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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/15/09

चौराहे पर चर्चा-हिंदी लघुकथा (chaurahe par gyan charcha-hindi laghu katha)

वह संत अपनी शिष्य मंडली के साथ रेल में यात्रा करने के लिये उस बोगी में चढ़ गये जिसमेें अधिक भीड़ नहीं थी। दरअसल वह विमान में यात्रा करने की अर्हता और पात्रता रखते थे पर उस दिन वहां से कोई उड़ान नहीं थी जिससे वह अपने से कम स्तर पर यात्रा करने के लिये बाध्य हो गये थे क्योंकि उनको वहां कथा खत्म कर दूसरी जगह प्रारंभ करना थी। उस बोगी में वहां दूसरे लोग भी थे पर अच्छा खासा भक्त समुदाय होने के बावजूद उनका चेहरा लोगों के लिये अधिक पहचाना हुआ नहीं था कि लपककर सभी उनके पास दर्शन करने पहुंच जाते। अलबत्ता भक्त समाज इतना तो था ही जिनके दान से उन्होंने अच्छी संपत्ति अर्जित कर ली थी।
रेल में बैठे क्या करते? समय बिताने के लिये वहां अपने शिष्यों को बातचीत के बहाने उपदेश देने लगे-‘यह मोह माया में फंसी दुनियां है इसमें ज्ञान की बात कहते और सुनते सभी हैं पर धारण उसे कोई ही कर पाता है। अरे, यह लालच, लोभ, काम, क्रोध और मोह ऐसे विकार हैं जिनसे हम जैसे तत्वज्ञानी ही छुटकारा पा सकते हैं।’
वहां एक सज्जन उनके पास थोड़ी दूर बैठे यह सुन रहे थे। उन्होंने उनसे उत्सुक्तावश पूछा-‘महाराज यह तत्व ज्ञान क्या है? उसकी बात करते तो सभी हैं पर समझाता कोई नहीं है।’
वह संत मजाक के अंदाज में बोले-‘अरे वाह, न दान न दक्षिणा! ऐसे ही ज्ञान पाना चाहते हो।’
सभी लोग हंसने लगे। वह सज्जन चुप हो गये। कुछ देर की खामोशी के बाद फिर संत ने उन सज्जन की तरफ देखते हुए कहा-‘देखो भई, हम तो मजाक कर रहे थे। बुरा मत मानना! हम संत इसी तरह ही समझाते हैं।’
उन सज्जन ने कहा-‘महाराज, मैंने अपने महापुरुषों की वाणी पढ़ी और देखी है। उसमें प्रमाद और कौतूहल से बचने को कहा गया है। फिर आप तो संत हैं यह मजाक या प्रमाद किसलिये?’
इससे पहले संत कुछ कहते उनके शिष्य उबल पड़े-‘अरे, कैसे आदमी हो? संतों को उपदेश देते हो। क्या इनको कोई सामान्य आदमी समझ रहे हो? खामोश हो जाओ।’
इधर संत ने अपने शिष्यों को कुछ पुचकारते और डांटते हुए कहा-‘चुप हो जाओ! हमारा ज्ञान रोज सुनते हो पर अभी भी इतना नहीं सीखा कि सभ्य मनुष्य से कैसे बात की जाती है?’
शिष्य चुप हो गये तो फिर वह उन सज्जन से बोले-‘देखो भई, हम तो अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। आप क्यों उसे सुनने का कष्ट उठा रहे थे। आपके समझ में हमारी बात नहीं आती तो आप खामोश रहते।’
उन सज्जन ने कहा-‘पर महाराज, मैंने अपने महापुरुषों की वाणी पढ़ी है उसमें तो लिखा है कि ज्ञानचर्चा चौराहे पर नहीं करना चाहिये।’
बस!अब तो उन संत के शिष्यों का धैर्य जवाब दे गया। उनमें से कुछ तो अपने कमीज की आस्तीनें चढ़ाते हुए उन सज्जन की तरफ बढ़े। एक ने चिल्लाकर कर कहा-‘अबे, तेरी समझ में नहीं आ रहा। यह क्या कोई चौराहा है और जहां महाराज ज्ञानोपदेश कर रहे हैं। हमारे सौभाग्य है कि ऐसे महान पुरुष का सत्संग मिल रहा है। तुम उठो और कहीं दूर अन्यत्र जाकर बैठो। बोगी में बहुंत जगह खाली है।’
बात बढ़ती देख उन्हीं सज्जन के पास बैठे दूसरे सज्जन से कहा-‘चलो भाई, कहीं दूसरी जगह बैठ जाते हैं।’
दोनों सज्जन वहां से उठकर थोड़ी दूर जाकर बैठ गये। दूसरे सज्जन ने पहले से कहा-‘आप भी कहां चक्कर में फंस गये? देखा नहीं उनके शिष्य कैसे आपके विरुद्ध विष वमन कर रहे थे। अरे, आप जानते हैं कि चौराहे पर ज्ञान चर्चा नहीं करना चाहिये पर फिर भी आप स्वयं ही वही कर रहे थे।’
पहले सज्जज ने कहा-‘हां, यह मेरी गलती थी। शायद महापुरुष यह बात मेरे जैसे लोगों के लिये कह गये हैं ज्ञान का व्यापार करने वाले उन संत और मंडली के लिये नहीं। हमारे महापुरुष जानते थे कि हमारे ज्ञान में शब्द और भाव का जो आकर्षण है वह ऐसे कथित संतों के लिये विक्रय की वस्तु हैं जिसका वह चौराहे पर ही व्यापार करेंगे। ऐसे में कोई ज्ञानी भी यही करेगा तो वह पिट भी सकता है।’
दोनों सज्जन आपस में हंस पड़े।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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