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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

12/6/07

रौशनी की तलाश अँधेरी गले में करता है

इधर-उधर दौड़ते और भागते
लोगों का समूह
दिल का चैन पाने के लिए
भटकता है
जैसे कोई ऐसा पेड़ हो
जिस पर सुकून का फल लटकता है
जुबान के चसके को ही
पेट की भूख समझता है
भर जाये जो पेट सुखी रोटी से
अकारण चाशनी के लिए तरसता है
दिमाग में पलते ख्यालों को
दिल की ख्वाहिश समझता है
और अपना ईमान
बैईमानों के बाजार में
कौडी के भाव बिकने के लिए रखता है
इंसान अगर अपने अन्दर बैठे
इन्सान को ही समझ ले
तो रूह की रौशनी से उसकी
जिन्दगी हो जाये रोशन
पर वह तो उससे दूर
रौशनी की तलाश में
अंधेरी गली में करता है

1 comment:

राजीव तनेजा said...

बहुत खूब..

शिक्षा से भरपूर सन्देश देती कविता लेकिन...
"मृगतृष्णा के पीछे भागते हम मूर्ख रुकें भी तो
कैसे रुकें?

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