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1/21/14

विषयों के गुणों में आसक्ति का त्याग ही वैराग्य-पतंजलि योग साहित्य(patanjali yog sahitya-vishayon ke gunon mein aasakti ka tyag hee vairagya)



      हमारे देश में वैराग्य या सन्यास को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम प्रचलित हैं।  यह भ्रम पेशेवर गुरुओं ने ही प्रतिपादित किये हैं। सन्यास या वैराग्य कोई क्रिया नहीं वरन् एक मानसिक स्थिति है।  यदि यह देह है तो सांसरिक विषयों से संपर्क रखना आवश्यक है उनसे परे रहना संभव नहीं।  अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिये सभी को कर्म करना ही पड़ता है पर उनमे हमेशा  ही मन का लिप्त रहना अथवा खाली समय में भी उनका चिंत्तन करना अज्ञान का प्रमाण होता है।  हमें पेट पालने के लिये रोटी, पहनने के लिये कपड़े और रहने के लिये छत चाहिये।  भगवत्कृपा से वह मिल भी जाती हैं पर उनमें स्वाद, रंग और आकर्षण का बोध न रखना ही वैराग्य है। जो मिल रहा वही पहनकर तन ढंकना, जो खाने को मिला उसी को स्वादिष्ट मानकर खाना और जैसी छत मिली उसमें ही संतुष्ट रहना भी वैराग्य है। एक तरह से कहें कि संतोष ही सच्चा वैराग्य है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-देखे तथा सुने गये विषयों में तृष्णारहित मन की जो वशीकरण नामक स्थिति है वही वैराग्य है।
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।
      हिन्दी में भावार्थ-पुरुष में तत्वज्ञान से जो प्रकृति गुणों में आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाना है वही वैराग्य है।
      श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग यानि सन्यास को एक अत्यंत कठिन तथा अनावश्यक विषय बताते हुए कर्मयोग को भी उसका एक रूप माना गया है।  श्रीमद्भागवत गीता में संख्यभाव में रत रहने का आशय कम से कम हमारी दृष्टि से तो यह है कि मनुष्य अपनी समस्त इंद्रियों को निष्क्रिय रखे-न सांस ले, न देखे, न सोच,   सुने और बोले-यह स्थिति अत्यंत कठिन है हालांकि पुरातन इतिहास में ऐसे अनेक महान ऋषि हुए भी हैं जिन्होंने इस विधा में महारथ प्राप्त किया पर ऐसे विरले ही होते हैं।  कर्मयोग में विषयों से परे होकर  मन की लिप्तता का त्याग करना ही सन्यास जैसा फल देने वाला मान गया है। हमने देखा है कि बाज़ार में विलासिता की अनेक वस्तुओं के नित नित नये रूप आते हैं और लोग अगर अपना सामान थोड़ा भी पुराना हो उसे छोड़कर नये की तरफ दौड़े जाते हैं।  भौतिक युग में एक दूसरे से अधिक संपन्न दिखने की यह होड़ भी मानसिक बीमारियों को उत्पन्न होने का एक कारण है। इस प्रवत्ति का त्याग किया जाये तो भी प्रसन्नचित्त रहा जा सकता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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