सच तो यह है कि जिस तरह यह पुरस्कार दिया गया है उस पर हंसी अधिक आ रही है क्योंकि उनके पदभार संभालने के बाद विश्व में कहीं को उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है ऐसा कहीं प्रमाणित नहीं होता। संभव है कि ओबामा के शासन में अमेरिका विश्व में शांति स्थापित करने में सफल हो-हालांकि इसकी संभावना नगण्य ही लगती है-तब यह नोबल पुरस्कार अपनी सार्थकता प्रमाणित करेगा पर इसका फिलहाल औचित्य क्या है? यह स्वयं श्री ओबामा के समझ में नहीं आई होगी।
वैसे आम भारतीयों को नोबल और ओबामा से क्या लेना? अलबत्ता एक समस्या भारतीय बुद्धिजीवियों और प्रचार माध्यमों के सामने आने वाली है वह कम दिलचस्प नहीं है। अभी तक तो यह कहा जाता था कि नोबल दुनियां का सबसे बड़ा पुरस्कार है जिसे पूरी ईमानदारी के साथ दिया जाता है-हमारे यहां पश्चिम संस्थाओं के प्रति ऐसी ही भ्रांत धारणायें बनायी गयी हैं जो कि अब धीरे धीरे खंडित होती जा रही हैं। बचपन में भी हमने पढ़ा था कि भारत के जगदीशचंद्र बसु को भी विज्ञान में कार्य करने पर नोबल पुरस्कार दिया गया। उन्होंने ही पूरे विश्व को बताया था कि वनस्पतियों में मनुष्य की तरह जीवन होता है। श्री रविंद्रनाथ टैगौर को भी साहित्य के लिये नेाबल पुरस्कार दिया गया। तब हमारा मन में इन महानुभावों के लिये जो श्रद्धा पैदा होती थी वह अवर्णनीय है।
समय के साथ जब बड़े हुए तो फिर अपने देश के पुरस्कारों और सम्मानों को भी देखा। जब लिखना प्रारंभ किया तब यह नहीं जानते थे कि साहित्य में भी सम्मान होता है। मगर लिखते लिखते यह ख्याल तो आ ही जाता था कि कभी हमें सम्मान या पुरस्कार मिल सकता है पर जैसे थोड़ा आगे बढ़े तो समझ में आ गया कि देश के सम्मान, पुरस्कार या कोई पदवी पाना हमारे जैसे आदमी के लिये सहज नहीं है क्योंकि अभी भी यहां स्वतंत्र रूप से सांस लेना एक अपराध ही है और जहां तक लिखने का सवाल है किसी की गुलामी हमारे बूते का नहीं था। फिर भी पुरस्कारों के प्रति सम्मान था पर धीरे धीरे वह समाप्त हो गया। अलबत्ता अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों के प्रति एक आदर का भाव था पर उसे भी धीरे धीरे क्रांतिकारी लेखकों ने समाप्त कर दिया यह बताकर कि वह केवल पश्चिम की अवधाराओं पर खरा उतरने पर ही मिलता है।
माननीय जगदीश चंद्र बसु की याद आती है जिनके बारे में हमें बताया जाता है कि उन्होंने ही बताया था कि वनस्पितियां भी मनुष्य की तरह प्राणवान है। जब हमने अपने अध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़ा तो पाया कि यह कोई नया रहस्योद्घाटन नहीं था-इसलिये कहते हैं कि इन ग्रंथों के कुछ आवश्यक हिस्से आज भी शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाया जाना आवश्यक है। यकीनन बसु साहब ने बृहद रूप से इस पर कुछ अनुसंधान कर प्रस्तुत किया होगा जो उनको नोबल पुरस्कार मिला होगा। वैसे वह अमेरिका में ही रहकर काम कर रहे थे, इसकी जानकारी भी बाद में हमें मिली। कहने का मतलब यह है कि वह भारतीय मूल के थे पर अमेरिका में रहते हुए ही उनको पुरस्कार मिला। तब से हम अनेक बार सुने चुके हैं कि भारतीय मूल के अमेरिकी को नोबल मिला या कोई बड़ा पद मिला आदि आदि।
