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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

12/6/09

विश्व में जातियों का विभाजन खत्म नहीं हो सकता-हिन्दी आलेख (hindu cast and religion-hindi lekh)

क्या देश में समाज से कभी जाति समाप्त हो सकती है? अनेक लोग दिन रात यह संदेश गाते फिरते हैं कि यहां जाति प्रथा समाप्त हो जाये। यह संभव नहीं लगता। अगर पाश्चात्य विचाराधाराओं के आधार पर कोई इस बात का ख्वाब देखता है तो वह एक ऐसा ख्वाब देख रहा है जिसके पूरे होने के कभी आसार नहीं है। जाति प्रथा किस आधार पर बनी या किसने बनाई और बरसों से यह व्यवस्था किस तरह चलती आ रही है यह बहस का विषय नहीं है बल्कि हम यहां उन विभाजनों की स्वाभाविकता को देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य समाज में सभी लोगों की प्रकृति एक जैसी नहीं होती और यही उनके बीच वैयक्तिक विभाजन का आधार या कारण बनती है।
एक बार एक लेख पढ़ने को मिला था। उसमें जींसों के आधार पर जातियों के विभाजन की व्याख्या थी। वह लेख बहुत अच्छा लगा और उसमें जो तथ्य दिये गये थे उन्होंने प्रभावित किया। मुख्य बात यही थी कि चाहे हम किसी भी जाति को देखें उसमें लोगों की देह का रंग, बोलने का तरीका तथा चलना फिरना बहुत मिलता है। कई बार तो ऐसा होता है कि चेहरे के आधार पर लोग पहचान कर लेते हैं कि यह अमुक जाति का है। हालांकि इसके कई उत्तर भी हैं जैसे कि अगर कोई गोरा आदमी किसी ऐसे देश या क्षेत्र में जाकर रहने लगे जहां के लोगों को रंग काला या सांवला है तो उसकी आगे आने वाली पीढ़ियों में धीरे धीरे गोरापन समाप्त हो जायेगा पर तब उसकी पहचान उसके रंग से होती रहेगी।
इस विषय में आजादी के बाद अखंड भारत के पश्चिमी हिस्से से आये सिंधियों और पंजाबियों को देखा जा सकता है। बहुत लंबे समय तक आदमी उनकी शक्ल देखकर ही उनको पहचान लेते थे। हालांकि यहां के जलवायु के साथ नयी पीढ़ी के रंग और चेहरे में बदलाव आ रहा है और हो सकता है कि एक समय किसी नयी पीढ़ी की अपनी यह पहचान ही समाप्त हो जाये। कुछ जातियों के लोगो का रंग गोरा तो कुछ का काला होता है। कुछ लोगों में सांवले रंग की प्रधानता होती है। इस तरह मनुष्य देह का जलवायु से गहरा संबंध है। कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य की देह के अनेक गुण जन्मजात रहते हैं पर जलवायु भी उनपर प्रभाव डालती है।
विश्व में जलवायु की भिन्नता है तो लोगों के रंग में भी वैसी ही भिन्नता है। यह भिन्न पहचान उनका एक समूह भी बना देती है। जो कालांतर में जाति या समूह के रूप में परिवर्तित हो जाती होगी। फिर उसके बाद चूंकि मनुष्य सभी जीवों में अधिक बुद्धिमान है तो वह अपने हिसाब से ज्ञान की रचना भी करता है। भाषाऐं भी अलग अलग हैं। इसी ज्ञान के आधार पर परंपरायें बनती हैं जिनके निर्वाह से मनुष्य और उसका समूह दूसरों से अपनी अलग पहचान बनाता है। जब तक विश्व की जलवायु, भाषा तथा आर्थिक दशाओं में भिन्नता रहेगी तब तक इस तरह की जातियों के आधार पर समूह बने रहेंगे।
दूसरी बात जातियों की बात करें तो यह एक तरह के औपचारिक सामाजिक संगठन हैं जिनका निर्माण कर्म, विचार, तथा आचरण के आधार पर स्वाभाविक रूप हो जाता है। दूसरी बात यह है कि हम समाज में कर्म के आधार पर बंटवारे को देखें तो यह चारों जातियां बनी रहेंगी। यह अलग बात है कि कुछ लोग इसको जन्म के आधार पर तय करने लगे हैं क्योंकि इससे उनको अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाने का अवसर मिलता है।
पहले हम जातियों के कर्म देखें
ब्राहम्णों-समाज के लोगों को शिक्षा तथा राज काज को परामर्श देने के साथ ही समाज के लिये चिंतन करे।
क्षत्रिय-समाज की रक्षा के लिये तत्पर रहकर अस्त्र शस्त्र धारण करना।
वैश्य-व्यापार आदि के द्वारा समाज की सेवा करना।
शुद्र-इन तीनों के अलावा अन्य कार्य शुद्र सेवा में आते हैं।
हमारे पौराणिक ग्रंथ तो यह मानते हैं कि आदमी प्रतिदिन इन चारों वर्णों या जातियों में भ्रमण करता है। वह सुबह उठता है तब अपनी साफ सफाई करता है। यह उसका शुद्र कर्म है। उसके बाद वह भक्ति भाव से भगवान का नाम लेता है और अपने परिवार के लोगों को समय समय पर शिक्षा तथा परामर्श देता है। यह ब्राहम्णोंत्व का प्रमाण है। उसके बाद वह अपने परिवार के लिये काम पर जाता है जोकि उसके वैश्य होने का प्रमाण है। रात्रि को वह अपने घर पर सोता है। तब उसके आश्रित अपने माता पिता के रहते हुए एक सुरक्षा का अनुभव करते हैं। समय आने पर माता पिता अपने बच्चों के लिये लड़ने तक को तैयार हो जाते हैं। यह क्षत्रित्व का प्रमाण है।
हम बाह्य आधार पर समाज को देखें तो सारी जातियों का विघटन साफ दिखाई देता है। वैसे एक बात दूसरी भी है कि इस लेखक ने जितने भी पौराणिक ग्रंथ देखें हैं उनमें जन्म के आधार पर जाति का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। ब्राह्म्ण सबसे श्रेष्ठ हैं-यह हम भी मानते हैं पर योग्यता के आधार पर न कि जन्म के आधार पर। कबीर, रहीम और मीरा ब्राह्म्ण नहीं थे पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान उनके बिना अधूरा है। वह ब्राह्म्णत्व से आगे देवत्व की श्रेणी में आ गये। एक वशिष्ट ब्राह्म्ण थे तो रावण भी ब्राह्म्ण था पर उसे राक्षस कहा जाता है। ब्राह्म्णों ऋषियों और तपस्वियों की रक्षा का व्रत लेने वाले भगवान श्रीराम ने उसका वध किया।
कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म के आधार पर ही इन जातियों या वर्ण का निर्माण हुआ। संभव है कि बीच में कोई ऐसा काल आया हो जब यह जाति व्यवस्था कुछ लोगों ने जाति के आधार पर अपने आर्थिक आधार पर प्रचारित की हो ताकि उनकी पीढ़ियों का वर्चस्व बना रहे और उसके बाद यह दौर शुरु हुआ हो जो अभी तक चल सकता है। यह इस देश में संभव है क्योंकि 17 वर्ष हुई 6 दिसंबर की घटना को समाज में आज भी बेचा जा सकता है जब लोग इतना पढ़े लिखे और शिक्षित हैं तो फिर जाति के नाम पर बनायी गयी व्यवस्था को को 1700 वर्ष तक क्यों नहीं खींचा जा सकता? याद रखिये कर्मकांडों के निर्वहन के लिये लोगों को ब्राह्म्ण की जरूरत है जिस पर धन खर्च होता है जिसका सीधा संबंध बाजार से है। संभव है पुराने बाजार के सौदागरों ने अपनी चीजें रोज बिकवाने के लिये इस तरह का प्रचार किया हो ताकि ब्राह्म्ण अपना रोजगार कमायें और उनका सामान बिके। फिर जिस तरह आज राजनीति, कला, तथा फिल्म में हर कोई अपनी विरासत अपनी पीढ़ी के लिये छोड़ता है वैसे ही उस समय भी यही क्रम शुरु हुआ हो। हमारे यहां अब तो सरेआम कहा भी जाता है कि राजनीतिक का बेटा राजनीतिक, फिल्म अभिनेता का बेटा फिल्म अभिनेता और पत्रकार का बेटा पत्रकार नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? यही दौर उस समय भी शुरु हुआ होगा।
आज के संदर्भ में भी देखें। अपने आपको जातीय आधार पर श्रेष्ठ साबित करने की भावना दौलत, शौहरत और ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों को ज्यादा है क्योंकि उनका नित्य कर्म इस तरह का नहीं है कि स्वयं को ऊंची जाति का कह सकें। अधिकारी कितना भी बड़ा हो, है तो गुलाम ही न! दौलत मंद कितना भी हो पर काम कौनसा करता है ‘जनसेवा‘ का न! जो कि शुद्र होने का निशानी है। मगर आप उससे कह नहीं सकते क्योंकि वह तो अपने साथ अपनी जन्म की जाति की पहचान लिये घूम रहा है। हमारे देश के लोगों का आचरण कैसा है सभी जानते हैं।
आखिरी बात श्रीगीता के बारे में! उसमें कहीं भी जन्म के आधार पर जाति या वर्ण का संदेश नहीं है फिर भी ब्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शुद्र के कर्म बताते हुए यह भी कह गया है कि उनका निर्वहन करते हुए भगवान भक्ति करें। भगवान श्रीकृष्ण ने उसमें यह भी कहा है कि जो योग साधना, ध्यान और ज्ञानार्जन के साथ ही विज्ञान भी जानते हैं वह भक्त मुझे बहुत प्रिय हैं। यह उन्होंने कहीं नहीं कहा कि जन्म के आधार पर जातियां बनेंगी। उन्होंने शुद्रों का धर्म सेवा करना है पर आजकल सेवा का दावा करने वाले कितने लोग अपने आपको शुद्र मानेंगे। इतना ही नहीं उन्होंने अकुशल श्रम से परे रहने को भी तामस प्रवृत्ति बताया है-आजकल के समाजवादी, जनवादी तथा प्रगतिशील बुद्धिजीवी श्रीगीता तो नहीं पढ़ते पर एक विदेशी किताब को मजदूरी की गीता बताते हैं। देहाभिमान को उन्होंने नितांत मूर्खता माना है-इसके आधार पर अगर हम जन्म के आधार पर अपने को श्रेष्ठ या कमतर मानेंगे तो वह तामस प्रवृत्ति कहलायेगी। याद रहे भगवान श्रीकृष्ण दृढ़संकल्पित व्यक्ति को ही अपना भक्त मानते हैं चाहे वह कोई भी कर्म करता हो।
इतना ही नहीं उन्होंने सात्विक, राजस और तामसी गुणों की पहचान कराई है जो कमोबेश आदमी की वैचारिक स्थिति भी बताती हैं। उनके अनुसार कोई व्यक्ति काम करता है तो वही उसकी जाति भी वही है। कर्म के आधार पर श्रीगीता का जातीय विभाजन देखें तो यह साफ हो जाता है कि जातियां तो मिट ही नहीं सकती क्योंकि कर्मों का विभाजन ही ऐसा है।
वैसे वर्तमान जाति व्यवस्था और समाज की स्थित देखें तब भी यह देखा जा सकता है कि अब नइ्र्र जातियों का निर्माण हो रहा है। उच्च अफसर, चिकित्सक, राजनीतिज्ञ तथा फिल्मी सितारे अपने ही सहधर्मी व्यवसायियों के बच्चों के साथ अपने बच्चों का विवाह करवाते हैं। अनेक जगह शासकीय कर्मचारी पुरानी जाति व्यवस्था का उल्लंघन कर आपस में रिश्ते बना रहे हैं। यह लेखक कम से कम आठ अंतर्जातीय विवाहों में शािमल हो चुका है। लब्बोलुआब यह है कि पुरानी जातियों का ढांचा ढह चुका है पर नई बनी नहीं है। लोग भी अपने जातिगत व्यवसायों से दूर होकर नौकरियां कर रहे हैं पर चूंकि अपने को श्रेष्ठ साबित करना है इसलिये जन्म की जाति की पहचान जबरन साथ जोड़े हुए हैं। वैसे पद, पैसा और प्रतिष्ठा के आधार पर नई जातियां भी गयी हैं उनकी पहचान स्थापित होना बाकी है है। हम कहेंगे कि दो जातियां हैं अमीर और गरीब तो लोग कहेंगे कि इसने कहीं से नारा चुरा लिया। बहरहाल भगवान श्रीकृष्ण के भक्त सहजयोगियों को इसकी आवश्यकता भी नहीं होती।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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3 comments:

