लेखक को हमेशा सदाशयी होना चाहिए, उसे किसी भी घटना या विचार में अपने पूर्वाग्रहों के साथ नहीं सोचना चाहिए। अगर वह आशय को नहीं समझा तो अपनी रचना के साथ न्याय नही कर पायेगा। अभी मैंने ताज को सरताज बनाने के प्रयासों पर लेख लिखे थे। मैं न तो समर्थन में था न विरोध में। वजह! एक तरफ मैं जानता था कि आजकल प्रचार माध्यम प्रचुर मात्रा में हैं और उन्हें कोई विषय चाहिए लोगों में अपनी सक्रियता बनाए रखने के लिए। दूसरी तरफ मुझे देश के लोगों में-खासतौर से युवा वर्ग में-बौद्धिक और चिन्तन क्षमता की कमी महसूस हो रहे थी। आजकल खुले व्यापार के ज़माने में ऐसे कई और अभियान आएंगे और वाणिज्य का विधार्थी रह चुकने के कारण मुझे पता है प्रचार से किस तरह पैसा कमाया जाता है।
वैचारिक धरातल पर तटस्थ रहने के बावजूद एक लेखक के रुप में मैंने अपनी बात रखी। कुछ लोगों ने असहमति दीं और कुछ ने समर्थन, पर यह मेरे लिए नहीं उस रचना के लिए था जो मैंने लिखी थी। ऐसा भी प्रतीत हुआ कि लोगों ने अपने विचारों के साथ ही उसे पढा, क्योंकि वह निरपेक्ष भाव से लिखी गयी थी। मैंने उसमें यह कहीं भी नहीं लिखा था कि ऐसा करना गलत है या सही, पर लोगों ने अपने ढंग से इस पर विचार रखे। अगर मैं अपने पूर्वाग्रहों-जो कि वैसे भी मुझमें नहीं थे-के साथ इसे लिखता तो विरोध या समर्थन मेरे लिए होता और रचना कम मुझे अधिक जाना जाता और यही मुझे पसन्द नहीं है। एक लेखक को यह सोचना चाहिए जो भी कोई घटना होती है या विषय चर्चा के लिए प्रकट होता है वह कई तत्वों और तथ्यों से प्रभावित होता है , और अगर वह उन पर सदाशयतापूर्ण दृष्टिकोण रखेगा तो उनकी वास्तविकता और गहराई को समझ पायेगा तभी उसकी रचना प्रभावपूर्ण बन पायेगी।
मैंने कई लेखकों की रचनाएं देखीं हैं और वह पहले से ही तय कर देते हैं उन्हें लिखना क्या है? कोई घटना या विषय सम्मुख आने पर उसकी विवेचना करने की बजाय वह अपनी रचना का स्वरूप तय कर लेते है और होता यह है कि विषय के प्रति अधिक ज्ञान न होने की वजह से वह उस रुप में भी नहीं प्रस्तुत कर पाते जिसमें सोचा होता है। क्योंकि उनके विचारों की सोच सतही स्तर पर होती है और जिस तरह तालाब की सतह का पानी हवा के झोंके से अपनी जगह बदल देता है वैसे रचना लिखते समय शब्द और व्याकरण के चयन में लेखक के दिमाग में जो झोंके आते हैं वह रचना के स्वरूप को बिगाड़ देते हैं। जिस तरह तालाब की गहराई में स्थित जल हवा के झोंकों में ज्यादा देर तक स्थिर रहता है वैसे ही जिस लेखक के मन में अगर विचारों की गहरायी है तो उसकी रचना भी वैसे ही लोगों के सामने आयेगी जैसे उसक हृदय पटल पर अंकित है।
यह तभी संभव है जब लेखक अपने सामने किसी घटना या विषय के सम्मुख आने पर उसके प्रति सदाशयी दृष्टिकोण रखे और अगर वह अपने पूर्वाग्रहों से देखेगा तो कभी भी पाठकों को आंदोलित करने वाली रचना प्रस्तुत नहीं कर पायेगा। यह अलग बात है कि अन्य कारणों की वजह से उसे प्रकाशित होने के अवसर ज्यादा मिलें और उसे तमाम के तरह पुरूस्कार भी मिल जाएँ पर उसके नाम पर कोई ऎसी रचना नहीं होगी जिसकी याद कुछ समय बाद में भी की जाये। आजकल हमारे देश में यही प्रचलन में हो गया है कि नाम और नामा कमाने वाले लेखक बहुत हैं पर पाठक हैं कि अच्छी रचनाओं के लिए तरस रहे हैं। (शेष अगले अंकों में -दीपक भारतदीप )
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
5 years ago
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