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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/24/10

गुलामों की भाषा-हिन्दी लेख (gulam bhasha-hindi lekh

आजकल के बाज़ार और प्रचार का खेल देखकर लगता है कि कहीं न कहीं वह समाज को नियंत्रित करने के प्रयास निरंतर करता है। बुजुर्ग लोग कहते हैं कि ‘पीछे देख आगे बढ़’। हम पिछला इतिहास देखते हैं तो आगे का भविष्य लिखना मुश्किल होता है और वर्तमान में उसको देखकर आगे बढ़ते हैं तो समझ में यह नहीं आता कि पीछे वाले की रचना कैसी रही होगी? दूसरी बात यह भी कि पीछे वाले की चिंतन क्षमता और अभिव्यक्ति की शैली पर प्रश्न उठते हैं तो उसका निराकरण करना कठिन होता है। ऐसे में बेहतर तरीका यह है कि बहते हुए दरिया के किनारे पर बैठक उसमें बह रहे पानी स्त्रोत की कल्पना करें।
हमने देखा है कि सदा से ही राजनीति, समाज, तथा आर्थिक शिखर पुरुषों के प्रचार से भरा पड़ा रहा है। इसमें बुराई नहीं देखें पर आजकल तो बाज़ार तथा उसका प्रचार खुलकर शिखर पुरुषों के निर्माण का भी काम कर रहा है और इसमें कथित रूप आधुनिकता का दावा करने वाले पुराने वंशवाद के बीज समाज में बोते हैं-स्पष्टतः संदेश देते हैं कि आम आदमी की कोई औकात नहीं है। नेता के पुत्र-पुत्री को नेता, अभिनेता के पुत्र-पुत्री को अभिनेता तथा तथा पूंजीपति के पुत्र-पुत्री को पूंजीपति बताकर उनके शिखर पर बैठने से पहले ही उनका गुणगान करने लगते हैं। यह बाज़ार तथा उसका प्रचारतंत्र कभी कभी यह बताना भी नहीं भूलता कि समाजा के विभिन्न क्षेत्रों के शिखर पुरुषों के पुत्र पुत्रियां विरासत संभालने की तैयारी कर रहे हैं।
हम इस पर आपत्ति नहीं जता रहे बल्कि इतिहास को चुनौती देने जा रहे हैं क्योंकि भारत आज विश्व जगत पर महानतम होने की तरफ अग्रसर है पर उसका कोई शिखर पुरुष इसके योग्य नहीं है कि बाहरी दुनियां पर प्रभाव डाल सके। भारत में भी प्रचार माध्यम भले ही अपनी व्यवसायिक मजबूरियों के कारण भावी शिखर पुरुषों के स्वागत के लिये जुटा हुआ है पर आम जनता तो एक लाचार और बेबस सी दिखती है।
इसका मतलब यह है कि बाज़ार और उसका प्रचार तंत्र एक ऐसे नकली इतिहास का निर्माण करता है जो अस्तित्व नहीं होता। हमारा बाज़ार तथा प्रचार जिन शिखर पुरुषों को गढ़ता है विश्व समुदाय में उसका सम्मान न के बराबर है और है तो केवल इसलिये कि भारतीय समुदाय के शिखर पर वह बैठे हैं।
इधर एक दूसरी बात भी दिख रही है। विदेश में कोई किसी विश्वविद्यालय का कुलपति क्या प्रोफेसर बन जाये या किसी विदेशी प्रयोगशाला में काम करने लगे तो उसका खूब यहां प्रचार होता है। सवाल यह है क्या हमारे देश में कोई गौरवान्वित प्रतिभा नहीं है। दूसरी बात यह है कि देशभक्ति की बात करने वाले बाज़ार के सौदागर तथा उनके प्रचार प्रबंधक क्या इस बात को नहीं जानते कि हर कोई उस देश के लिये वफदार होता है जहां वह रहता है। ऐसे मे विदेश में प्रतिष्ठित भारतीयों से वह क्यों आशा करते हैं कि वह अपने देश के लिये वहां काम करेंगे?
