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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/28/09

आज दशहरा है-आलेख (today dashahara-hindi lekh)

         आज पूरे देश में दशहरे का त्यौहार मनाया जा रहा है। जिस दिन भगवान श्रीराम जी ने रावण का वध किया उसी दिन को ‘दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। पर्व मनाना और उससे निकले संदेश को समझना अलग अलग विषय हैं। ऐसे अवसर पर अपने इष्ट का स्मरण कर उनके चरित्र का स्मरण करने से पर्व मनाने में मजा आता है। देखा यह गया है की धार्मिक चित्तक समाज के सदस्यों को समाज समय पर एकत्रित होकर आध्यात्मिक चित्तन के लिए पर्वों जैसे अवसरों का निर्माण करते हैं बाज़ार उसे उत्सव जैसा बनाकर उपभोग की वस्तुएं बेचने का मार्ग बना लेता है, इस कारण ही चित्तन की बजाय उल्लास मनाने की प्रवृति पैदा होती है।
क्या राम और रावण के बीच केवल सीता की मुक्ति के लिये हुआ था? इस प्रश्न का उत्तर एक प्रतिप्रश्न है कि क्या अगर रावण सीता का अपहरण नहीं करता तो उनके बीच युद्ध नहीं होता?
         अगर तत्कालीन स्थितियों का अध्ययन करें तो यह युद्ध अवश्यंभावी था और रावण ने सीता का अपहरण इसी कारण किया कि भगवान श्रीराम अगर सामान्य मनुष्य हैं तो पहले तो सीता जी को ढूंढ ही न पायेंगे और उनके विरह में अपने प्राण त्याग देंगे। यदि पता लग भी गया और उनको वापस लाने के युद्ध करने लंका तक आये तो उन्हें मार दिया जायेगा। अगर भगवान हैं तो भी उनकी आजमायश हो जायेगी।
         जब भगवान राम लंका तक पहुंच गये तब रावण को आभास हो गया था कि भगवान श्री राम असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर तब वह उनसे समझौता करने की स्थिति में वह नहीं रहा था क्योंकि श्री हनुमान जी ने लंका दहन के समय उसके पुत्र अक्षयकुमार का वध कर दिया था। यह पीड़ा उसे शेष जीवन सहजता ने नहीं बिताने देती। ऐसे में युद्ध तो अवश्यंभावी था।
       अगर रावण श्रीसीता का अपहरण नहीं भी करता तो भी अपनी बनवास अवधि बिताने के लियें दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे श्रीराम जी से उसका युद्ध होना ही था। आखिर यह युद्ध क्यों होना था? इसे जरा आज के संदर्भ में देखें तो पता चलेगा कि अब फिर वैसे ही हालत निमित हो गये हैं हालांकि अब कोई न रावण जैसा ताकतवर दुष्ट है न ही भगवान श्रीराम जैसा शक्तिशाली और पराक्रमी।
          दरअसल रावण भगवान शिव का भक्त था और उसे अनेक प्रकार वरदान मिले जिससे वह अजेय हो गया। अपने अहंकार में न वह केवल भगवान शिव को भूल गया बल्कि अन्य ऋषियों, मुनियों, और तपस्वियों की दिनचर्या में बाधा डालने लगा था। वह उनके यज्ञ और हवन कुंडों को नष्ट कर देता और परमात्मा के किसी अन्य स्वरूप का स्मरण नहीं करने पर मार डालता। इसके लिये उसने बकायदा अपने सेवक नियुक्त कर रखे थे जिनका वध भगवान श्री राम के हाथ से सीता हरण के पूर्व ही हो गया था।
