समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/1/09

सामाजिक गुलामी से मुक्ति के बिना पूर्ण आजादी का अधूरा सपना-आलेख

अगर किसी समुदाय का एक जोड़ा अपने किसी दूसरे समुदाय की रीति के अनुसार विवाह करता है तो क्या उस समुदाय के गुरुओं या शिखर पुरुषों को उसके विरुद्ध बयान देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है? क्या यह स्वतंत्र रूप से किसी को अपना जीवन स्वतंत्र रूप व्यतीत करने के अधिकार को चुनौती नहीं देता?
एक छोटी घटना पर बड़ी प्रतिक्रिया होती है तो बड़े सवाल भी उठते हैं। प्रसंग यह है कि एक ही समुदाय के गैर हिंदू जोड़े ने हिंदू रीति से विवाह किया। इस पर उस समुदाय के गुरुओं ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि उनका विवाह उनकी पवित्र पुस्तक के अनुसार मान्य नहंी है! क्या किसी भी समुदाय के गुरु को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उसके हर सदस्य के व्यक्तिगत मामले में सार्वजनिक हस्तक्षेप करने वाले बयान जारी करे?
यह एक सामाजिक प्रश्न है पर मुश्किल यह है कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ ही सामजिक गतिविधियेां के मसीहा भी अपने राजनीतिक विचारों से अपने दृष्टिकोण रखते हैं। अगर कोई घटना धार्मिक या सामाजिक है तो सभी सक्रिय संगठन अपनी प्रतिबद्धता, लोगों की जरूरतों और समस्याओं से अधिक अपने पूर्वनिर्धारित वैचारिक ढांचे में तय करते हैं। अगर हम इस घटना को देखें तो केवल वही संगठन उस जोड़े को समर्थन देंगे जो अपने समुदाय की परंपराओं की प्रशंसा इस घटना में देखते हैं और उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में उनके प्रतिद्वंद्वी संगठन खामोश रहेंगे या फिर कोई अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे जिससे अपने समुदाय में उनकी अहमियत बनी रहे।
सवाल यह है कि कोई हिंदू जोड़ा गैर हिन्दू तरीके से या कोई गैरहिन्दू हिन्दू तरीके से विवाह करता है तो उसे सार्वजनिक रूप से चर्चा का विषय क्यों बनाया जाना चाहिए? क्या यह जरूरी है कि देश के बुद्धिजीवी जब सामाजिक विषयों पर लिखें तो हर घटना को अपने अपने राजनीतिक चश्में से ही देखें? क्या यह जरूरी है कि सामाजिक विषयों पर केवल राजनीतिक विषयों पर ही लिखने वाले अपने विचार रखें। क्या शुद्ध रूप से किसी सामाजिक लेखक को इसका अधिकार नहीं है कि वह ऐसे मसलों पर लिखे जिनका जानबूझकर राजनीतिक करण किया गया हो या लेखकों ने यह अधिकार स्वयं ही छोड़ दिया है।