माननीय श्री रविद्रनाथ टैगौर के बारे में आज के ही एक प्रगतिशील लेखक के रचना में हमने पढ़ा था कि उनकी कहानियों में अंग्रेजों को काफी महत्व दिया गया इसलिये उनको सम्मानित किया गया। यहां तक ह िराष्ट्रीय गीत ‘जन गन मन’ भी एक अंग्रेज लार्ड के भारत आगमन पर उनके द्वारा लिखा गया जिसमें बाद में संशोधन कर प्रस्तुत किया गया-यह जानकारी इस देश के उसी लेखक ने लिखी थी जिसे आजकल जातिवाद के लिये कोसा जा रहा है। हम नहीं जानते कि सच क्या है? हां, इतना जरूर कह सकते हैं कि विदेशी पुरस्कारों के संबंध में अब यह धारणा बन गयी है कि उनका भारतीय संदर्भ में किये गये किसी कार्य से कोई संबंध नहीं होता। उसके बाद भी हमारे देश से जुड़े अनेक लोगों को नोबल मिला पर उनके कार्य या व्यक्तित्व में पूर्ण भारतीय का अभाव था।
इसके बावजूद हमारे देश के प्रचार माध्यम नोबल पुरस्कार के समाचार इस तरह देते हैं जैसे कि वह दिखा रहे हों कि देखो नालायकों तुम इसके लायक नहीं हो। लोग भी बिचारे मन मसोस कर रह जाते थे। मुश्किल अब यह आ रही है कि लोगों के दिमाग में नोबल को लेकर पूर्व में बना आकर्षण समाप्त हो सकता है। आजकल के आधुनिक प्रचार माध्यम अब नोबल जैसे फालतू खबर पर सनसनी नहीं बना सकते। भारत में सामान्य जन तो यह देखकर ही हैरान है कि शांति का नोबल पुरस्कार ऐसे दिया गया है जैसे कि किसी हिंदी फिल्म के नये अभिनेता को ‘नये चेहरे’ का पुरस्कार दिया गया है। एक ही झटके नोबल पुरस्कार का महत्व यहां खत्म हो सकता है। अपने देश के ही जो संचार माध्यम पहले नोबल पुरस्कारों की सूची बहुत शोर के साथ सुनाते थे अब उसमें फिक्सिंग की बात कह रहे हैं। हम तो सुनकर ही दंग रह गये जब किसी को यह कहते सुना कि ‘यह अमेरिका की ओबामा की प्रसिद्धि बनाये रखने के लिये किये गये प्रबंधकीय कौशल का कमाल है’।
सच तो यह है कि इस देश के कुछ लोग ऐसे हैं जो वाकई काबिल हैं पर उन्हें देश और विदेश में पुरस्कार नहीं मिले क्योंकि उन्होंने हिंदी या क्षेत्रीय भाषा मेें लिखा या अन्य सृजन किया। उनका लिखा हुआ या अन्य सृजन इतना जोरदार है कि सदियों तक वह बना रहेगा जबकि भारत की गरीबी पर लिखकर कई ऐसे लेखक पुरस्कार ले आये जो अब पागलपन की बात करते हैं। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो सीमावर्ती क्षेत्रों की गरीब और अनाचार देखकर उनको पाकिस्तान तथा चीन को देने की बात करते हैं। मध्य की गरीबी के लिये वहां से आंतक के आयात का भी समर्थन करने लग जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत विरोधी संदर्भ में उनको कुछ ऐसे पुरस्कार मिले जो नोबल नहीं थे पर उसे जैसे लगते थे।
अब इन विदेशी पुरस्कारों से सम्मानित महानुभावों का बाजार भाव भी गिर सकता है। राह चलते हुए कोई भी पूछ सकता है कि ‘भला, किससे और कैसे पुरस्कार की फिक्सिंग की थी। जरा बताओ। हम भी कर लेंगे। वैसे आस्कर को लेकर भी कुछ दिल पहले लोगों का भ्रम टूटा था और अब नोबल ने भी तोड़ दिया। स्पष्टतः यह पुरस्कार गुप्त ऐजेंडों पर दिये जाते हैं। इन पर चर्चा करें तो बहुत लंबी बात हो जायेगी।
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1 comment:
ओबामा जी को राष्ट्र्पति बनने के उपहार के रूप में यह पुरस्कार दिया गया है
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