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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/4/07

दिन और रात के पल

शांत रात
कोलाहल से परे चित
हृदय में सहजता का भाव
ऐसा लगता है गुजरा हुआ दिन
एक सपना है जो बीत गया
निद्रा धीरे धीरे चली आ रही है
वह हर पल डरावना लगता है
जो सूर्य की तपिश में बीत गया

किसी से प्रेम
किसी से व्यापार
किसी से वार्ता
किसी से विवाद
दिन की उजाले में भी
हृदय के अँधेरे का अहसास
रात्रि के अँधेरे में भी
अपने को ही शांति से
देखता हुआ मन
पूछता है कौन है जिसने
दिन के पलों को बेकार किया

दिनभर मधुर स्वरों को
सुनते हुए थके
और कुछ कटु शब्दों से फटे कान
अब अपने मन की
आवाज सुन सकते हैं
अब सुनना चाहते हैं कि
कौन है जिसने
दिन के पलों को बेकार किया

यह अनुत्तरित प्रश्न भी
रात में परेशान नहीं करता
दिन की उजाले में बैचेनी से
गुजरे पल रात में
कोई तूफान नहीं उठा रहे
क्योंकि रास्ता रोक के खडा अँधेरा
अब उन्हें बढने नहीं देगा
रात को मन में भी अँधेरा आने दो
दिन के प्रश्नों के उत्तर भी
दिन में खोजना
वरना खडा होगा सुबह
एक और प्रश्न
रात की नींद के पलों को
किसने बेकार किया
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1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,बहुत बढिया रचना है।

दिनभर मधुर स्वरों को
सुनते हुए थके
और कुछ कटु शब्दों से फटे कान
अब अपने मन की
आवाज सुन सकते हैं
अब सुनना चाहते हैं कि
कौन है जिसने
दिन के पलों को बेकार किया

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