हिंदी के मूर्धन्य कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं में सदैव श्रृंगार रस की चाशनी में डुबोकर अपने लोकप्रिय रचनाएं प्रस्तुत की हैं। उनको पढने वाले लोगों के मस्तिष्क में वर्षा ऋतू की कल्पना इस तरह स्थापित है कि आज के युग में जब विश्व में पर्यावरण प्रदूषण और कम होते वनों की वजह से जो मौसम का मिजाज बिगडा और उसने इस ऋतू में जो नयी तकलीफें भारी गरमी और उमस के रुप में पैदा की हैं उसको झेलते हुए भी वह उसमें खोया रहता है, उसे यह पता ही नहीं कि जिस वर्षा ऋतू में वह यह सब झेल रहा है जिसकी काव्य कल्पनाएं उसके अंतर्मन में कहीँ आज भी हैं वह अब वैसा नहीं रहा जैसे पहले था।
उस उसमे के कवियों ने वर्षा ऋतू में प्रियतम और प्रेयसी के विरह और मिलन पर ही अपने शब्दों सौन्दर्य को इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसकी कल्पना हृदय पटल पर अंकित हो जाती है। जबकि हम देखें तो वर्षा ऋतू अब उतनी सुहावनी नहीं रही जितनी उस समय रही होगी जब यह रचनाएँ हुई। कहीँ अगर वर्षा इतनी हो जाती है कि लोग छत पर चढ़कर नील गगन की छाया में अपने प्राण बचाते हैं तो कहीँ नाम को बरसता है और कहीँ तो वह भी नहीं। अख़बार उठाकर देख लें-इस ऋतू में केवल बाढ़ और कम वर्षा और अवर्षा की खबरों से पटे मिलेंगे।बाकी सब तो ठीक है पर गड़बड़ यह हुई कि हिंदी पढने वालों को यह ऋतू इतनी भाती है कि बस वह इसे इन्जोय करना चाहते हैं। कवियों ने तो प्रियतम और प्रियतमा के विरह और मिलन पर सावन को हरा किया और भादों को सुखाया पर पाठक लोग हर आयु में इसे सुन्दर मानते हुए इसमें आनन्द उठाते हैं।अब जिसे प्यार होगा उसे भला भूख और प्यास से क्या लेना देना? इसलिये न कवियों ने उन्हें खिलाया और न कहीँ पिकनिक पर भेजा। थोडा बहुत इधर-उधर दौडाया और कर दीं अपनी रचना । उस पर फिर इन फिल्म वालों ने भी कम नहीं किया। लोग हिंदी पढने से छूटे तो फिल्म के रंग में रंग गये और हो गयी पूरी वर्ष ऋतू सुहावनी। कई लोग जिन्होंने अपनी युवावस्था में पिकनिक न मनाई न सोचा अब पिकनिक पर निकलने लगे हैं। जब पिकनिक पर जाएँगे तो अनाप-शनाप खाएंगे ही तो पेट बिगडेगा। फिर कुछ युवक पीने-पिलाने में भी लिप्त हो जाते हैं। सब ठीक अगर वर्षा वैसी हो तो जैसी कवियों ने चित्रित की है। वह नहीं होता। और पिकनिक कभी कभी तकलीफ देह भी हो जाती है।
वर्षा ऋतू में हमारे पुराने विज्ञानं के अनुसार ज्यादा घूमना नहीं चाहिऐ। हालांकि कहा जाता है कि पहले पक्की सड़कें नहीं थी इसलिये यह नियम बनाया गया है पर सड़कें अब कौनसी दिखाई देती हैं और कहीँ तो रेल कि पटरियाँ भी डूब जाती हैं। ऐसे में कैसे कहा जाये कि केवल इसी वजह से उन्होने वर्षा ऋतू में पर्यटन को वर्जित किया था। तब हमारे साधूसंत पर्यटन बंद कर देते थे। भारतीय विज्ञानं के अनुसार इस मौसम में खाना भी कम पचता है , इसलिये खाना कम चाहिए। मगर नहीं साहब लोग इसी मौसम में ही अपने पेट से ज्यादा अत्याचार करते हैं। परिणाम स्वरूप आजकल के डॉक्टर इस ऋतू का इतना इन्तजार करते हैं कि प्रीतम और प्रेयसी भी नहीं करते होंगे। इस मौसम मैं ऐक-दो बिमारी ऎसी जरूर फैलती है जिसका नाम पहले नहीं सुना होता और पिछले साल तो हमने अपने शहर में ऐसा कोई घर नहीं देखा जहां का कोई आदमी बीमार न पडा हो। हमारा घर शहर से दूर कालोनी में है इसलिये वहां इसकी चर्चा नहीं थी। हालत यह हुई कि लोगों कि वर्षा ऋतू में मस्ती हुई हो या न हो पर ढंग से दिवाली किसी कि नहीं मनी।