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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/5/09

पूरे समाज को मूर्ख समझने की प्रवृत्ति-आलेख (hindi article)

हम अगर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की बात करें तो उसका सबसे बड़ा सूत्र हैं कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ इसका आशय है कि जो हमारी इंद्रियों का जो कार्य है वही उसका गुण भी है। कान का काम है सुनना तो वह सुनता है। आंख का काम देखना तो वह देखती हैं। अब सवाल यह है कि हम कौनसी वस्तु देखते हैं या कौनसा सुर सुनते हैं यह हालत के अनुसार तो है पर हमारे अंदर मौजूद इच्छायें भी इसके लिये जिम्मेदार हैं। यह इच्छायें मन में पैदा होती हैं जिसका संचालन बुद्धि से होती है और बुद्धि वैसी होती है जैसे हमारा खान पान और रहन सहन होता है।
बहरहाल यह तो केवल एक चर्चा की गयी। हमारा मुख्य उद्देश्य तो यह देखना है कि जिसे तत्वज्ञान हो जाता है वह बहस आदि से दूर रहकर केवल सार्थक चर्चाओं में अपना समय व्यतीत करते हैं और उनमें अहंकार कदापि नहीं रह जाता। कम से कम वह पूरे समाज को अज्ञानी नहीं समझते।
दरअसल समलैंगिक मुद्दे पर जिस तरह भारतीय अध्यात्म ज्ञान के कथित आधुनिक पुरुष बहस में भाग ले रहे हैं उससे तो यही लगता है कि उन लोगों ने तत्वज्ञान को रट लिया है पर धारण करने से परे हैं।
अगर समलैंगिक को कानूनी मान्यता मिल गयी तो जैसे देश के सारे युवक युवतियां इसी में लग जायेंगे-अगर यह कोई भय व्यक्त करता है तो न वह केवल तत्वज्ञान से अनभिज्ञ है बल्कि नंबर एक का ढोंगी है।
पूरा समाज! क्या बात करते हैं यह लोग? यह सही है कि इस देश के लोग भौतिक उपलब्धियेां के पीछे अधिक लगे हैं पर इसका मतलब नहीं है कि सभी मूर्ख हैं। समलैंगिकता के पक्षधर तो वह लोग हैं जिनके पास अधिक मात्रा में धन और सुविधाऐं हैं और शरीर से कम श्रम के कारण उनका दिमाग आलसी हो जाता है और फिर उसमें उल्टे सीधे विचार आते हैं। 110 करोड़ के इस देश में ऐसे लोगों की संख्या अगर एक लाख भी हो तो बहुत समझो जो समलैंगिक जीवन बिताने को तत्पर होंगे।
हमें अन्य धर्म के ठेकेदारों से कोई मतलब नहीं है पर भारतीय अध्यात्म के ठेकेदार ऐसी बात करें तो उन पर तरस आता है।
श्रीगीता में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चार प्रकार के भक्त होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। इसका आशय यह है कि समाज में चार प्रकार के लोग रहेंगे ही चाहे जैसी भी हालत हो।
इधर प्रचार माध्यमों को अपने कार्यक्रम जारी रखने के लिये कुछ न कुछ मुद्दा चाहिये। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इन प्रचार माध्यमों को जीवन बनाये रखने के लिये अनेक प्रकार के मुद्दे बनाये जाते हैं। ऐसे में सामाजिक मुद्दे उठाकर धार्मिक नेताओं को बुलाया जाता है। एक बात यहां याद रखने की है सामाजिक मुद्दों पर धार्मिक ज्ञानियों को बोलना ही नहीं चाहिये क्योंकि अगर समाज गलत रास्ते पर है तो वह अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण है पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह उससे शून्य है। वैसे अगर यह धार्मिक ज्ञानी बोलते हैं तो उनसे पूछा जाना चाहिये कि क्या उनके शिष्य इस राह पर चले जायेंगे? अगर नहीं तो उसकी इनको चिंता क्यों है? फिर यह भी उनसे पूछा जाना चाहिये कि आप जब बरसों से सक्रिय हैं तो फिर भी यह आशंका बनी हुई है कि समाज समलैंगिक हो जायेगा तो क्या आपकी नाकामी नहीं है? ऐसा लग रहा है कि कुछ धार्मिक और अध्यात्म के शिखर पुरुष कैमरे के सामने आने के आदी हो चुके हैं और उनको ऐसा लगता है कि वह हर विषय पर बोलने के लिये अधिकारी हैं या कहें कि वह अपने आपको ब्रह्मा समझने लगते हैं। उनका अहंकार उनके सिर चढ़कर बोलता नजर आता है जो कि अज्ञान का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है।
वह इस तरह बात करते हैं जैसे कि समाज उनके लिये कोई पालतू पशु है जिसे वह चाहे जो चारा खिलायें उसे ही अच्छा समझे। मजे की बात यह है कि वह ऐसे लोगों को ज्ञान दे रहे हैं जो कभी समझेंगे ही नहीं। वह देह भक्तों के समक्ष श्रीगीता के उस ज्ञान को प्रस्तुत करते हैं जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि केवल उनके भक्तों को ही दिया जाना चाहिये।
चाहे कोई भी कितना तत्वज्ञानी क्यों न हो अगर वह इस तरह सभी लोगों को अज्ञानी और मूर्ख समझता है तो यह उसकी अज्ञानता का प्रमाण है। बुद्धि सभी में है पर अगर सही ढंग से समझाया जाये तो बात बन जाती है। जिस तरह धर्माचार्य हल्के विषयों पर बहसों में भाग लेते हैं उससे उनकी पोल देश के सामने खुल जाती है और उनके प्रति नकारात्मक संदेश जाता है।
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1 comment:

अनिल कान्त said...

अच्छा लगा आपका लेख ....

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