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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/17/10

अपराधों में वर्गीकरण करना ठीक नहीं-हिन्दी लेख (apradh aur kanoon-hindi lekh)

पिछले कई दिनों से देखा गया है कि जब भी कोई नया सामाजिक, आर्थिक या पारिवारिक विवाद प्रचार माध्यमों में चर्चा क्रे लिये लगातार आता है तो उस पर नियंत्रण करने के लिये कानून बनाने की मांग उठत्ी और कई विषय पर कानून बना भी दिया जाता है। ऐसा लगता है कि कानून बनाने की मांग करना या बनाना भी लोकप्रियता का माध्यम बन गया है। मुख्य बात यह है कि कानून का लागू करने वाली संस्थाओं को मजबूत बनाने की बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
भारत में कानून लागू करने वाली सबसे बड़ी संस्थाओं में स्थानीय पुलिस को माना जाता है और अगर समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपे समाचारों पर यकीन करें तो अनेक जगह पुलिस बल की कमी के अलावा उसके पास आधुनिक साधनों की कमी की शिकायतें मिलती हैं। हम यहां भूल जाते हैंे कि अगर पुलिस बल और उसके अधिकारी अपने ऊपर काम का अधिक बोझ तथा साधनों की कमी अनुभव करेंगे तो अपराधों से निपटने की उनकी क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा। समस्या यही नहीं है कि पुलिस अपनी ढांचागत समस्याओं के चलते मामलों से निपट नहीं पा रही बल्कि देश की कागजी कार्यवाही पर आधारित कार्यप्रणाली भी पुराने ढर्रे पर चल रही है और उससे कानून को असरकार ढंग से लागू करना मुश्किल हो रहा है यह बात समझनी होगी।
इधर सम्मान के लिये हत्या तथा कन्याओं के साथ घर में अन्याय को लेकर कानून बनाने की मांग के साथ विचार भी चल रहा है। समझ में नहीं आता कि आखिर इस देश में सोच का अकाल क्यों पड़ गया है? देश की व्यवस्था चलाना मजाक नहीं है पर लगता है कि इसे गंभीरता से भी नहीं लिया जा रहा। हर जरा से विवाद पर कानून बनाने का फैशन देश के संविधान के प्रति नयी पीढ़ी में विश्वास कम कर सकता है।
जहां तक चर्चित विवादों के चलते उससे संबंधित विषय पर कानून बनाने की मांग करना या बनाना लोकप्रियता प्राप्त करने का साधन लगता है पर देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, आतंकवाद तथा आर्थिक विषमतओं के कारण अपनी निजी समस्याओं से जूझ रहे लोग इससे अधिक खुश होते। उनके निजी जीवन के संघर्ष इतने दुरूह हो गये हैं कि इनकी तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। इसके अलावा जो जागरुक लोग हैं वह देश की हालत देखते हुए इस बात को समझते हैं कि यह कानून होने या न होने से अधिक उसे लागू करने का विषय है।
सम्मान के लिये हत्या या कन्याओं को घर में परेशान करने जैसे विषय गंभीर है। देश में स्त्रियों की दशा सदियों से ही खराब है और उसमें कोई सुधार नहीं हुआ। यह कानून से अधिक समाज सुधारकों के लिये शर्म की बात है और देश में सक्रिय धर्म प्रचारकों के लिये तो डूब मरने वाली बात है जो यहां महापुरुष होने का दावा करते हैं।
कहने का आशय यह है कि समाज की समस्याओं के लिये कानून कम उसके शिखर पुरुष अधिक दोषी है जो समय समय पर अपने अपने सामाजिक समूहों को अपने लाभ के लिये एकत्रित करते हैं और मतलब निकलते ही उसे अपने हाल में छोड़ देते हैं।
हमारे देश में दहेज एक्ट और घरेलू हिंसा जैसे कानून बने और समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा अन्य प्रचार माध्यमों में अक्सर इस तरह की चर्चा होती है कि इसका दुरुपयोग हुआ है। इतना ही इसमें निर्दोष पुरुष परेशान हुए और दोषियों का बाल बांका भी न हुआ है। आतंकवाद के लिये यह कानून तो देर से बना कि अपराधी अपने को निर्दोष साबित करे दहेज एक्ट में इसका प्रावधान पहले ही कर दिया गया था। निर्दोष लोग परेशान हुए क्योंकि वह सामान्य वर्ग के थे जो बचे वह ऊंचे वर्ग के थे पर यह बात केवल इसी कानून को लागू करने के बारे में नहीं बल्कि हर अपराध में ऐसा ही देखने में आता है।
इधर कुछ घटनायें ऐसी हुई है कि अपने परिवार या समाज की मर्जी के खिलाफ विवाह करने वाली युवतियों की उनके अपने लोगों ने ही हत्या कर दी। आजकल ऐसे समाचार खूब छाये हुए हैं और इस पर कानून बनाने की मांग हो रही है। सवाल यह है कि क्या वर्तमान कानून के चलते इससे निपटना कठिन है?
शायद नहीं! किसी की हत्या करना अपराध है, और इसके लिये अलग से कानून बनाने की कहना ही अपनी सोच के संकीर्ण होने का प्रमाण है। हत्या के प्रकरण में जमानत बड़ी कठिनाई से होती है। हत्या चाहे किसी की भी हुई हो और किसी ने भी की हो उससे निपटने के लिये अलग से कानून बनाने की आवश्यकता इतनी नहीं लगती जितनी प्रकरण से सक्षमता से निपटने की।
महिलाओं के लिये दहेज एक्ट जैसा कानून किसलिये बना? दहेज लेना देना दोनों ही जुर्म है और अनेक प्रकरणों में लड़कियों के माता पिता स्वीकार करते हैं कि उन्होंने दहेज दिया? क्या वह कानून से परे हैं जो उन पर कार्यवाही नहीं की गयी। कन्या भ्रुण हत्या का कानून बना पर उसकी धज्जियां उड़ते हुए सभी ने देखी हैं। सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीना वर्जित कानून में किया गया पर क्या उसे रोका जा सका।
एक बात निश्चित है कि कानून में हत्या, बेईमानी, डकैती तथा ठगी जैसे अपराध रोकने के लिये पर्याप्त प्रावधान है। इसलिये अपराधों में वर्गीकरण करने की बात समझ में नहीं आती। यह अलग बात है कि हमारे देश के प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी वर्ग अपराधों में जाति, भाषा, धर्म, तथा क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों से सोचते हैं पर उनके कहने पर व्यवस्था चलाने को मतलब है कि अंधेरे कुंऐ में देश को ढकेलना। सच तो यह है कि दौलत, शौहरत और बाहुबलियों के बंधुआ बुद्धिजीवी केवल रुदन कीर्तन के अलावा कुछ नहीं करते क्योंकि उनके पास अपनी सोच नहीं है। इसलिये कानून बनाने और उसे लागू करने के विषय में व्यवहारिक ज्ञान के साथ काम करना चाहिए।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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