पिछले दिनो उन योगाचार्य के मिलते जुलते चैहरे वाले एक पात्र को एक कार्यक्रम में प्रस्तुत किया गया। उसने योगाचार्य की फूहड़ नकल की। बेहूदे ढंग से आसन बताये तो कथित रूप से दवाओं का नाम लेकर विक्रय का अभिनय भी किया। बाद में उसका एक अभिनेता से मिलते जुलते चेहरे वाले पात्र से नृत्य में मुकाबला कराया गया जिसमें वह पराजित हो गया। इस तरह कार्यक्रम निर्माता ने योगाचार्य और भारतीय योग साधना के प्रति हास्य के भाव को संतुष्ट किया। केवल यही कार्यक्रम नहीं है। अनेक धारावाहिकों में भी वाम देव और शामदेव-योगाचार्य से मिलते जुलते नाम-के नाम से पात्र सृजन कर उनके श्रीमुख और अभिनय से योग साधना का मजाक उड़ाया जाता है। यह हास्य नहीं बल्कि एकदम फूहड़ता है। इसमें व्यंग्य की अनूभूति तो कतई नहीं की जा सकती है क्योंकि वह हमेशा व्यंजना विधा में होता है।
वैसे समस्या यह भी हो गयी है कि लेखकों, कलाकारों, कवियों और चित्रकारों, कार्टूनिस्टों की कल्पना शक्ति अब प्रखर नहीं रही है। जिसे देखो वही समाज की ऊंचाई पर विराजमान पात्रों पर लिखना, बोलना और उनको चित्रित करना चाहता है। देखा जाये तो आज के सभ्य समाज में हर जगह ऊंचाई पर पहुंचा व्यक्ति नीचे से ही ऊपर जा रहा है इसलिये उसके गुण और दोष समाज का ही हिस्सा है-मतलब यह कि वह समाज के निचले और मध्यम तबके में भी मौजूद हैं। एक तरह से यह माने कि भारत का बौद्धिक वर्ग यह मानकर चल रहा है कि समाज के निचले तबके में कोई हास्य व्यंग्य या सामाजिक मूल्यों वाली कहानी तो हो ही नहीं सकती यही कारण है कि वह ऊंचे तबके को इंगित करते हुए उस पर व्यंग्य और आलेख लिख रहा है-यह भी कह सकते हैं कि कि उनका विज्ञापन कर रहा है। ऐसे में बाबाओं पर भी अगर कुछ व्यंग्यात्मक बनता है तो उसे यह बौद्धिक वर्ग उसे कतई नहीं छोड़ता।
इस तरह के व्यंग्यात्मक कार्यक्रमों पर इसलिये आपत्ति नहीं की जा रही कि भारतीय अध्यात्मिक विषय के प्रति हमारी कोई ऐसी प्रतिबद्धता है जो अंधा बना देती है जिससे आदमी हर अच्छी चीज को भी नकार देता है। सवाल तो यह उठाया जा रहा है कि टीवी चैनल और फिल्म निर्माता अपने हर कार्यक्रम में समाज को संदेश देने का दावा करते हैं पर वह योगाचार्य पर हास्य कार्यक्रम कर उनके द्वारा दिये जा रहे योग साधना के संदेश में क्या भ्रम पैदा नहीं कर रहे? क्या इस तरह वह कुछ लोगों के योग के प्रति अरुचि का भाव पैदा नहीं होगा?
सच बात तो यह है कि योगाचार्य पर हास्य कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले योग के विषय में कुछ नहीं जानते यह बात यह लेखक दावे से कह सकता है। जो व्यक्ति योग साधन करेगा वह कभी ऐसे विषय पर न तो व्यंग्य लिखेगा न ही कोई ऐसी रचना करेगा जिससे लोग उससे विरक्त हों। पता नहीं योगाचार्य के शिष्य ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं या नहीं। अगर देखते होते तो जरूर आपत्ति प्रस्तुत करते-हालांकि यह भी संभव है कि उनके शिष्यों ने यह सोचा हो कि चलो इस बहाने योगाचार्य जी का नाम तो हो रहा है। मुख्य विषय यह है कि इस तरह योगसाधना मजाक का विषय नहीं है।
अस्पतालों के बाहर जाकर देखिये कितनी भीड़ है। जहां जाईये वहीं लोग शारीरिक और मानसिक बीमारियों से ग्रसित हैं। अगर आप हमसे पूछें कि ‘आप योग साधना क्यों करते हैं?’
