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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/26/14

अराजकता से बचने के लिये ही करते हैं जनगणमन मंत्र का जाप-26 जनवरी गणतंत्र(arakata se bachne ke liye hi karte hain janagan matra ka jap-special hindi article or lekh on 26 january and republic day)



      26 जनवरी गणतंत्र का दिन बीत गया। हर बार की तरह इस बार भी शासकीय, अशासकीय तथा सामाजिक स्तर पर अनेक कार्यक्रम हुए। अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये 26 जनवरी गणतंत्र दिवस तथा 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस राष्ट्रीय महत्व के तो होते हैं पर सामाजिक रूप से वह इनको अधिक प्रभावी नहीं अनुभव कर पाते। भौतिक रूप से 65 वर्ष में बहुत कुछ बदला है पर अध्यात्मिक रूप से जो पतन हुआ है उसका आंकलन करने का प्रयास कोई नहीं करता। मुख्य बात यह है कि समस्याओं को लेकर सार्वजनिक चिंत्ताओं को पहले निराशा फिर आक्रोश में बदलने वाले लोग जब जनगण के मंत्र के सहारे पद पर पहुंच जाते हैं तब वह कुछ कर नहीं पाते।  चिंत्ताओं का निराकरण चिंत्तन से होता है पर पद पर बैठने के बाद आसपास सुविधाओं का जो संग्रह होता है उससे अच्छे खासे आदमी की बुद्धि भ्रष्ट होने के बाद किसी से वैचारिक प्रक्रिया में शामिल होने की अपेक्षा करना एक मजाक लगता है।
      जब हृदय में राष्ट्रवादी विचारों का क्रम आता है तब लगता है कि जब तक इस देश में अंग्रेजी शिक्षा, राज्यप्रणाली तथा बौद्धिक प्रकृत्ति यहां स्थापित रहेगी तब तक हमारे  देश का उद्धार नहीं हो सकता। जब चिंत्तन अध्यात्मिक दौर में आता है तब यह देखकर संतोष होता है कि अंग्रेजी एक स्वचालित राज्य प्रबंध प्रणाली छोड़ गये जिसकी वजह से देश ऐसे ही चलता रहेगा। जणगणमन के मंत्र से राजकीय शिखर पदों पर पहुंचे लोगों को राज्य प्रबंध प्रणाली के सुचारू संचालन में अधिक बुद्धि नहीं लगानी पड़ती।  अगर यह न होती तो शायद प्रजा के लिये अधिक कठिनाई होती।  जनगण के तांत्रिकों को केवल इस प्रबंध प्रणाली को देखना भर है उसमें बदलाव करने का नारा भले ही वह देते हों पर करते नहीं। अच्छा है! कहीं अगर उसमें बदलाव करते हुए कोई ऊंच नीच हो जाये तो फिर जो अराजकता फैलेगी उसे रोकना कठिन है। इस राज्य प्रणाली के दोषों पर जनगण की चिंत्ताओं को अपना स्वर देकर अनेक लोग महान हो गये पर वह वैसे ही बनी रही। जो आया उसी राह चला।  पक्ष विपक्ष एक दूसरे पर व्यवस्था में दोष पैदा करने का आरोप लगाते रहे पर खैरियत है कि प्रबंध प्रणाली से छेड़छाड़ नहीं हुई। अगर एक करता तो दूसरा अपने ढंग से दूसरी तरह  करता। तब पूरी प्रबंध व्यवस्था अस्पष्ट तथा विवादपूर्ण हो जाती।  नहीं बदली तो वह यथावत है। देश में राज्य व्यवस्था है, यही आभास बहुत है।
      यहां गरीब, मजदूर तथा बेबस लोगों का एक बहुत बड़ा निम्न वर्गीय समुदाय है। जिसके उद्धार के लिये 65 साल से प्रयास हुए पर कुछ होता दिख नहीं रहा। अनेक बुद्धिमान, उत्साही तथा उदार लोगों ने इस निचले तबके के लिये बीड़ा उठाया।  अनेक राजकीय पदों पर पहुंचे तो कुछ ने अपनी अदाकारी से सम्मान पाये।  इस वर्ग का उद्धार होना भी नहीं था। इस वर्ग के लोगों में से कुछ लोगों उच्च वर्ग में आये पर बढ़ती जनसंख्या ने उनके उद्धार को फीका कर दिया।  निम्न वर्ग परेशान है पर संतुष्ट है कि राज्य व्यवस्था है वरना उसकी जिंदगी अधिक कठिन हो जाती।  कुछ उत्साही मानते हैं कि देश में अराजकता पैदा भी हो तो निम्न वर्ग को फर्क क्या पड़ता है? यह फिक्र तो उच्च वर्ग को ही करना चाहिये। इस तर्क की आलोचना को व्यापक रूप देने के लिये मूर्खतापूर्ण, कुतर्क या बकवाद शब्द जोड़ने  में डर लगता है क्योंकि इस देश में कुछ संगठन अराजकता में एक तरह की  क्रांति का संभावना देखते हैं। 