मुझे सबसे ज्यादा वह दिन बुरा लगता है जिस दिन किसी पिकनिक पर जाना होता है। मुझे आज तक कोई ऎसी पिकनिक याद नहीं जिसका वास्तविक रुप से मैंने आनन्द लिया हो। अधिकतर पिकनिक सामूहिक होती हैं और उनमें केवल इसलिये जाना पड़ता है क्योंकि हमारा वहां या तो अपना चन्दा किसी न किसी रुप से दिया होता है या ऐसी मित्र मंडली रहती है जिसके दबाव का सामना नहीं कर पाते। पिकनिक का जब कार्यक्रम दस -पन्द्रह दिन पहले बनता है तब मौसम अगर अच्छा न हो तो लोग कहते है कि तब तक तो बरसात बहुत हो जायेगी और इतनी गरमी नहीं होगी और अच्छा होता है तो कहते हैं कि अब तो मौसम भी अच्छा हो गया। जिस दिन पिकनिक हुई है उस दिन तो बस! उस मौसम का वर्णन किसी कवि ने नहीं किया है। सुबह तो सब ठीक लगता है पर जैसे सूर्य की किरणों में तीव्रता आती है वैसे ही जो उमस पड़ती हैं और वह असहनीय कष्ट देती है,वहां लोग बैठ नहाते हैं और उससे फिर उमस होती है तो चीत्कार करते हुए मौसम को गाली देते हैं। कुछ लोग पीते हैं मतलब सब काम उल्टे ही होते हैं। बारह बजे नाश्ता और फिर चार बजे खाना। मतलब जिस मौसम में शरीर को संभालकर चलना चाहिऐ उसी मौसम में सबसे ज्यादा खिलवाड़ लोग करते हैं। इस मौसम में वैसे ही आदमी को मानसिक संताप होता है और उसे जहाँ शांत होना चाहिये वहीँ वह अपनी खुशहाली के लिए आक्रामक हो जाता है। पिकनिक के दौरान नहाते हुए डूबने की घटनाएँ इसलिये भी होती हैं। मेरी जान -पहचान के लोगों में ही ऎसे कम से कम पन्द्रह प्रकरण तो मैं देख चुका हूँ। पिकनिक से जहां मन में प्रसन्नता का भाव लेकर लौटना चाहिऐ वहां से अगर थकावट लेकर लौटे तो फायदा ही क्या?मैं अपने पुराने विद्वानों की मान्यताओं को बहुत महत्व देने लगा हूँ-क्योंकि इस मौसम में अपने शरीर से अगर ज्यादा काम लेने का प्रयास किया तो और आराम किया तो भी वही हालत होगी, ऐसे में कोशिश यही करता हूँ कि इस मौसम में सबसे ज्यादा शारीरिक और मानसिक सतर्कता बरती जाये। भला यह भी क्या बात हुई कि पिकनिक पर ताश खेलते जाएँ और शरीर से इतना पसीना निकले कि उससे पोंछने वाले रुमाल तक इस क़दर भीग जाएँ कि उन्हें निचोडो तो वह पसीना ऐसे निकले जैसे नल बह रहा हो। हालांकि जिन कवियों ने सुन्दर शब्द और व्यल्रण से इस ऋतू को सजाया है उसमें कोई कमी नहीं है पर वह लोग ऐसी पिकनिक नहीं मनाने जाते थे न पीकर जल समूहों में डुबकी लगाते थे। अगर वह ऐसा करते तो ऐसी उत्कृष्ट कवितायेँ नही लिख सकते थे। उन्होने तो लिखकर ख़ूब आनन्द उठाया पर उन्हें पढने वालों का अब वर्षा ऋतू का ऐसा सुहावना मौसम नहीं मिल सकता।
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