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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/4/10

कप्तान की शादी और प्रचार माध्यम-हिन्दी लेख (marrige of cricket captain and media-hindi lekh)

बीसीसीआई क्रिकेट टीम के कप्तान की शादी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हमने एक समाचार चैनल खोला था समाचार सुनने के लिये है पर कप्तान की शादी का प्रसंग सामने आ गया। इस लेखक ने अक्सर देखा है कि जब बाजार के उत्पादों के किसी विज्ञापन के माडल के-इनमें से अधिकतर क्रिकेट और फिल्म के होते हैं-शादी होने या राजनीति में आने की खबर होती है तो सभी चैनल उसे एक ही समय में प्रसारित करते हैं ताकि दर्शक भाग कर कहीं जा नहीं पाये और न ही उस माडल की आम आदमी उपेक्षा की जा सके। कहने को सारे चैनल अलग दिखते हैं ऐसे मौके पर एक हो जाते हैं। बाजार का उन पर कितना जोरदार नियंत्रण है यह ऐसे मौके पर देखा जा सकता है। इस लेखक ने कम से कम आठ समाचार चैनल बदले होंगे पर हर जगह बस वही बात! कप्तानी की शादी हो रही है इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आज बाज़ार में घूमते हुए कहीं भी यह सुनाई नहीं दिया कि कप्तान की शादी हो रही है जबकि प्रचार माध्यम शोर मचाये हुए थे। ऐसे में व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का यह दावा खोखला दिखता है कि वह तो दर्शकों की मांग के अनुरूप अपनी प्रस्तुति करते हैं। एक अभिनेता की राजनीति में आने की खबर पर भी ऐसा ही देखा गया था।
भारतीय प्रचार माध्यमों तथा आम नागरिकों के बीच अब एक लंबी मनोवैज्ञानिक खाई बन गयी है जिसे हम विश्वास का संकट भी कह सकते हैं। दरअसल प्रचार संगठनों में काम करने वाले लोग जहां अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति का महत्व समझते हैं वहीं यह भूल जाते हैं कि अंततः आम आदमी की सहानुभूति के बिना उसका लाभ उठाना संभव नहीं है। एक तरफ प्रचार माध्यम आम आदमी को निहायत मूर्ख मानकर अपने आय अर्जन के इकलौते लक्ष्य पर काम कर रहे हैं वहीं आम आदमी उनको व्यवसायिक छल प्रपंच मानकर उनकी बात पर ध्यान नहीं देता।
ऐसे में अनेक बुद्धिजीवी आम आदमी के चेतना विहीन होने की शिकायत कर रहे हैं तो उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उनकी सीमित सोच ने आदमी के दिमागी दायरे को अत्यंत सीमित कर दिया है। हम टीवी चैनलों और समाचार पत्रों कि महत्व को जानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि हमें यह भी पता है कि उनकी समाज निर्माण में अत्यंत प्रभावी भूमिका हो्रती है। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि प्रचार माध्यमों की भूमिका किस तरह की है और अगर हम समाज को सुप्तावस्था में देख रहे हैं तो उसके पीछे उनकी कितनी जिम्मेदारी है?
सबसे बड़ी बात यह है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम मानते हैं कि जो लोग देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं वही हम प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसके बिना व्यवसाय नहीं चलता।
अगर वह इस तर्क पर काम करते हैं तो उससे जुड़े बुद्धिजीवियों को यह शिकायत नहीं करना चाहिए कि समाज सो रहा है।
समाचारों से जुड़े टीवी चैनलों और अखबारों के संचालकों को अब इस बात का आभास नहीं है कि उनका जिम्मा केवल अपने उपभोक्ताओं के सामने समाचार प्रस्तुत करना ही नहीं है वरन् संपादकीय, लेखों तथा चर्चाओं के द्वारा उनमें विचार निर्माण करने का काम भी है। यहां वह यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि हर आदमी पढ़ा लिखा है और वह स्वयं ही विचार कर सकता है। एक ब्लाग लेखक के रूप में हम भी यह देख रहे हैें कि अनेक स्तंभकार ब्लाग लेखकों की रचनाओं से विचार लेकर लिख रहे हैं। इसका आशय यह है कि विचारों का क्रमिक विकास तभी संभव है जब कहीं दूसरी जगह से पढ़ा, सुना और देखा जाये।
