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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/12/09

काल्पनिक महानायक-हिंदी लेख (filmi mahanayak-hindi lekh)

किसी फिल्म अभिनेता को जब सदी का महानायक कहा जाता है तब उसके प्रशंसकों को बहुत अच्छा लगता है पर अगर थोड़ा चिंतन किया जाये तब इस बात का अहसास होता है कि वह एक काल्पनिक पात्र है। यह ठीक है कि फिल्म अभिनेता बनने का सपना वह हर युवक देखता है जिसका अत्यधिक शौक एक व्यसन बनकर उसके हृदय में स्थापित हो जाता है। अब समय बदल गया है या कहें ठहर गया है। पहले अनेक ऐसे युवक युवतियां फिल्म अभिनेता अभिनेत्री बन कर सफल रहे जो मामूली घरों से थे या उनका स्वयं का स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं था। अब वह समय नहीं है, पहले से ही स्थापित परिवारों के बच्चों को नायक बनने का अवसर मिलता है। जड़ हो चुके समाज में इस पर अधिक बहस करने का कोई मतलब नहीं है।
हम तो उन फिल्मों की बात कर रहे हैं जिनकी कहानी, पटकथा और संवाद काल्पनिक होते हैं और जिनको अभिनीत करने का कौशल ही जमीन के कलाकार को आकाश का काल्पनिक सितारा बना देता है।
ऐसे अनेक सितारे आये और गये। कुछ लोग अविचल भाव से खड़े रहे और उनमें भी कुछ महानायक कहलाने लगे। उनकी उपलब्धियां उनकी निजी है और समाज के लिये उनका कोई महत्व केवल इसलिये ही है क्योंकि इस समय देश भर में सक्रिय प्रचार माध्यम उसे हर पल गाते हैं और यह संभव नहीं है कि कोई आम आदमी उसे देखने सुनने से बच पाये। इस प्रचार का कोई प्रभाव नहीं होता यह मानना गलत होगा।
वैसे आज के इस सदी के मनोरंजन के महानायक को भी मानने से इंकार नहीं करते पर केवल हमारा आशय इतना ही है कि उनकी प्रशंसा की सीमा है। वह सदी के महानायक नहीं वरन् इस सदी के मनोरंजन के महानायक हैं। ऐसे महानायक जिनकी फिल्मों ने समाज को भीरु, चेतनाविहीन और मानसिक रूप से कमजोर बनाया। यह कोई आक्षेप नहीं है बल्कि तमाम तरह के अनुभवों से उपजी एक राय है।
एक तो हमारे समाज में पहले से ही आम आदमी में यह भावना घर कर चुकी है कि इस संसार में जब पाप बढ़ते हैं तब भगवान अवतार लेते हैं और तब तक उसको झेलना चाहिये। ऐसे मेें मनोरंजन के महानायक की फिल्मों से भी यह संदेश निकला कि अगर आप शारीरिक दम खम में अजेय या धनी हैं तभी आप किसी से पंगा ले सकते हैं वरना आपका हाल बुरा होगा। पहले तो समाज दैहिक रूप दूसरों के दर्द को दूर करने के मामले निष्क्रिय था पर महानायक की फिल्मों ने तो उसे मानसिक रूप से ऐसा जड़ बना दिया कि दूसरे को परेशान देखकर आदमी सोचता तक नहीं है।
हम मनोरंजन के महानायक की फिल्मों का शुरुआती दौर देखें तों उसकी कहानियां में अतिरंजना और संवादों में अतिनाटकीयता रही है। पहले फिल्मों में खलनायक को ही अमीर बनता दिखाया जाता था पर महानायक की फिल्मों में तो नायक को मजबूरीवश गलत रास्ते पर जाकर धन एवं यश अर्जित करते हुए दिखाया गया। एक मशहूर फिल्म में एक तस्कर की भूमिका दिखाई गयी। कहा जाता है कि वह उस समय के कुख्यात तस्कर की वह वास्तविक कहानी थी। कुछ लोगों का मानना है कि इसी दौर से अपराध जगत का पैसा फिल्मों में लगना प्रारंभ हुआ क्योंकि खलनायकों का नायक के रूप में महिमा मंडन बिना धन के लालच के संभव नहीं है। बाद में यह प्रमाणिक भी हुआ कि न अपराधी केवल फिल्मों में पैसा लगा रहे थे बल्कि कहानियों में भी हस्तक्षेप करते थे। महानायक की फिल्म आयी जिसमें एक ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर की हाथ काटने का दृश्य था। बाद में वह अपने दुश्मन से बदला लेता है। अगर आप किसी ईमानदार फिल्म इंस्पेक्टर का हाथ कटते हुए दिखायेंगे तो बाद में फिल्म की कहानी क्या है यह चर्चा का विषय नहीं होता? इससे आदमी तो डर जाता है न! हाथ कटा कर जीतना कौन चाहेगा? किसी फिल्म में नाजायज बच्चे की भूमिका इस तरह प्रस्तुत की गयी गोया कि हर नाजायज बच्चा इसी तरह होता है।
