वह सजते हैं
बाज़ार में उन्हें जो सजना है।
सूरत चमकानी है
अपनी काली नीयत से जो बचना है।
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मन का क्या
उसे तो मचलना है।
पैरों के इरादे जरूर देखना
कठिन राह पर जिन्हें चलना है।
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अपनी मस्ती में जीने की
आदत पुरानी हो गयी है
नयी अदा दिखाने की
चाहत ही खो गयी है।
पतझड़ में
सावन का सपना
बिक जाता है।
अभावों में
हमदर्दी के बाज़ार में
वादा ही टिक पाता है।
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दूरदराज के अपने किस्से
सुनाकर भरमाते हैं।
अपने घर के हाल पर
वही बोलने में शरमाते हैं।
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नया मुखौटा लगाकर
रोज नया वादा कर जाते हैं।
हर बार माल पार
पहले से ज्यादा कर जाते हैं।
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चंद चेहरे होते
जिनकी एक पल की नज़र
निहाल कर देती है।
पर थोड़ी तसल्ली भी
बेहाल कर देती है।
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अब कोई साथ निभाये
बड़ी बात होती है।
वरना तो यकीन की
रोज मात होती है।
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सभी के अपने दाव हैं
कोई छिपकर कोई दिखकर
लगाता है।
जो जीता वहीं
सिकंदर कहलाता है।
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महलों के मरीज-हिन्दी व्यंग्य कविता
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शीत यंत्र में
अपनी देह
गर्मी से बचा रहे हैं।
दवा से
खाना पचा रहे हैं।
कहें दीपकबापू
पंचतारा अस्पतालों में
चिकित्सा के व्यवसायी
महलों के मरीज नचा रहे हैं।
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उधारीकरण के दौर में
ठगों के भी मजे हैं।
मन के बीमार
ब्याज पर
शिकार की तरह सजे हैं।
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तश्तरी में सजाकर
कोई तोहफे की तरह
सम्मान नहीं देता।
नरक के भय बिना
कोई दान नहीं देता।
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दौलत सब कुछ होती
अमीर चिंता में नहीं जीते।
मेहनतकश जिंदा नहीं होते
केवल हवा खाते पानी पीते।
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