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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/14/09

बाज़ार के लिखे शब्दों पर होंठ हिलाते-व्यंग्य कविता (bazar ke shabd-hindi vyangya kavita)

अख़बारों में छपे बड़े बड़े शख्सों के
बयान अब आखों से आगे बढ़कर
दिल की गहराई में नहीं जाते.
ढेर सारा कागज़ का भंडार है चारों तरफ
उसे खाने के लिए अक्षर पक्षी चाहिए
स्याही की बह रही हैं धारा,
मिलना जरूरी है उसको भी किनारा,
बाज़ार के सौदागर केवल शय ही नहीं बेचते,
ज़माने पर काबू रखने का भी खेल खेलते,
उनका खामोश रहना जरूरी है
इसलिए बोलने के लिए वह इंसानी बुत लाते.
जो बाज़ार के लिखे शब्दों पर बस होंठ हिलाते.

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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