      इन संगठनों के शीर्ष पदों पर जिनमें उच्च वर्गों के वह लोग शामिल है जिनके पास सारी भौतिक सुविधायें हैं पर कहीं राजसी पद या वहां बैठे शिखर पुरुष की निकटता प्राप्त करने का भावनाऐं हैं।  संभवत इन संगठनों में वह लोग हैं जो आधुनिक राजपुरुषों के निवास स्थान, संपत्ति, उनको मिलने वाले सम्मान, प्रचार माध्यमों में उनके बयानों को सुर्खियों मिलने तथा साथ चलने वाले सुरक्षा कर्मियों को देखकर वैसा ही स्थान पाने का मोह पाल लेते हैं।  स्थापित राजनीतिक संगठनों में अपने लिये ऐसी संभावना न देखकर वह जणगणमन मंत्र का जाप कर प्रजा में व्याप्त निराशा को आक्रोश और फिर उसे अपने लिये समर्थन में बदलकर  उच्च पद पाने का प्रयास करते हैं।  उन्हें लगता है कि वह अराजकता का दाव खेलें पर प्रजा साथ नहीं देती तो वह कौम को मुर्दा होने की बात कहते हैं।
      जनगणमन का मंत्र हम क्यों जाप रहे हैं? इस प्रश्न का जवाब ही अराजकता के समर्थक लोगों को समझना चाहिये। अमीर हो या गरीब सभी को जान प्यारी है। राजा को भगवान के बाद दर्जा इसलिये नहीं दिया जाता है, कि वह उसका अवतार होता है बल्कि वह धरती पर भगवान की तरह खड़ा रहता है इसलिये उसे माना जाता है। हमारे इस अध्यात्मिक दर्शन के संदेश की मजाक उड़ाना सहज है पर उसे समझना जरूरी है।  मनुष्य इस धरती का सबसे कमजोर पर बुद्धिमान जीव है। उसके पास बुद्धि बहुत है पर विवेक सभी के पास नहीं होता।  आदमी का मन उसे देवता भी बना सकता है और राक्षस भी-तीसरी स्थिति यह है कि सामान्य मनुष्य ही बना रहे जिनकी संख्या इस धरती पर ज्यादा होती है।  इस मनुष्य जाति में उत्साही लोगों  के  दो रूपों में बदलने की  ही संभावना रहती है। देवता बना मनुष्य सामान्य मनुष्य के लिये वरदान तो राक्षस अभिशाप बन जाता हैं भगवान ने तो इस धरती पर भेज दिया पर मनुष्य समुदाय ने राजा का निर्माण स्वयं अपनी रक्षा के लिये किया।  पागल कुत्ता अनेक लोगों को काट सकता है पर सामान्य कुत्ता उत्तेजित होने पर केवल समाने आये व्यक्ति पर दांत गड़ाता है।  शेर की भूख शांत होने के बाद वह शिकार नहंी करता।  जगल में हजारों हिरण विचर सकते हैं। आदमी अपना पांव पास न लाये तो सांप नहीं काटता। इंसान की स्थिति अलग है। अगर उसे भय न हो तो वह कुछ भी कर सकता है।  इस भय को जिंदा रखने के लिये ही राजा का निर्माण हुआ।  राजा को भगवान का प्रतिनिधि इसलिये नहीं माना गया कि लोग अंधविश्वासी है बल्कि वह यह सोचते हैं कि भगवान ने प्रकृत्ति की व्यवस्था का निर्माण किया है मनुष्य का समाज के रूप में निर्माण में राजा उसे चलाता है।
      अमीर ही नहीं वरन् गरीब, मजदूर और बेबस भी चाहता है कि राज्य कुछ उसे न दे पाये पर कम से कम बना रहे ताकि कोई दूसरा मनुष्य अनावश्यक रूप से उसे परेशान न करे।  अपराध होते हैं पर विश्व में मनुष्यों की संख्या को देखते हुए वह नगण्य हैं। लोग रोटी चाहते हैं पर उससे ज्यादा जिंदगी का रहना पसंद करते हैं। अभावों के बाद संपन्नता की वह आशा करते हैं, कुछ लोगों की होती है पर जिनकी नहीं होती वह सभी बागी नहीं हो जाते। उनकी आशाओं को सपना दिखाकर उनका समर्थन लेकर उच्च पद की ख्वाहिश करने वालों को कम से कम अराजकता का बखान इसलिये भी नहीं करना चाहिये कि लोग उनकी इस बात को पसंद नहीं करते हैं।  याद रखें अराजकता से बचने के लिये ही  भारत में जनगणमन मंत्र का जाप हर वर्ग का आदमी करता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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