भारतीय धर्म सबसे पुरातन है और अनेक प्रयोगों के दौर से गुजर कर इस रूप में आये हैं। इन्हीं प्रयोगों के दौर में अनेक विश्लेषण भी आये होंगे जो तत्कालिक रूप से ठीक लगे और बाद में उनकी कमियां या विरोध सामने आया। हमारा धार्मिक समुदाय दुनियां का सबसे प्रगतिशील है और वह स्वतः ही उन चीजों को नकार देता है जो समय के अनुसार उसे अतार्किक या अव्यवहारिक लगती है। फिर भी भारतीय धर्म के आलोचक हैं जो उन छोड़ी चीजों को सामने लाकर प्रस्तुत करते हैं। अब उन्हें यह समझाना कठिन है कि ‘भई, हम इन चीजों को छोड़ चुके।
बहुत वर्षों से वेदों और मनुस्मृति को लेकर हमारे भारतीय समाज को लांछित किया जाता है। भारतीय धर्म को रूढ़िवादी बताकर स्वयं को विकासवादी प्रमाणित करने वाले लोग हमेशा नारी तथा जाति प्रथा को लेकर ऐसे लांछन लगाते हैं जिनके बारे में वह स्वयं नहीं जानते कि यह वर्ण व्यवस्था बनी कैसे? दूसरा यह भी कि चाहे विज्ञान कितना भी आगे बढ़ जाये यह व्यवस्था खत्म नहीं हो सकती क्योंकि इसमें सांसरिक कर्म के तत्व निहित है।
ठीक है अगर आप यह कहते हैं कि यह जातिवादी व्यवस्था समाप्त होना चाहिए। मगर आधुनिक समाज में जो कंपनियां तथा बड़े औद्योगिक व्यवसायिक संस्थान हैं उनमें सलाहकार, पूंजीपति, प्रबंधक और लिपिक-मजदूर का भेद समाप्त कर सकते हैं क्या? क्या आधुनिक समाज में जो विभाजन पूंजी और श्रम के आधार पर हुआ है वह क्या पुराने विभाजन से अधिक बेहतर है। नये बन रहे इस समाज में क्या बड़ी मछली छोटी मछली को नहीं खाती। वर्तमान व्यवस्था ने चाटुकारों और गुलामों की फौज खड़ी हुई है उसका द्वंद्व कौन रोक पा रहा है?
इधर एक बात जिसे भारतीय धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों ही भूल जाते हैं कि अब भारतीय दर्शन का आधार श्रीगीता को माना जाता है। चारों वेदों का सार उसमें समाहित हो गया है। यह अलग बात है कि प्रसंग आने पर वेदों और मनुस्मृतियों में वर्णित सांसरिक विषयों के उद्धरण सुनाये जाते हैं पर वही जिनका आज के संदर्भ में महत्व है। इस श्रीगीता में जीवन कलात्मक रूप से जीने का जो संदेश है उससे मायावी लोग घबड़ाते हैं। वजह यह है कि अपना काम निष्काम भाव करने का अर्थ वह नहीं है जो लोग समझते हैं। अपनी देह के पालन के लिये किये कर्म के लिये धन त्यागना कोई कामना का त्याग नहीं है बल्कि उसे ही फल मान लेना अज्ञान है-यह गीता का संदेश है। मतलब यह है कि आप मजदूर हैं तो अपना काम करिये और अपना पैसा लीजिये पर पूंजीपति या प्रबंधक को सर्वशक्तिमान न समझें। बात यही अटकती है। चाहे आधुनिक जातीय समाज हो या वर्तमान पूंजी समाज बड़े और ताकतवर लोग यह चाहते हैं कि वह पुजें। इतना ही जो बू़़ढ़े हो जाते हैं वह भी सोचते हैं कि भले ही उन्होने जीवन में कोई सार्थक कार्य नहीं किया पर उनको देवता मना लिया जाये। कुछ लोग यह सब जानते हैं पर फिर भी श्रीगीता का संदेश सही नहीं बताना चाहते। वजह यह है कि निष्काम व्यक्ति अपने भगवान के अलावा किसी अन्य को भगवान नहीं मानता। चाहे पुराना हो या नया समाज उसके शिखर पुरुष भगवान की तरह पुजने की अपनी चाहत के कारण इस श्रीगीता नाम के उस गं्रंथ से घबड़ाते हैं जो भारतीय धर्म का आधार है।
