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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/7/07

दर्द यहाँ भी है और वहाँ भी

इधर रहकर उधर के
यहाँ के होकर वहाँ के
देश में बसते हुए
विदेश के देखते हैं लोग सपने
उकताए हुए रिश्ते लगते हैं अपने


उधर कोई स्वर्णमय मृग है
वहाँ कोई बसा स्वर्ग है
विदेश में हमारी गरज है
यह ख्याली पुलाव पकाता
आदमी पलायन के लिये
लगता है तड़पने
शरीर इधर पडा आत्मा भटके उधर
दिल यहाँ दिमाग वहां
देश में बैठे-बिठाए जागती आंखों से
विदेशों के काल्पनिक दृश्य
उसे लगते हैं अपने

अपनी जिंदगी के कड़वे सच से
अपनी ही आँखें चुराता
अपने अल्पज्ञान पर इतराता
पालता है ख्वाहिशें
इधर से चैन ज्यादा उधर मिलेगा
यहाँ है पीतल वहां सोने से नैन लडेगा
देश में मिलता है जीरो नंबर
विदेश में टेन में टेन मिलेगा
दौलत और शोहरत के ढ़ेर पर
बैठने के देखता सपने

झूठ के पुलिंदे बांधता
सच जानने की कोशिश से घबडाता
अनुमान के विमान उडाता
ज्ञान से जीं चुराता
यह सोचने की कोशिश नहीं करता
जिन्दा रहने के लिए संघर्ष
इधर भी है और उधर भी
रिश्तों की पीडा
यहाँ भी और वहाँ भी है
देश में रहते हुए
अपनी बेकद्री का दर्द सताता है
पर विदेश में यही पल
याद आते हैं अपने
कहानिया इधर भी हैं उधर भी
पात्रों के नाम यहाँ कुछ और
वहाँ कुछ और हो जाते हैं
देश छोड़ने से
अपने जजबात नहीं बदल जाते
गर्दिश में होना सितारे तो
विदेश में भी नहीं चमक पाते
पर दर्द और ग़मों से लड़ने की
ताकत पाते हैं घर में ही अपने

3 comments:

mamta said...

इस सच को आपने बहुत ही सधे हुए शब्दों मे उतारा है।

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,बहुत बढिया विचारणीय रचना है।बधाई।

ghughutibasuti said...

सुन्दर कविता ! पर यह ना भूलिये हर विदेश जाने वाला आपके लिये नौकरी पाने को एक स्थान बना जाता है ।
घुघूती बासूती

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