशने होंगे। कोई रचनाकार या लेखक पहले ही दिन व्यवसायिक नहीं हो जाता। हर आदमी पहले स्वांत सुखाय लिखना प्रारंभ करता है और अब जो लोग ऐसा करेंगे वह इंटरनेट पर ही करेंगे। अभी तो हिंदी पर अपनी रोटी सैंकने वाले ब्लाग लेखकों को रिजेक्टेट पीस समझ रहे हैं पर वह यह न भूलें कि ब्लाग जगत के विस्तार के साथ उनके संस्थानों पर भी यही शब्द लागू होेगा। हिंदी लेखक और प्रकाशन के बीच एक अहंकार की दीवार है जिसे गिरना ही होगा। अभी तक प्रकाशन जगत में यह अहंकार है कि वह सवौपरि है और किसी लेखक को आवाज देकर बुलायेगा नहीं तो लेखक भी अब लेखन पर निर्भर नहीं है और उसे अपनी चप्पलें चटकाते हुए घूमने की जरूरत नहीं है। शेष फिर कभी।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
दीपक जी,बहुत सही मंथन किया है।अच्छा आलेख है। लेकिन लगता है गलती से दो बार पोस्ट हो गया है। कृपया ध्यान दे।
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