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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/12/09

काहे का गज़ब-हास्य व्यंग्य (kaisa gazab-hindi hasya vyangya)

सप्ताह में उस दुकान से एक बार तो बेकरी का सामान जरूर खरीदते हैं। ऐसा बरसों से चल रहा है। वह दुकानदार अच्छी तरह जान गया है। उसके कुछ पुराने कर्मचारी भी अब देखते ही सामान पूछना शुरु कर देते हैं भले ही दूसरे ग्राहक खड़े हों। हालांकि उस दुकानदार से हमारी कोई खास आत्मीयता नहीं है, यहां तक कि उसके साथ अभिवादन तक नहीं होता। हम दुकान पर पहुंचते ही सीधे सामान मांगना शुरु कर देते हैं।
उस दिन 145 रुपये का सामान लिया और उसे पांच सौ का नोट दिया। उस दुकानदार ने उसे अच्छी तरह रौशनी में देखा और फिर उसने अपनी दराज में रखा और बाकी पैसे वापस करने के लिये नोट गिनने लगा। इसी दौरान वह हमसे कहता रहा कि ‘आजकल नोट नकली आ रहे हैं इसलिये ध्यान से देखना पड़ता है।’ आदि आदि।
हम केवल मुस्कराये। उसने नोट गिनकर हमें दिये। हम उसे बिना गिने ही अपनी जेब में रखने लगे यह सोचकर कि इतना बड़ा सौदा नहीं है कि वह रकम कम देगा-ज्यादा देगा इस पर तो विचार ही नहीं किया? सामान का पैकेट और रुपये हाथ में लेकर अपने स्कूटर के पास पहुंचे और सामान रखकर नोट पर्स में रखने लगे पर लगा कि कुछ गड़बड़ है। नोट अधिक लग रहे थे। हमने गिने तो उसमें सौ रुपया अधिक था।
हमने बिना कुछ सोचे बिचारे वह नोट उसके पास जाकर बढ़ाया और कहा‘-भई, आपने यह सौ का नोट अधिक दे दिया।’
उसे हैरानी हुई और हमसे नोट अपने हाथ में लेते हुए बोला-‘हो सकता है कि बात करते हुए हमसे नोट गिनने में गलती हो गयी। वैसे आप पहले आदमी हैं जो नोट वापस कर रहे हैं। ऐसे कई बार गलती हमें बाद में याद आती है पर कोई भी आदमी हमें नोट वापस नहीं करता। अपने पास रखकर सभी पचा जाते हैं। आपकी ईमानदारी अच्छी लगी।’
हमने हंसते हुए कहा-‘सच तो यह है कि हम नोट गिन नहीं रहे थे। पता नहीं क्या सोचकर गिने। यकीन करो कि अगर यह एक बार पर्स के हवाले होते तो फिर हमें भी वापस करने की याद नहीं आनी थी। वैसे आपके साथ जिन लोगों ने जानबूझकर ऐसा किया उनको आपका पैसा पच ही गया आप यह कैसे कह सकते हैं?’
वह दुकानदार हमें घूरकर देखने लगा और बोला-‘हां, यह तो नहीं सकता कि वह पचा पाते हैं कि नहीं।’
हमने उससे कहा-‘वह आपका दिया अधिक पैसा रख लेते हैं पर कितनी देर? यह तो माया चलती फिरती है इसलिये वह रुपया आखिर वह फिर कहीं जाना है। यह हमारी ईमानदारी का प्रमाण नहीं बल्कि डर का प्रमाण है। एक तो यह रुपया अधिक देर हमारे पास वैसे ही नहीं रहेगा। दूसरा पचेगा भी नहीं! इसलिये वापस किया।’
अधिक देर बात करना ठीक नहीं था। हमने सौदा रखा और वहां से चले आये। उसके बाद भी अनेक बार उसकी दुकान पर गये पर कभी इसकी चर्चा नहीं की।
उस दिन दुकान पर पहुंचे तो उसने हमसे पूछा-‘आपको मैंने बैग दिया है कि नहीं।’
मुझे आश्चर्य हुआ और हमने उससे कहा-‘नहीं, आपने मुझे कोई बैग नहीं दिया।’
उसने अपने पीछे हाथ किया और एक हैंडबैग हमारी तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘मैंने पूछने की गुस्ताखी इसलिये की क्योंकि यह केवल कुछ खास ग्राहकों को दिवाली का गिफ्ट दिया था। मुझे याद नहीं आ रहा था कि आपको दिया कि नहीं। हर साल हम कुछ न कुछ ग्राहकों को उपहार देते हैं।
मैंने वह हैंडबैग अपने हाथ में लिया। उसके यहां के एक कर्मचारी ने मुझसे कहा कि ‘सेठ जी बहुत दिनों से आपको यह उपहार देने के लिये कह रहे थे, मैं ही भूल जाता था। आज सेठ जी खुद पूछा तब मुझे भी याद आया।’