संगीता पुरी said...

जाति प्रथा से संबंधित हर पहलू को दर्शाता बहुत ही सशक्‍त आलेख है ये .. सचमुच विश्‍व में जातियों का विभाजन समाप्‍त नहीं हो सकता .. भले ही हर युग में इसके आधार अलग अलग हो जाएं !!

श्याम जुनेजा said...

asambhav ko sambhav karta raha hai vigyan..aadmi ka vikas ek satat yatra hai.. parivar nam ki sanstha hi apna aakar kho kar vilupat hone ko agrsar hai aane wwale samay mein vivah bhi apna arth kho dene wala hai aise mein jation ka bach rahna ya unhein bachaye rakhne ke pryas ka koi ouchity najar nahi aata ye to rajneeti hai jisne ise dylisis par bacha kar rakha hua hai varna jis din aam aadmi talismon ko tad kar jeevan ko jeevan ki tarh jeene ko udhayat ho uthega ye sab cheezein malbe mein badal jayengi

श्याम जुनेजा said...

asambhav ko sambhav karta raha hai vigyan..aadmi ka vikas ek satat yatra hai.. parivar nam ki sanstha hi apna aakar kho kar vilupat hone ko agrsar hai aane wwale samay mein vivah bhi apna arth kho dene wala hai aise mein jation ka bach rahna ya unhein bachaye rakhne ke pryas ka koi ouchity najar nahi aata ye to rajneeti hai jisne ise dylisis par bacha kar rakha hua hai varna jis din aam aadmi talismon ko tad kar jeevan ko jeevan ki tarh jeene ko udhayat ho uthega ye sab cheezein malbe mein badal jayengi

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