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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

12/14/08

भारतीय अध्यात्म ज्ञान रूपी हिमालय से निकल सकती है कोई भी धारा-आलेख

एक बात निश्चित है कि धर्म नितांत एक निजी विषय है और उस पर सार्वजनिक विषय पर चर्चा करना केवल एक दिखावा करना लगता है। दूसरी बात यह है कि किसी धर्म की स्थापना या प्रचार का कार्य एक व्यवसाय का रूप ले चुका है और आम आदमी इस बात को समझ गया है और वह इन प्रचारकों को गंभीरता ने नहीं लेता। फिर भी समूह में रहने के अभ्यस्त इंसानों के लिये यह आवश्यक है कि वह भाषा,जाति और धर्म के नाम पर बने समूहों के प्रति निष्ठा जताते रहें ताकि विपत्ति के समय उनकी सहायता की आशा की जा सके।

इन्हीं समूहों में बदलाव आते जाते हैं और कई जगह झगड़े चलते हुए भी उनको रोकना कठिन लगता है। धर्म और अध्यात्म में अंतर है। धर्म मनुष्य को बर्हिमुखी और अध्यात्म अंतर्मुखी बनता है। सारे विवादों के बावजूद एक बात अंतिम सत्य के रूप में सामने आ चुकी है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान में ही वह शक्ति है जिसको ग्रहण और धारण कर कोई भी व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से शक्तिशाली हो सकता हैं। इस अध्यात्म ज्ञान की वजह से हिंदू धर्म निर्मित हुआ है। लंबे समय तक हिंदू धर्म को लेकर अेनक सवाल उठते रहे हैं पर उनके उत्तर में केवल विवाद ही खड़े होते हैं।

इस लेखक ने अपने एक पाठ में लिखा था कि ‘ हिंदी हिदू और हिंदूत्व’ शब्द में एक ऐसा बोध है जिसे धारण कर कोई भी अपने को शक्तिशाली समझने लगता है क्योंकि उसमें एक आकर्षण है। एकतरफ जहां हिंदू धर्म के बचाने और विस्तार करने के प्रयास हो रहे हैं तो दूसरी तरफ उसके नाम पर बने एक बृहद समाज के स्वरूप में बदलाव आते जा रहे हैं जिस पर विद्वान दृष्टिपात नहीं कर पाते। पहला तो यह है कि हमारे समाज में पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव इतना पड़ चुका है कि पता ही नहीं लगता कि हम धर्म या अध्यात्म ज्ञान के विषय में कहां खड़े हैं? धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्मिक ज्ञान के के प्रथक होने की अनुभूति नहीं होने के कारण विचारों में भटकाव होता है और यही समाज को भी भ्रमित कर रहा है।

कल एक ब्लाग पढ़ रहा था। उसके लेखक श्री रजनीश मंगला ने जर्मनी में हिंदू मंदिर और अफगान हिंदू मंदिर बने होने की चर्चा अत्यंत दिलचस्प ढंग से उठाई थी। उसमें लिखा गया था कि आतंक से परेशान अफगानी हिंदुओं ने जर्मनी में पनाह ली और वहां उन्होंने आकर्षक मंदिरों का निर्माण कराया है। मंदिर मनाने के मामले में वहां भारतीय हिंदूओं के मुकाबले अफगानी हिंदू आगे हैं। किसी उत्सव पर भारतीय हिंदू मंदिर के मुकाबले अफगानी हिंदू मंदिर में कम ही भीड़ होती हैं। अफगानी मंदिर कर्ज लेकर बनाये गये हैं जिसकी वापसी किश्तों में की जा रही है। उन मंदिरों में पुजारी भारत के ही हैं।
अफगानियों के मंदिरों पर ही लिखा गया है ‘अफगानी हिंदू मंदिर’। रजनीश मंगला ने इस आलेख में सवाल उठाया कि क्या अफगानी हिंदू मंदिरों से कभी अफगानी हट जायेगा या कोई ःअफगानी हिदू विचारधारा के रूप में अलग धारा बहेगी। रजनीश मंगला के इस आलेख को दो बार मैंने पढ़ा क्योंकि उसमें मेरी दिलचस्पी बहुत थी। जहां तक अलगा धारा का प्रश्न है तो लगता है कि वह आगे ही बढ़ेगी कम शायद ही हो। सच तो यह है कि अलग धारा बहनी ही चाहिये क्योंकि हिंदू अध्यात्म एक हिमालय की तरह है जहां से कई धारायें प्रवाहित होंगी। अभी नहीं तो आगे इसकी संभावना है। एक ही धारा की कल्पना कर हिंदू धर्म को ही सीमित दायरे मेेंें बांधना होगा।

आखिर अलग धारा का प्रश्न क्यों उठा? अगर हम भारत में हिंदू धर्म की बात करें तो यहां का समाज जातियों और उपजातियेां में बंटा हुआ है और यही उसके शक्तिशाली होने कारण भी है। फिर अफगान हिंदू धारा के बहने से होगा यह कि आगे चलकर अन्य देशों के हिंदू भी इसी तरह अपनी धारा बहायेंगे। इस बात की भी संभावना है कि जब विश्व में सामाजिक और धार्मिक बदलाव आयेंगे तो तो अपनी अध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति के कारण हिंदू धर्म ही विस्तार रूप से लेगा। यह लेखक इतिहास को एक कूड़ेदान की तरह मानता है पर उसमें वर्णित घटनाओं पर विचार करें तो हर भारतीय हिंदूओ की कार्यपद्धति को देखें। हिंदू धर्म की रक्षा के लिये सभी तैयार बैठे हैं पर केवल इसी देश के अंदर। बाहर भी हिंदू रहते हैं पर उनके लिये किसी ने कार्य नहीं किया। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि हिंदू धर्म से आशय उन सभी धर्मों से है जिनका उदय भारत में हुआ। यहां के शासकों का राज्य अफगानिस्तान तक फैला था पर धीरे धीरे वह सिकुड़ता गया। वजह यह है कि सीमावर्ती राज्यों पर आक्रमण होते रहे पर उनको अपने पीछे के क्षेत्रों से सहयोग न मिलने के कारण हारना पड़ा। इतिहास में इस बारे में बहुत सारे तथ्य दर्ज हैं। अंधविश्वास,कुप्रथाओं और अहंकार में फंसे हिंदू समाज के विभिन्न उपसमूहों में बंटे लोगों और उनके राजाओं ने कभी भी ईमानदारी से विचाराधारा और प्रजा की रक्षा का विचार ही नहीं किया। अपनी राज्य की सीमाओं को अंतिम और अखंड होने के अहंकार ने इस देश के पहले विदेशी आक्रमणकारियों और अब विचाराधाराओं के जाल में फंसा दिया। दो हजार वर्ष तक यह देश गुलाम रहा इस बात को भुलाया नहीं जा सकता।

स्वतंत्रता के बाद विदेशों से आयातित विचारधाराआों की आलोचना या समर्थन में समय नष्ट किया गया जिससे कुछ हाथ नहीं आना था न आया। सत्य यही है कि भौतिकतावाद से उपजे तनाव से बचने के लिये केवल शक्ति ‘भारतीय अध्यात्म ज्ञान’ में ही है। जिसका मूल मंत्र यही है कि प्रातः उठकर योगासन, प्राणायम,ध्यान और प्रार्थना के द्वारा अपने तन,मन और विचार के विकार बाहर निकालकर फिर नया दिन प्रारंभ किया जाये।
भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति ध्यान है। कुछ धार्मिक लोगों ने मूर्तिपूजा का विस्तार किया क्योंकि एक सामान्य आदमी के लिये एकदम ध्यान लगाना कठिन होता है। इसलिये किसी स्वरूप को मन में स्थापित कर उसकी आराधना करने से भी ध्यान का लाभ मिल सकता है। दरअसल ध्यान से आशय यह है कि अपने दिन प्रतिदिन के दैहिक कार्य से हटकर उसे कही अन्यत्र लगाया जाये। इसी मूर्तिपूजा का विरोध अन्य विचारधारा के लोगों ने ही नहीं बल्कि अनेक हिंदू भी करते हैं पर वह इसका महत्व नहीं समझते। विदेशी विचाराधारा से ओतप्रोत लोग भटकाव की स्थिति में दो ही मार्ग ढूंढते हैं-आत्म हत्या या दूसरे की हत्या। जबकि भारतीय निराशा की स्थिति में मंदिर की राह लेते हैं। हमारे देश में अपने अध्यात्म से दूर होने का कारण यहां भी हिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है।

बहुत लंबे समय तक भारत के बाहर के हिंदूओं ने प्रतीक्षा की है कि वह भारत में रह रहे हिंदुओं से नैतिक समर्थन प्राप्त करें पर वह शायद नहीं मिल पाया। दूसरा यह है कि हम भारतीय हिंदूओं इस बात को समझ लें कि हमारी शक्ति धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है जिस पर अभी तक केवल हम अपना ही अधिकार सकझते हैं। अब वह विश्व में फैल रहा हैं। भारतीय योग परंपरा और श्रीगीता के बारे में अब पूरा विश्व जान चुका है। संत कबीर जी के संदेशों से विदेशी भी प्रभावित हैं-यहां याद रहे कि संत कबीर ने सभी प्रकार के धार्मिक अंधविश्वासों का विरोध किया और किसी भी धर्म को उन्होंने बख्शा नहीं।

देश में अधिक आबादी होने के कारण अतिविश्वास के कारण हम भारतीय हिंदू उस अध्यात्म ज्ञान को जानते हैंे पर जीवन में धारण करने से कतराते हैं। जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं वह इस ज्ञान का मतलब जानते हैं। अनेक भारतीय भी जो विदेशों मेेंं बहुत समय से रह रहे हैं वह भी इस बात को समझते हैं। यह अलग बात है कि उनके इसी भाव का दोहने अपने आर्थिक लाभ के लिये कथित साधु और संत करते हैं। ऐसे में विदेशी हिंदू अगर अपनी अलग धारा में बह रहे हैं तो एक उम्मीद तो बंधती है कि वह भी भारतीय अध्यात्म के हिमालय से निकल रही है। जहां ऐसी जगह पर भारतीय हिंदू हैं उनका मार्गदर्शन करना चाहिये। भारतीय अध्यात्म ज्ञान न तो गूढ़ हैं न ही व्यापक जैसा कि कुछ धार्मिक विद्वान कहते हैं। बस वह एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर देखा जा सकता है। भारतीय ज्ञान को गूढ या व्यापक कहना कुछ ऐसा ही है कि जैसे आप आगरा में खड़े होकर कहें कि मुझे दिल्ली जाना है क्योंंकि मुंबई दूर है या आप नासिक में खड़े होकर कहें कि मुझे मुंबई जाना है क्योंकि दिल्ली दूर है। ऐसे ही सत्य और माया के दो मार्ग हैं और सत्य का ज्ञान इतना दूर नहीं है जितना मायावी दूनियां की चाहत रखने वाले कथित संत और साधु कहते हैं।
अगर अफगानी लोगों ने लिख दिया है कि ‘अफगानी हिंदू मंदिर तो वह उसे शायद ही बदलें। इस धारा का बहना दिलचस्प भी है और इस बात का प्रमाण भी कि अब अन्य देशों में हिंदू भी खड़े होकर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की रक्षा करेंगे। ऐसे में भारतीय हिंदूओं को उनका हौंसला बढ़ाना ही चाहिये। आखिर वह निकली तो भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान रूपी हिमालय से ही तो है।
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