इसके बाद आता है नंबर उनके इशारे पर चलने वाले प्रबुद्ध वर्ग का। श्रीगीता के बाद ही रहीम, कबीर, तुलसी और रैदास जैसे महापुरुष इस धरती पर आये और उनकी रचनाओं का अब भी विश्व में कहीं सानी नहीं है बल्कि इन पर विदेशों में अनुसंधान चल रहा है। विदेशियों ने ही यह बताया कि हमारी ताकत ध्यान में निहित है। अगर राजनीति की बात करें तो चाणक्य का मुकाबला कौन कर सकता है। राजनीति हर क्षेत्र में घुस आयी है-इसका रोना कई लोग रोते हैं पर चाणक्य के संदेश बताते हैं कि हर क्षेत्र में रणनीतिक कौशल आवश्यक है। इससे भी समाज को दूर रखने का प्रयास यह प्रबुद्ध वर्ग करता है। इसलिये बाहर के विचारों को यहां उठाकर यहां प्रस्तुत किया जाता है। चूंकि आधुनिक समय की दृष्टि से भी जो जीवन के मूल रहस्या हमारे दर्शन द्वारा खोज कर प्रस्तुत किये गये हैं और किसी नये की गुंजायश नहीं दिखती तो कुछ कथित प्रबुद्ध लोग इधर उधर से उठाकर नये सत्य प्रस्तुत करते हैं।
इसके बाद भी यह देखकर प्रसन्नता हो रही है कि इधर अंतर्जाल पर कुछ ऐसे विद्वानों के लेख पढ़ने को मिले जो यह मानकर चलते हैं कि हमें नये पुराने विषयों और विचारों में सामंजस्य बिठाकर एक नया समाज बनाना चाहिये। उन लोगों से भी हम कहना चाहते हैं कि नये समाज बनाने का संदेश भी इसी श्रीगीता में है। आज हम जिसे समाजवाद कहते हैं वह भी श्रीगीता में है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘अकुशल श्रम को कभी हेय नहीं समझना चाहिये और हमेशा निष्प्रयोजन दया करना ही धर्म है।
फिर भी आलोचकों से क्या कहा जाये। मनु स्मृति में कई ऐसी जानकारी हैं जो सांसरिक व्यवहार में महत्वपूर्ण है। ऐसी कई घटनायें होती दिखती हैं जिसे देखकर लगता है कि अगर लोग उसमें लिखे गये कुछ संदेश आज के समय में देखें तो शायद उन संकटों से बच सकते थे जिन्होंने या तो उनका जीवन लील लिया या ऐसा दर्द दे दिया जिसे वह जिंदगी भर नहीं भुला सकते। मुश्किल यह है कि जब आप उन संदेशों का उल्लेख करते हैं तो उन घटनाओं को नहीं लिख सकते क्योंकि इससे किसी पीड़ित व्यक्ति के अज्ञान का मजाक उड़ाना समझा जायेगा। बहरहाल आलोचकों का सामना करना कठिन होता है। वैसे भी धर्म चर्चा भले ही सार्वजनिक हो पर ज्ञान चर्चा तो एकांत में ही होती है। इसका सीधा आशय यह है कि बहसों से किसी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती बल्कि जो अपने पास है उसमें संशय पैदा हो जाता है। ऐसी बहसों में सभी अपनी बात रखते हैं पर किसी दूसरे की राय को स्वीकृति कोई नहीं देता।
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