हमारा जवाब होगा-‘डाक्टर के पास न जाना पड़े इसलिये!
एक नहीं ऐसा अनेक उदाहरण हम आपको बता सकते हैं जिसमें रोगी से आदमी योगी होकर एक तरह से तर गया। एक व्यक्ति को छहः वर्ष पूर्व उच्च रक्तचाप की शिकायत हुई थी। उसने हमारे साथ ही योगसाधना शुरु की। उसका कहना है कि ‘अब मैं कहां चल रहा हूं, यह तो योगसाधना है जो चला रही है।’
यह मामला धार्मिक आस्थाओं की रक्षा से नहीं बल्कि सामाजिक प्रतिबद्धताओं से जुड़ा है जिसका दावा टीवी धारावाहिकों के निर्माता और निर्देश करते हैं। क्या उनको लगता है कि योग साधना एक मजाक की चीज है? अगर हां, कहते हैं तो उनकी बुद्धि पर तरस आयेगा। कहने को तो योगाचार्य के एक डुप्लीकेट हैं जो वास्तव में योगसाधना सिखा रहे हैं पर उन पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता क्योंकि उनका काम गंभीरता से भरा हुआ है।
हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि आप गलत इलाज से मरीज को और बीमार करने वाले प्रसंगों पर अपनी रचना या कार्यक्रम क्यों नहीं करते? इसके एक नहीं अनेकों उदाहरण यह लेखक अपनी आंखों से देख चुका है। पांच वर्ष पूर्व जब यह लेखक बीमार हुआ था तब डाक्टरों ने इतने टेस्ट करा लिये कि उनकी याद आते ही ऐसा लगता है कि अभी पद्मासन में बैठ जाये। हां, एक होम्योपैथी के डाक्टर ने जरूर हमारे पर्चे पर लिखा था ‘हाइपर एैसिडिटी’ मगर मधुमेह तथा अन्य बीमारियों के परीक्षण के बाद। एसा नहीं कि उसके बाद लेखक बीमार नहीं पड़ा पर बुखार और सिरदर्द जैसी बीमारियों का इलाज उसी योग साधना से किया जिसका मजाक वह लोग उड़ाते हैं।
बहरहाल योगाचार्य के चेहरे और नाम के आसरे हास्य बेचने वाले धारावाहिक निर्माताओं को पहले योगसाधना सीखना और करना चाहिये। वह जिस तरह का फूहड़पन योगाचार्य की आड़ में प्रस्तुत कर रहे हैं उससे बचने का उनके पास यही एक मार्ग है। सवाल धार्मिक आस्था से नहीं बल्कि उन निर्माताओं की स्वघोषित सामाजिक प्रतिबद्धता से जुड़ा है जिसका वह दावा करते हैं। हमें इस बात पर गुस्सा नहीं आता कि वह योगाचार्य पर हास्य क्यों प्रस्तुत कर रहें हैं बल्कि इस बात की चिंता होती है कि वह इस तरह योगसाधना को बदनाम कर समाज को उससे विरक्त न कर दें। यहां यह भी बता दें कि यह लेखक उन योगाचार्य का शिष्य नहीं है पर योग साधना के प्रति अपने अनुभव के कारण लगाव है और यह दावा भी कि ‘जीवन जीने की कला है योगसाधना’।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
सत्य वचन कहे आपने। इन्हें हर किसी की खिल्ली उडाने की इजाजत किसने दी।
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