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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/30/11

उपभोक्ता और किसान तो शोषण के लिये बना है-हिन्दी लेख (consumar and formers for earning-hindi article)

        किराना के खेरिज व्यापार में विदेशी निवेश पर चल रही बहस में कई बातें दिलचस्प हैं। यकीनन अगर हम उनको सुने तो अपनी बात प्रभावी ढंग से न रख सकते हैं न सोच सकते हैं। जहां तक हमारी इस विषय पर अपनी सोच यह है कि अभी तक इससे देश के लाभ या हानियों पर किये गये अनुमान उस रूप में प्रकट नहीं होंगे जिस तरह व्यक्त किये जा रहे हैं।
            हम लाभ हानियों से अलग हटकर एक बात जरूर मानते हैं कि इस देश की समस्याओं का हल अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांतों के अनुरूप करने की बात तो यह कभी दिखाई नहीं दी। हम एक अर्थशास्त्री होने के नाते-अर्थशास्त्र हमारे अध्ययन के दौरान एक विषय रहा है इसलिये यह पदवी हमने स्वयंभू रूप से स्वयं धारण की है-मानते हैं कि अगर इस देश में राज्य प्रबंध अगर प्रत्येक गांव में स्वच्छ पानी, पक्की सड़क तथा बिजली की व्यवस्था कर ले तो इस देश में आर्थिक समस्यायें नगण्य रह जायेंगी। यह अलग बात है कि आज़ादी   के बाद इस पर भारी पैसा खर्च हुआ पर भ्रष्टाचार के कारण परिणाम शून्य ही रहा। गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, अशिक्षा तथा भुखमरी जैसी समस्यायें पूरी तरह से खत्म भले न हों पर वह गंभीर चिंता का विषय नहीं रहेगी। मूल बात कहें तो सरकार कल्याण के नाम पर दूसरे काम न भी करे तो चल जायेगा।
          यह कोई  अनिवार्य  शर्त नहीं हो सकती है कि गांव के विषय पर लिखने के लिये वहां पैदा होना जरूरी है। हम शहर में जन्मे हैं पर अनेक बार गांवों में जाने का अवसर मिला। उससे यह लगता है कि वहां मूलभूत सुविधाओं का पूर्णतः अभाव है। बरसात के दिनों में जब गांवों में सब्जी, गेंहु, चावल तथा दूध अधिक मात्रा में होता है तब वहां से उसे निकालकर शहर पहुंचाने के लिये कितनी मुश्किल होती है यह हमने स्वयं देखा है। उस समय अशुद्ध जल की वजह से बीमारी अपना रौद्र रूप दिखाती है तब यह गांव के मार्ग इस कदर नाले में बदल जाते हैं कि रात को किसी मरीज को गांव से बाहर पास के बड़े गांव या शहर ले जाना लगभग असंभव होता है। इसी कारण छोटी बीमारी में लोग वहां मर जाते हैं। गांव में अगर अस्पताल भी हो तो वहां चिकित्सक पहुंच नहीं सकता। वैसे सामान्य हालत में भी स्वास्थ्य कमी वहां पहुचंने से कतराते हैं। अगर आजादी के बाद हम देश के पूरे गांवों में शुद्ध जल, बिजली और पक्की सड़क जैसी सुविधायें नहीं पहुंच पाये तो यह संकट हमारी प्रबंध व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। शहरों के पास जो गांव हैं उनमें शायद ऐसा आधारभूत ढांचा मिल जाये पर जो दूर हैं उनकी समस्याओं पर कितना सोचा गया यह अलग से विचार का विषय है।
     विदेशी कंपनिंयां अगर भारत आ रही हैं तो वह कोई आधारभूत ढांचा नहीं बनायेंगी बल्कि उनका अपनी सुविधानुसार दोहन ही करेंगी। जहां आधारभूत ढांचा नहंी है वहां उनको उन्हीं बिचौलियों पर निर्भर रहना होगा जिनको हटाने की बात हो रही है। इधर हम सुन रहे हैं कि अमेरिका और यूरोप गंभीर रूप से आर्थिक संकट में हैं और अब वहां विकासशील देशों के निचले स्तर पर जाकर कमाने की बात हो रही है। हमने अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा को यह कहते हुए पढ़ा था कि हमें विदेशों में जाकर छोटे स्तर पर काम करना होगा। अमेरिका की विदेशमंत्राणी हेनरी क्लिंटन ने भी कहा था कि काम के बारे में भारतीयों से सीखना चाहिए।
          बहरहाल इस बहस में एक महत्वपूर्ण समाचार पर चर्चा किसी ने नहीं की कि अमेरिका ने पाकिस्तान के 28 सैनिकों को मार दिया जिससे दोनों देशों के बीच गंभीर तनाव है। पाकिस्तान ने अपना एक हवाई अड्डा अमेरिकी सेना से खाली करने को कहा है। इतना ही नही उसने संयुक्त राष्ट्र में भी यह मामला उठाया है। भारतीय प्रचार माध्यम इस पर खबर देकर चुप हो गये हैं। उनको शायद इसका अंदाजा नहीं है कि अंततः यह तनाव युद्ध में बदल सकता है। अगर पाकिस्तान अमेरिका के हाथ से निकल गया तो उसका राजनीतिक प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप से करीब करीब खत्म होने जैसा ही है। हमारा मानना है कि अमेरिका से अधिक मित्रता से अब कोई लाभ नहीं है। वह सामरिक रूप से शक्तिशाली है पर उसका आर्थिक ढांचा करीब करीब गड़बड़ाने लगा है। ऐसे में पाकिस्तान की राजनीतिक बगावत उसके सम्राज्य में आखिरी कील की तरह लग सकती है। देखा जाये तो पाकिस्तान अपने सहधर्मी देशों का एक तरह से प्रवेश द्वार है। भले ही वह एक सार्वभौमिक राष्ट्र की तरह दिखता है पर संक्रमण काल में उसकी सरकार की बैठक सऊदी अरब में होती है तो क्रमवार होने वाले क्रिकेट मैच दुबई या आबुधाबी में होते हैं। जिन दूसरे देशों की क्रिकेट टीमों का क्रम में पाकिस्तान का दौरा होता है वह दुबई या आबुधाबी में उसके साथ मैच खेलती हैं। ऐसे में पाकिस्तान के साथ अमेेरिका का तनाव मध्यएशियाई देशों तक विस्तृत हो सकता है। यह देश एक तरह से अमेरिका की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं।
         बहरहाल अब बड़े विषयों पर बड़े विद्वानों की चर्चा सुनकर ऐसा लगता है कि निरपेक्ष या स्वतंत्र प्रेक्षकों की बातें दमदार होती हैं पर महत्व केवल संगठित विद्वानों को ही दिया जा रहा है। अनेक स्वतंत्र विद्वानों ने किराना के खेरिज व्यापार में विदेशी निवेश पर अपनी राय बेबाकी रूप से रखी। वह इससे चिंतित नहीं है पर खुश भी नहीं है। जहां तक किसानों और उपभोक्ताओं के हित का प्रश्न है तो सवाल यह है कि इन दोनों रूपों में हर मनुष्य शोषित होता है और अगर उसे प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाये तो पूरी दुनियां का व्यापार ही ठप्प हो जाये। वाल मार्ट आये या नहीं यह समस्या शोषितों के आपसी द्वंद्व का विषय है। यह अलग बात है कि समय के अनुसार बाज़ार और प्रचार के अनुसार समाज का स्वरूप बदलता रहता है और उसे रोकना कठिन है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  Bharatdeep, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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