यह घटना तो इस आलेख में केवल संदर्भ के लिए उपयोग की गयी है पर मुख्य बात यह है कि हर व्यक्ति को-चाहे वह किसी भी समुदाय,जाति,भाषा या क्षेत्र का हो- अपनी दैनिक गतिविधियों के स्वतंत्र संचालन के राज्य का संरक्षण मिलना चाहिये क्योंकि वह देश की एक इकाई है मगर समाजों को संरक्षण देने की बात समझ से परे है। संरक्षण की जरूरत व्यक्ति को है क्योंकि वह उसका अधिकारी है-राज्य द्वारा दिये जाने वाले करों को चुकाने के साथ वह मतदान भी करता है-पर समाजों को आखिर संरक्षण की क्या जरूरत है?
हम एक व्यक्ति को देखें तो उसको समाज की जरूरत केवल शादी और गमी में ही होती है बाकी समय तो वह अकेला ही जीवन यापन करता है। समाज की उसके लिये कोई अधिक भूमिका नहीं है। वैसे भी हम इस देश में जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के आधार पर बने समाजों को देखें तो उनके स्वाभाविक रूप से बने संगठन उनके लिये अपनी भूमिका हमेशा नकारात्मक प्रचार में ढूंढते हैं। संगठन पर बैठते हैं धनी, उच्च पदस्थ या बाहूबली जिनके भय से आम आदमी दिखावे के लिये उनका समर्थन करता है। इसी का लाभ उठाते हुए ही इन संगठनों के माध्यम से समाजों पर नियंत्रण का प्रयास किया जाता है। यह केवल आज की बात नहीं बल्कि सदियों से होता आया है इसलिये ही जिस समाज के लोगों के हाथ में सत्ता रही वह अन्य समाजों को दूसरे दर्जे का मानते रहे। परिणामस्वरूप इस देश में हमेशा संघर्ष रहा।
आजादी के बाद भी समाजों को संरक्षण देने के लिये राज्य द्वारा प्रयास किया गया। यह प्रयास भले ही ईमानदारी से किया गया पर इसका जमकर दुरुपयोग हुआ। समाज को नियंत्रित करने वाले संगठनों के शीर्ष पुरुषों ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि वह मिलकर रहें उल्टे वह आपस में लड़ाते रहे। मजे की बात यह है कि आम लोगों को आपस में लड़ाने वाले इन शीर्ष पुरुषों में कभी आपस में सीधे संघर्ष हुआ इसकी जानकारी नहीं मिलती।
कहा जाता है कि बिटिया सांझी होती है। आदमी अपने शत्रु की बेटी का नाम भी कभी सार्वजनिक रूप से नहीं उछालता। इस प्रसंग में देखा गया कि लड़के के साथ लड़की का नाम भी उछाला गया जो कि किसी भी समुदाय की मूल पंरपराओं को विरुद्ध है। नितांत एक निजी विषय को सार्वजनिक रूप से उछालना कोई अच्छी बात नहीं है। जहां तक किसी गैर हिन्दू जोड़ द्वारा हिन्दू रीति से विवाह करने का प्रश्न है तो पाकिस्तान में कुछ समय पूर्व एक ऐसी शादी हुई जिसमें पूरा परिवार शामिल हुआ। तब वहां पर उनके समुदाय की तरफ से ऐसा कोई विरोध नहीं आया पर भारत में तो सभी समुदाय के शीर्ष पुरुषों ने मान लिया है कि उनका हर सदस्य उनकी प्रजा है। यह शीर्ष पुरुष आपस में ऐसे बतियाते हैं जैसे कि वह पूरे समुदाय के राजा हों।
राज्य के समाजों को संरक्षण का यह परिणाम हुआ है कि उनके शीर्ष पुरुष आम आदमी को अपनी संपत्ति समझने लगे हैं।

सच बात तो यह है कि जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर बने कथित संगठन किसी अहम भूमिका में नहीं है पर प्रचार माध्यमों से मिलने वाला उन्हें जीवित रखे हुए है। पुरानी पीढ़ी के साथ नयी पीढ़ी भी कथित सामाजिक नियमों उकताई हुई है। अंतर यह है कि पुरानी पीढ़ी के लिये विद्रोह करने के अधिक अवसर नहीं थे पर नयी पीढ़ी को किसी चीज की परवाह नहीं है। सारे समाज अपना अस्तित्व खोते जा रहे पर उनके खंडहर ढोने का प्रयास भी कम नहीं हो रहा। मुश्किल यह है कि लोगों के निजी मामलों में इस तरह सार्वजनिक दखल रोकने का कोई प्रयास नहीं हो रहा। इसके लिये कानून बने यह जरूरी नहीं पर समाज के निष्पक्ष और मौलिक चिंतन वाले लोगों को चाहिए कि वह दृढ़तापूर्वक सभी समुदायों के शीर्ष पुरुषों पर इस बात के लिये दबाव डालें कि वह लोगों के निजी मामलों में दखल देने से बचें। वह किसी के साथ गुलाम जैसा व्यवहार न करें। यहां किसी विशेष समुदाय को प्रशंसा पत्र नहीं दिया जाना चाहिये कि वह अन्य से बेहतर है क्योंकि ऐसी अनेक घटनायें हैं जिससे हर समाज या समूह पर कलंक लगा है।
इस कथित सामाजिक गुलामी से मुक्ति के लिये निष्पक्ष और मौलिक सोच के लोगों को अहिंसक प्रचारात्मक अभियान छेड़ना चाहिये। जो लोग समाजों को अपनी संपत्ति समझते हैं वह इसलिये ही आक्रामक हो जाते हैं क्योंकि उनको दूसरे समूहों के अपनी तरह के ही शीर्षपुरुषों का समर्थन मिल जाता है। कभी कभी तो लगता है कि वह अपने अपने समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये ही नकली लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में राज्य से हर व्यक्ति को जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर संरक्षण तो मिलना चाहिये पर समाज के संरक्षण से बचना चाहिए। उनके आधार पर बने संगठनों को लोगों के निजी मामलों से रोकने का प्रयास जरूरी है। इस तरह की सामाजिक गुलामी समाप्त किये बगैर देश में पूर्ण आजादी एक ख्वाब लगती है। राज्य या कानून से अधिक वर्तमान समय में युवा और पुरानी पीढ़ी के निष्पक्ष, स्वतंत्र और मौलिक लोगों के प्रयासों द्वारा ही अहिंसक, सकारात्मक और दृढ़ प्रयास कर ऐसे तत्वों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
................................................
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

No comments:

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें