इधर-उधर दौड़ते और भागते
लोगों का समूह
दिल का चैन पाने के लिए
भटकता है
जैसे कोई ऐसा पेड़ हो
जिस पर सुकून का फल लटकता है
जुबान के चसके को ही
पेट की भूख समझता है
भर जाये जो पेट सुखी रोटी से
अकारण चाशनी के लिए तरसता है
दिमाग में पलते ख्यालों को
दिल की ख्वाहिश समझता है
और अपना ईमान
बैईमानों के बाजार में
कौडी के भाव बिकने के लिए रखता है
इंसान अगर अपने अन्दर बैठे
इन्सान को ही समझ ले
तो रूह की रौशनी से उसकी
जिन्दगी हो जाये रोशन
पर वह तो उससे दूर
रौशनी की तलाश में
अंधेरी गली में करता है
शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
-
*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
4 years ago
1 comment:
बहुत खूब..
शिक्षा से भरपूर सन्देश देती कविता लेकिन...
"मृगतृष्णा के पीछे भागते हम मूर्ख रुकें भी तो
कैसे रुकें?
Post a Comment