उस समय भी वहां पर पांच लोग दूसरे खड़े थे पर उसने बिना उनका विचार करते हुए मुझे हैंडबैग दिया। इतने बरसों से उसने दूसरे खास ग्राहकों को गिफ्ट दिया पर हमें खास नहीं माना। उसके खास तो उसके थोक व्यापारी रहे होंगे। खेरिज ग्राहकों में उसने किसी दूसरे को खास माना होगा यह भी नहीं लगता। बहरहाल उस सौ रुपये की वापसी ने उसकी नजरों में खास बना दिया। उसकी नजर में हम ईमानदार हैं पर हमें खुद को नहीं लगता। वैसे पहले भी कई बार अनेक दुकानदारों को अधिक पैसे हमने वापस लौटाये हैं। वह लोग कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। किस बात की! ईमानदारी की! अरे भई, हमने कई बरस पहले एक बार अपनी जिंदगी में अजमाया है। रास्ते से बीस का नोट मिला था उसे रख लिया। मगर उसके एक दिन बाद ही हमारी साइकिल को एक टूसीटर वाले ने टक्कर मारकर तोड़ दिया। हम बच गये यह गनीमत थी पर उस साइकिल को बनवाने में सौ रुपये लग गये। बस तब से तय कर लिया कि ऐसे पैसे को हाथ भी नहीं लगायेंगे।
यह हमारा डर है जो जबरदस्ती ईमानदार बनाये दे रहा है। कोई जब यह कहता है तो हम उसे समझाने लग जाते हैं कि ‘भई, ऐसा नहीं है। दरअसल हमारा हाजमा खराब है कि ऐसा पैसा हमें पचता नहीं। यह एक रोग है जिसका इलाज किसी के पास नहीं है।’
पहले शराब पीते थे। अब छोड़ दी। जो अब हमारे सामने पीते हैं और हमें परे देखकर कहते हैं कि‘अच्छा हुआ तुमने छोड़ दी। वाकई क्या गजब की तुम्हारी संकल्प शक्ति है।’
हम उनको समझाते हैं कि‘नहीं यार, इससे हमें उच्च रक्तचाप हो गया था। डाक्टर से कहा छोड़ दो नहीं तो मुश्किल में आ जाओगे यह संकल्प शक्ति नहीं हमारा डर है जो हमें पीने नहीं देता। हम तो उन लोगों के कायल हैं जो शराब पीकर पचा जाते हैं।’
वह पीने वाले कहते हैं कि ‘नहीं यार, तमाम तरह की व्याधियां हमारे शरीर में हैं तुम क्या जानो? मगर क्या करें पीना नहीं छूटता।’
उस दिन पार्क से योग साधना कर वापस आ रहे थे तो एक ऐसे सज्जन हमें मिले जो योग साधना के फायदे हमें सुनाकर उस शिविर में ले गये जिसमें योग साधना सिखाई जा रही थी। इस बात को सात वर्ष होने के आ गये। उन्होंने कुल जमा सात दिन भी वहां हाजिरी नहीं दी पर हमें याद है वह किसी तरह हमें वहां लगे और फिर वह शिविर छोड़ दिया । मगर हम डटे रहे। वह कहने लगे-‘यार गजब करते हो? अनवरत छह साल से ऊपर हो गया पर तुम्हारा क्रम भंग नहीं हुआ। मान गये तुम्हारे दृढ़ निश्चय को!’
हमने उसको भी समझाया-‘यार, यह बात नहीं है। इसके बिना हम अब चल ही नहीं सकते। जब किसी दिन किसी मरीज को अस्पताल से देखकर आते हैं उसके अगले दिन ही अपनी योगसाधना की अवधि और आसन बढ़ा देते हैं क्योंकि हमें डाक्टरों से बहुत डर लगता है। वैसे कभी कभी पौन घंटा घर पर ही करते हैं पर जब किसी की गमी से जाते पर वहां जब अन्य लोग बीमारियों का बखान करते हैं तो उनको उनको सुनकर हमारे अंदर डर का बवंडर खड़ा होता है और हम घर पर ही अधिक समय लगाते हैं या फिर बाहर अपने एक मित्र के यहां करने चले जाते हैं। इसमें दृढ़ संकल्प जैसी कोई चीज हमें नहीं लगती।’
लोग पता नहीं हमारी बात समझते हैं कि नहीं! क्योंकि वही लोग जब दोबारा मिलते हैं तो फिर वही बात-‘आप तो गजब करते हैं।’
हम कभी नहीं समझ पाते कि इसमें गजब क्या है? हम डरते हैं तो बचने के रास्ते ढूंढते रहते हैं और लोग तो बहादुर हैं ओर फिर उनका हाजमा हमसे बेहतर है। उल्टे हम तो उन लोगों के प्रशंसक हैं जो गलत पैसा हजम कर जाते हैं। शराब पीकर भी मजे में रहते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि बिना योग साधना के बहुत से लोग स्वस्थ होकर विचरण करते हैं उनकी प्रशंसा करना भी हमें अच्छा लगता है। बचपन से सुनते आ रहे हैं कि बुरे काम का बुरा परिणाम होता है। इसलिये हम उन लोगों को ही योगी मानते हैं जो बुरा काम कर भी अपनी जिंदगी मजे में गुजारते हैं। कम से कम बाहर से तो ऐसा ही लगता है। अंदर की बात वही जाने। बाकी सभी जानते हैं कि हमारे अंदर डर है जिसका कहीं कोई इलाज नहीं है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com


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