(देवराज इंद्र द्वारा राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को उपदेश के रुप में संस्कृत में दिए गये श्लोक का हिंदी में अर्थ )
- श्रम से थककर चूर हुए बिना किसी को धन संपदा प्राप्त नहीं होती। बैठे-बिठाये पुरुष को पाप धर दबोच लेता है। इंद्र उसी का मित्र है, जो चलता रहता है-थककर, निराश होकर बैठ नहीं जाता। इसीलिये चलते रहो।
- जो व्यक्ति चलता रहता है उसकी पिंडलियाँ (जांघें) फल देतीं हैं (अन्य लोगों से उसको सेवा प्राप्त होती हैं)। उसकी आत्मा वृद्धिगंत होकर आरोगयादी फल की भागी होती है तथा धर्मार्थ प्रभासादी तीर्थों में सतत चलने वाले के अपराध और पाप थककर सो जाते हैं, अंतत: चलते रहो।
- बैठने वाले की किस्मत बैठ जाती है और चलने वाले का भाग्य उतरोत्तर चमकने लग जाता है। अत: चलते रहो।
- सोने वाला पुरुष मानो कलियुग में सोता है, अंगडाई लेने वाला व्यक्ति द्वापर में और उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति त्रेता में पहुंच जाता है। आशा और उत्साह के साथ अपने निश्चित मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के सामने सतयुग उपस्थित हो जाता है, अंतत: चलते रहो।
- उठकर कमर कसकर चल पड़ने वाले पुरुष को ही मधु मिलता है। निरन्तर चलता हुआ व्यक्ति ही फलों का आनन्द प्राप्त करता है;सूर्यदेव को देखो सतत चलते रहते हैं, क्षणभर भी आलस्य नहीं करते। इसलिये जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक मार्ग के पथिक को चाहिए कि बाधाओं से संघर्ष करता हुआ चलता ही रहे,आगे बढ़ता ही रहे।
('कल्याण' से साभार )
1 comment:
इसके बाद भी कोई न चलना चाहे तो?
लगता है आप कल्याण के पाठक हैं. कुछ और इसी तरह खोजकर पढ़वाईये. पढ़ते रहेंगे-पढ़ते रहेंगे-पढ़ते रहेंगे.
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