         भगवान श्रीराम को रावण की पूजा पद्धति से कोई बैर नहीं था। वह तो भगवान शिव जी भी आराधना करते थे। वह दूसरे की पूजा पद्धति को हेय और इष्ट को निकृष्ट कहने की रावण प्रवृत्ति के विरुद्ध थे। भगवान श्रीराम की महानता देखिये उन्होंने रावण के शव को उसकी परंपराओं के अनुसार ही अंतिम संस्कार की अनुमति दी। कहने का तात्पर्य यह है कि अपना धर्म-उस समय धर्म का कोई नाम नहीं था इसलिये पूजा पद्धति भी कह सकते हैं-दूसरे पर लादने के विरुद्ध थे और यही कारण है कि उन्होंने अपने संदेशों में किसी खास पूजा पद्धति की बात नहीं कही है। इसके विरुद्ध अहंकारी रावण दूसरों की पूजा पद्धति में न केवल विघ्न डालता वरन् आश्रम और मंदिर भी तोड़ डालता था। श्री विश्वामित्र अपने यज्ञ और हवन में उसके अनुचरों की उद्दंडता को रोकने के लिये श्रीराम को दशरथ जी से मांग लाये थे और उसी दिन ये ही राम रावण का युद्ध शुरु हो गया था।
       रावण लोभ, लालच और दबाव के जरिये दूसरों पर अपना धर्म-पूजा पद्धति-लादना चाहता था। उसने दूसरी मान्यताएं मानने वाले समाजों की स्त्रियों का अपहरण कर उनको अपने राजमहल में जबरन रखा। उन पर लोभ, लालच, डर और मोह का जाल डालकर उनको अपने वश में किया ताकि दूसरा समाज तिरस्कृत हो। उसने श्रीसीता जी को भी साधारण स्त्री समझ लिया जो उसके आकर्षण मेें फंस सकती थी और यही गलती उसे ले डूबी पर इसका यह भी एक पक्ष भी है कि अन्य मान्यताओं के लोगों का वह जिस तरह विरोध कर रहा था अंततः उसे एक दिन श्रीराम जी समक्ष युद्ध करने जाना ही था।
         आज हम देखें तो हालत वैसे ही हैं। हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्मिक दर्शन ही धर्म हैं पर उसका कोई नाम नहीं है जबकि अन्य धर्मों में कर्मकांडों को भी उसके साथ जोड़ा जाता है। धर्म का अर्थ कोई विस्तृत नहीं है। निष्काम भाव से कर्म करना, निष्प्रयोजन दया करना, समस्त जीवों के प्रति समान भाव रखते हुए अपने इष्ट का ही स्मरण करना उसका एक रूप है। अन्य धर्मों में उससे मानने की अनेक शर्तें हैं और यह पहनने, ओढ़ने, नाम रखने और अभिवादन के तरीकों पर भी लागू होती हैं।
         इतिहास में हम देखें तो हमारे देश में किसी धर्म का नाम लेकर युद्ध नहीं हुआ बल्कि उसके तत्वों की स्थापना का प्रयास हुआ। धर्म के अनुसार ही राजनीति होना चाहिये पर राजनीतिक शक्ति सहारे धर्म चलाना गलत है। आज हो यह रहा है कि लालच, लोभ, मोह, और दबाव डालकर लोगों को न केवल अपना इष्ट बल्कि नाम तक बदलवा दिया जाता है। पूजा पद्धति बदलवा दी जाती है। यह सब अज्ञान और मोह के कारण होता है। इस तरह कौन खुश रह पाता है?
       चाणक्य और कबीर भी यही कहते हैं कि अपना इष्ट या वर्ग बदलने से आदमी तनाव में जीता है। हमने भी देखा है कि अनेक लोग अपना नाम, इष्ट और वर्ग बदल जाते हैं पर फिर भी उसकी चर्चा करते है जबकि होना चाहिये कि वह फिर अपने नाम, इष्ट और वर्ग की बात तक न करें। कहने को तो वह यह कहते हैं कि यह सब बदलाव की वजह से उनको धन, सफलता और सम्मान मिला पर भौतिक उपलब्धियों से भला कोई खुश रह सकता है?
       दशहरे के इस पावन पर्व पर हमें अपने इष्ट भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुए उनके चरित्र पर भी विचार करना चाहिए तभी पर्व मनाने का मजा है। इस अवसर पर हम अपने पाठकों, ब्लाग मित्रों और सहृदय सज्जनों के बधाई देते हैं।यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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