खासतौर से ब्रिटेन और अमेरिका को लेकर भारतीय प्रचार माध्यम अपनी अस्थिर मनोवृति दिखाते हैं। सभी जानते हैं कि ब्रिटेन और अमेरिका स्वाभाविक समानताओं के बावजूद हमारे ही दुश्मन देश पर हाथ रखते हैं। अपने और भारत के आतंकवाद के बीच वह फर्क करते हैं। इतना ही नहीं मानवाधिकारों के नाम पर भारतीय आतंकवादियों को संरक्षण भी देते रहे हैं। सीधी बात कहें तो यह मित्र देश तो कतई नहीं कहे जा सकते। चीन का धोखा प्रमाणिक हैं पर इन दोनों देशों की मित्रता कोई प्रमाणिक नहीं है ऐसे में इनकी गुलामी करने वाले भारतीयों की अपने देश में गुणगान करने की बात समझ में नहीं आती। यह प्रचार माध्यमों की कमजोरी है जिसकी वजह से अमेरिका और ब्रिटेन के यही सोचते हैं कि हम चाहे भारत को कितना भी अपमानित करें वहां की जनता में हमारे विरुद्ध कभी वातावरण नहीं बन सकता क्योंकि वहां के प्रचार माध्यम तो हमारे यहां अपने गुलामों को देखकर खुश होते हैं।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक बार भारत के बंटवारे के बारे में लिखा था। उसने जो लिखा था उसे पढ़कर तो हमें यही लगा-उसकी भाषा में सीधे नहीं लिखा गया था-कि उस समय की पूंजीपति ताकतें जहां तक भारत को संभाल सकती थी वहीं तक उन्होंने अपना देश बनाया। बाकी जगह पाकिस्तान बनने दिया। उन्होंने तो यह बात केवल कश्मीर के संबंध में कही थी कि वहां का उस समय के लोकप्रिय नेता ने कहा था कि वह तो इतना ही कश्मीर देख सकता है और बाकी तक उसकी पहुंच नहीं है-जहां पहुंच नहीं थी वह पाकिस्तान के पास है। उसे पढ़कर तो एक बारगी यह लगा कि पूरा का पूरा स्वतंत्रता आंदोलन ही समाज को व्यस्त रखने का एक बहाना भर था, असली रूपरेखा तो बाज़ार तथा उसके प्रचार माध्यम तय करने लगे थे। यकीनन उस समय बाज़ार तथा प्रचार माध्यम इस तरह ही शिखर पुरुषों का निर्माण करते रहे होंगे जैसे कि आज कर रहे हैं। इतिहास तो जो लिखा गया उस पर अब क्या लिखें।
अपने सामने ही ढेर सारे झूठ को इतिहास बनते देखा है। कई घटनाओं को एतिहासिक बताया गया पर उनका प्रभाव समाज पर स्थाई रूप से नहीं पड़ते देखा। कई कथित महापुरुष जिन्होंने शिखर पर बैठकर केवल मुखौटे की तरह काम किया आज उन्हें देवता बताकर प्रस्तुत किया जाता है। अनेक ऐसे आंदोलन चले जिनका परिणाम नहीं निकला पर चल रहे हैं। इतना ही अनेक आंदोलनों के पीछे उनके आर्थिक स्त्रोत भी संदिग्ध रूप से दिखते रहे हैं पर प्रचार माध्यमों में चर्चा की जाती है
सैद्धांतिक मुद्दों पर जिनका कोई मतलब नहीं दिखाई देता।
देश के आम आदमी से कोई विशिष्टता प्राप्त न करे इसके लिये शिखर पुरुष, पूंजीपति तथा प्रचार एकजुट हैं। हम समाज के किनारे बैठकर देखें तो आजादी से पहले जो महान थे उसके बाद कोई बना ही नहीं। आजादी से पहले भी एक ही महान शख्सियत थी, महात्मा गांधी और फिर कोई नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य की बात करें! कितने पद्मश्री बंट गये पर संत कबीर, तुलसी, मीरा, रहीम तथा अन्य भक्तिकालीन रचयिताओं के मुकाबले कोई नहीं ठहरा। बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों ने कोशिश भी नहीं की केवल अपने अनुगामियों को ही आगे बढ़ाया। हालत यह हो गयी है कि अंग्रेजी से महान लेखक छांटे गये और जिनका नाम आम जनता के सामने नहीं आता उनको अनुवाद के माध्यम से लाया गया। हमने अनेक महान लेखक सुने, देखे और पढ़े पर जब भक्तिकालीन रचयिताओं पर नज़र डालते हैं तो सभी कंकड़ पत्थर लगते हैं।
बाज़ार और संगठित प्रचार माध्यमों का जब यह हाल देखते हैं तो उसमें सक्रिय लोगों की बुद्धि पर तरस आता है पर गुलामी संस्कृति के पोषकों से आशा भी क्या की जा सकती है। उनको पहले तो हिन्दी बोलने में ही हिचक होती है अगर बोलते हैं तो अंग्रेजी के शब्द उसमें मिलाते हैं ताकि आम आदमी से अलग लगें-वैसे यह उनकी भाषा संबंध कमजोरी भी हो सकती है। आजकल यह मांग भी होने लगी है कि हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द शामिल किये जायें। दरअसल कुछ सतही सोच वाले विचार वालों का यह शगूफा है क्योंकि चाहे कितना भी कहा जाये पर सच यह है कि बाज़ार की जरूरत हिन्दी बन गयी है इसलिये हिन्दी न सीख सके वह अपनी पैठ बनाने के लिये ऐसे प्रयास कर रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी में लिखेंगे तो उनको पढ़ेगा कौन? उसमें लिखने वाले भी कम थोड़े ही हैं। बहरहाल गुलामी संस्कृति को ढो रहा समाज अब भाषा के सहारे अपने ही देश के साफ सुथरी हिन्दी समझने वालों को भी अपना गुलाम बनाना चाह रहा है। बाज़ार में हिन्दी ही बिक रही है ऐसे में अंग्रेजी में पढ़े लिखे बौद्धिक वर्ग के पास अपना रोजगार बचाने के लिये यही एक रास्ता है कि वह अंग्रेज देश तथा वहां रहने वाले भारतीयों का गुणगान करने के साथ ही हिन्दी में अंग्रेजी शब्द लादने की वकालत करे ताकि शिखर पुरुषों के लिये वह जो चरण वंदना करे वह सुनी जाये क्योंकि वही तो इनाम बांटते और बंटवाते हैं। दरअसल उनकी भाषा ही गुलाम भाषा कही जा सकती है जिसमें स्वतंत्र और मौलिक रचनाओं की गुंजायश नहीं  रह जाती।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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