ऐसा नहीं है कि महानायक की फिल्मों में ऐसी कहानियां थी। बल्कि उनकी फिल्मों से ऐसा दौर शुरु हुआ जिसमें अपराधी को महिमामंडित किया गया। हर तीसरी फिल्में बिछड़ा हुआ या नाजायज बच्चा नायक होता था। कहने को तो फिल्म वाले दावा करते हैं समाज में जो दिख रहा है वही दिखाते हैं पर सच तो यह है कि इन फिल्म वालों ने अनेक ऐसी कहानियों वाली फिल्में बनाईं जिसमें ईमानदार, साहसी दयालु और परोपकारी व्यक्ति का अंग भंग करने के साथ ही उसका पूरा परिवार नेस्तानाबूद होते दिखाया गया। इन फिल्म वालों से यह पूछे तब कितने समाज में ऐसे किस्से थे जिनको वह दिखा रहे थे। इसी कारण यह हुआ कि कोई आदमी आज भला, मृदभाषी, दयालु और परोपकारी बनने की कोई सोच भी न पाता। साहस करने की तो कोई सोचता भी नहीं। कहने को कहा जाता है कि फिल्मों का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता पर मानसिकता पर पड़ता है। क्या जब हम राम रावण या अर्जुन कर्ण युद्ध का दृश्य मंच या पर्दे पर देखते हैं तब हमारे खून में तेजी नहीं आती? दृश्य और श्रवण का आदमी पर प्रभाव पड़ता है चाहे इसे कोई माने या नहीं। आंतरिक इंद्रियां ग्रहण करती हैं वैसा ही बाह्य इंद्रियां विसर्जन करती हैं। ऐसे में कई बरसों तक ऐसी फिल्में देखते रहना जिसमें सारा काम केवल एक नायक करता है वह समाज को जड़ न बनायेे यह संभव नहीं लगता। एक मजे की बात महानायक की फिल्मों की रही है। उसमें खलनायक तो गोलियों के दम पर सभी का नाश करता है पर नायक उसे केवल हाथ से ही मारता है। आखिर इन कहानियां में ऐसे दृश्य क्यों नहीं दिखाये गये जिसमें नायक एक ही झटके में खलनायक का कत्ल करता है। लंबे एक्शन दृश्य क्यों बनाये गये? इसलिये न कि कोई समाज के खलनायकों को उस तरह न मारे? स्पष्टतः फिल्म बनाने वाले जानते थे कि फिल्मों का प्रभाव जनता पर होता है और खलनायकों को गोली से एकदम मरवाने के दृश्य दिखाये गये तो समाज के खलनायकों की खैर नहीं होती-आखिर फिल्म वाले ऐसा करने से क्यों बचते रहे?
किसी महिला की इज्जत सड़क पर लूटना पहले इतना आसान नहीं था। राह चलते हुए कत्ल करने की भी हिम्मत किसी में नहीं होती थी। आज अपराधी इसलिये बेखौफ हैं क्योंकि उनको पता है कि सड़क की भीड़ में कोई ताकत नहीं है। उस भीड़ में कोई वास्तविक नायक नहीं पैदा हो सकता। अपराधियों की यह सोच कोई गलत नहीं है। काल्पनिक महानायक को देखते हुए वह भी कल्पना के नायक का इंतजार करती है।
सच बात तो यह है कि फिल्मों में अगर काल्पनिक महानायक नहीं बनाया होता तो अपने देश में वास्तविक महानायकों का जमावड़ा होता पर स्थापित परिवारों को वर्चस्व इस तरह नहीं रहता। अब एक काल्पनिक महानायक है पर वास्तविक खलनायकों की ऐसी भीड़ चारों तरफ बिखरी पड़ी है जिनका नाश करने के लिये शायद समय को खुद चलना पड़े।
कुछ लोगों ने महानायक की फिल्मों को समाज के लिये बहुत महत्वपूर्ण बताया था। हमारा मकसद उनका उत्साह भंग करना नहीं बल्कि यह बताना है कि सच्चा महानायक वही है जिसकी उपलब्धि समाज के लिये महत्वपूर्ण होती है और जिसका यथार्थ धरती पर बहने वाले जीवन में सात्विक परिवर्तन लाता है। भारतीय फिल्मों का इस देश के युवाओं में शराबखोरी,जुआ और लड़कियों पर सार्वजनिक रूप से हमले करने की प्रेरणा देने के अलावा कुछ नहीं किया। उन्होंने एक नहीं अनेक नायक खड़े किये और उनको देखते हुए यह समाज इतना जड़ हो गया कि यथार्थ में नायक मिलना ही मुश्किल हो गया।

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1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

एक कड़वा सच है यह....बढिया आलेख है।बधाई दीपक जी।

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