अब जरा समाचार टीवी चैनलों और अखबारों के समाज में विचार निर्माण के प्रयासों को देखा जाये तो यह नहीं लगता कि वह इस काम को गंभीरता से ले रहे हैं। इस मामले में दूरदर्शन के कुछ प्रयास गंभीरता लिये हुए लगते हैं जबकि व्यवसायिक चैनल पूरी तरह से लापरवाही दिखाते हैं। टीवी चैनलों ने कुछ खास मौकों के लिये दो चार विशेषज्ञ तय कर रखे हैं जो क्रिकेट, आतंकवाद, रेल या बस हादसों तथा महिला उत्पीड़न जैसे विषयों पर आकर रटी रटाई बातें बोलते हैं और खानापूरी हो जाती है। यही स्थिति अनेक समाचार पत्रों की है। उनके लेखों तथा संपादकीयों में समाचारों के दोहराव के अलावा थोड़ी बहुत राय होती है पर वह बेबाक नहीं लगती। इतना ही नहीं उनके विचारों का प्रस्तुतीकरण भी इतना कमजोर रहता है कि पाठक या दर्शक उसे अधिक देर तक ध्यान नहीं रख पाता। यही कारण है कि आजकल कहीं भी कोई बुद्धिमान किसी अखबार की राय का बयान कर अपनी बात नहीं रखता। अखबारों के समाचारों की चर्चा अक्सर मिलती है पर विचार एकदम लापता लगता है।
समाचार टीवी चैनलों ने तो बहुत निराश किया है? जब दूरदर्शन अकेला था तब उसके समाचार सुनने की आम लोगों में एक आदत हो गयी थी और व्यवसायिक समाचार चैनलों ने उसका दोहन भी खूब किया पर उसको नियमित बनाये रखने में नाकाम रहे। यही कारण है कि प्रतिदिन समाचार देखने वाले बहुत लोग अनेक दिन तक तो समाचार चैनल खोलकर देखते तक नहीं हैं। एक घंटे तक समाचार दिखाने का दावा करने वाले यह सभी चैनल बुमश्किल पांच मिनट समाचारों के लिये हैं-उनका शेष समय क्रिकेट, फिल्म और फूहड़ हास्य प्रस्तुत करने में बीत जाता है। यह विज्ञापन चैनल जैसे हो गये हैं। एक तरह से संदेश देते हैं कि यह समाचार और विचार देखना छोड़कर उस तरफ जाओ जो हमारे बाजार नियंत्रकों ने सजा रखा है।
ऐसे में निराश हाथ लगती है। स्थिति यह है कि समाज में चेतना लुप्त होती जा रही है और जिनमें चेतना है उनके पास ऐसे साधन नहीं है जिससे उसमें निरंतरता बनी रहे। हालांकि इधर हिन्दी ब्लाग जगत पर काफी बेबाक राय सामने आ रही है पर वहां जागरुक लोगों की पहुंच अधिक नहीं है। दूसरा यह भी है कि ब्लाग जगत को लेकर प्रचार माध्यम योजनापूर्वक इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि यहां बाजार के मुखौटे ही प्रसिद्ध बने न कि आम लेखक। यही कारण है कि क्रिकेट खिलाड़ियो, फिल्म अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के ब्लाग तथा वेबसाईट या ब्लाग बनाने के समाचार देते हैं। इससे समाज में यह धारणा बनती जा रही है कि ब्लाग केवल खास लोगों की अभिव्यक्ति के लिये है।
इस लेखक ने अपने एक कार्टूनिस्ट मित्र को ब्लाग बनाने की राय दी तो उसका जवाब था कि मैं भला कोई एक्टर या क्रिकेट खिलाड़ी हूं जो कोई मेरा ब्लाग देखेगा।’
दूसरी मजे की बात यह है कि इस लेखक के अनेक पाठ बिना नाम के छापे जा रहे हैं। गांधी जयंती पर इस लेखक के लिखे गये पाठों का एक स्तंभकार ने उपयोग किया। इस लेखक के मित्र तथा पढ़ने वाले लोग जानते हैं कि उन पाठों में जो विचार व्यक्त किये गये थे वैसे किसी बुद्धिजीवी ने नहीं किये। जो लोग गांधी विषय पर विशारद होने का दावा करते हैं वह उन लेखों को पढेंगे तो हैरान रह जायेंगे-एक लेखक मित्र ने उनको पढ़कर यही कहा था। मगर यह आत्मप्रवंचना नहीं है बल्कि यह बताया जा रहा है कि समाचार में चिंतन और विचार का जो संकट है वह प्रचार माध्यमों की उपेक्षा तथा रूढ़ता के कारण है और हिन्दी ब्लाग जगत ही उसका सामना करने में सक्षम है और यह बेहतर होगा कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम इस आशंका से परे हो जायें कि यहां ब्लाग लेखकों नाम सहित अपने यहां स्थान देने से कोई ऐसी लोकप्रियता मिल जायेगी कि बाजार की बड़ी कंपनियों के विज्ञापन उनको मिलने लगेंगे। अलबत्ता हिन्दी में चिंतन तथा विचार के क्षेत्र में जो जड़ता की स्थिति है उससे निपटने लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम ब्लाग लेखकों से तारतम्य बनायें। अगर क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्म अभिनेताओ तथा अभिनेत्रियों की शादी तथा प्रेम प्रसंगों से समय काटने को ही वह अपना व्यवसायिक धर्म समझते हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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